दादाभाई नौरोजी: स्वतंत्रता की पहली लौ | The Voice TV

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कृतज्ञता एक ऐसा फूल है जो महान आत्माओं में खिलता है - पोप फ्रांसिस

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दादाभाई नौरोजी: स्वतंत्रता की पहली लौ

Date : 30-Jun-2025
1892 में जब दादाभाई नौरोजी ब्रिटेन की संसद में पहुंचे, तो वे केवल एशिया के पहले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने हाउस ऑफ कॉमन्स में कदम रखा, बल्कि वे उस दौर में भारत की आवाज़ भी बन गए। महात्मा गांधी से पहले वह भारत के सबसे प्रमुख नेता माने जाते थे। जातिवाद और साम्राज्यवाद के विरोधी के रूप में उनकी पहचान वैश्विक स्तर पर बनी। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि प्रगतिशील राजनीतिक शक्ति अंधकारमय समय में भी उम्मीद की किरण बन सकती है।

नौरोजी का जन्म बॉम्बे के एक ग़रीब परिवार में हुआ। वे उस समय की नई फ्री पब्लिक स्कूलिंग प्रणाली के पहले लाभार्थियों में से थे। उनका मानना था कि शिक्षा से मिले नैतिक ऋण को समाज सेवा के माध्यम से चुकाना चाहिए। छोटी उम्र से ही वे प्रगतिशील विचारों की ओर झुकाव रखने लगे।

1840 के दशक में उन्होंने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक स्कूल खोला। उन्हें रूढ़िवादी सोच वाले पुरुषों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन उनकी तर्कशक्ति और धैर्य ने अंततः हवा का रुख बदल दिया। केवल पाँच वर्षों में बॉम्बे में उनका स्कूल छात्राओं से भर गया। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की माँग को खुलकर उठाया। उनका मानना था कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह अधिकारों, अवसरों और कर्तव्यों में बराबरी की हकदार हैं। उनके प्रयासों से भारत में महिला शिक्षा के प्रति समाज का दृष्टिकोण धीरे-धीरे बदलने लगा।

दादाभाई नौरोजी के विचारों में सबसे क्रांतिकारी योगदान उनकी "ड्रेन थ्योरी" थी, जिसे उन्होंने ब्रिटिश शासन के तहत भारत से ब्रिटेन की ओर धन के पलायन के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने तर्क दिया कि ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियाँ, जैसे कि भारतीय उत्पादों पर ऊँचे शुल्क लगाना, भारत से कच्चे माल का निर्यात और प्रशासनिक खर्चों का भुगतान भारत से करना, इन सभी के कारण भारत से ब्रिटेन की ओर हर साल लगभग 30 मिलियन पाउंड का शुद्ध धन पलायन हो रहा था। यह पलायन भारत की गरीबी का मुख्य कारण था।

नौरोजी का मानना था कि यह धन निकासी टिकाऊ नहीं है और यदि इसे रोका नहीं गया, तो भारत का पतन निश्चित है। उनकी यह थ्योरी भारतीय राष्ट्रवाद के लिए प्रेरणा बन गई और इससे स्वतंत्रता की मांग को बल मिला। उन्होंने 1901 में प्रकाशित अपनी पुस्तक Poverty and Un-British Rule in India में इन विचारों को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया।

अपने जीवन में नौरोजी ने कई ऐतिहासिक योगदान दिए। वे पहली भारतीय फर्म ‘कामा एंड कंपनी’ के भागीदार बने। 1874 में बड़ौदा के महाराजा के दीवान के रूप में कार्य किया। उन्होंने 1856 में लंदन इंडियन सोसाइटी और 1867 में ईस्ट इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की, जो बाद में भारतीय राजनीति और जनमत निर्माण का आधार बनीं। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। वे 1886, 1893 और 1906 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।

निष्कासन सिद्धांत के आधार पर 1896 में ब्रिटिश सरकार को भारतीय व्यय की जांच के लिए एक शाही आयोग बनाना पड़ा। नौरोजी राजनीति में सांख्यिकी के वैज्ञानिक प्रयोग करने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने अपने सिद्धांतों के पक्ष में ठोस आँकड़े प्रस्तुत कर ब्रिटिश तंत्र को चुनौती दी।

उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी जैसे नेताओं का मार्गदर्शन किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अगली पीढ़ी को दिशा दी। वर्ष 2014 में भारत और यूनाइटेड किंगडम के संबंधों में उनके योगदान को मान्यता देते हुए ‘दादाभाई नौरोजी पुरस्कार’ की शुरुआत की गई।

दादाभाई नौरोजी न सिर्फ एक नेता थे, बल्कि वे एक विचार थे—ऐसा विचार जो न्याय, समानता और स्वतंत्रता की नींव पर खड़ा था।
 
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