भारत से लौटते समय दिग्विजयी सिकन्दर के साथ थी अनिन्द्य सुन्दरी फिलिप्स। सिकन्दर उसके रूपजाल में फँसकर सब कुछ भूल गया था। फिलिप्स के इस रूपजाल को पहचाना यूनान के महान् दार्शनिक अरस्तू ने। फिलिप्स विषकन्या थी, इसलिए अरस्तू ने सिकंदर को सावधान किया, किंतु बात कुछ ही समय के लिए टल सकी। बात फिलिप्स को पता चली और वह अरस्तू से चिढ़ गयी। बदला लेने के लिए उसने अरस्तू पर भी रूपजाल फेंक दिया और वे उसके पीछे ऐसे पागल हुए कि निम्नतर कार्य करने को तैयार हो गये।
एक दिन फिलिप्स ने अरस्तू को घुटनों के बल घोड़ा बनाया, लगाम डाली और उनकी पीठ पर जीन कसकर सवार हो गयी। उसने उनकी पीठ पर चाबुक मारकर उन्हें सारे कमरे में दौड़ाया। अकस्मात् सिकंदर वहाँ पहुँचा और उसने जब यूनान के महान् विद्वान् की वह दीन-हीन दशा देखी, तो वह आश्चर्य से हतबुद्धि रह गया। उसने अरस्तू से प्रश्न किया, “यह सब क्या है ?" दार्शनिक ने धीर-गम्भीर स्वर में उत्तर दिया, "जो रमणी मुझ जैसे व्यक्ति से यह सब करवा सकती है, वह मुझसे कम आयुवाले अनुभवशून्य युवक के लिए क्या अधिक खतरनाक नहीं हो सकती ? मैंने तुम्हें पहले सावधान किया था और उसका असर न होते देख अब प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है!"