जलवायु परिवर्तन से बढ़ता तापमान एक वैश्विक संकट है, जिसके प्रभाव पर्यावरण, समाज, और अर्थव्यवस्था पर गहरे और दीर्घकालिक हैं। इसके समाधान के लिए सरकारों, उद्योगों, वैज्ञानिकों, और व्यक्तियों के सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है।भारत, जो दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील है। इसके तटीय एवं हिमालयी क्षेत्र, और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था इसे जोखिम में डालते हैं। इस खतरे से निपटने के लिए भारत ने राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना, इंटरनेशनल सोलर अलायंस और स्मार्ट सिटी जैसी कई पहल शुरू की हैं।
पेरिस समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। जिसमें भारत ने 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का वादा किया है।विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार 1850-1900 की तुलना में वैश्विक औसत तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। यह बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरण, बल्कि मानव स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, और जैव विविधता पर भी गंभीर प्रभाव डाल रहा है।
जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से ग्रीनहाउस गैसों (जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, और नाइट्रस ऑक्साइड) के उत्सर्जन के कारण होता है, जो वातावरण में गर्मी को रोककर पृथ्वी के तापमान को बढ़ाते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद से, मानवीय गतिविधियों ने इन गैसों के उत्सर्जन को तेजी से बढ़ाया है। नतीजतन, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, और मौसम की चरम घटनाएं अधिक तीव्र और बार-बार हो रही हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में, जहां कृषि और जल संसाधनों पर निर्भरता अधिक है, यह समस्या और भी गंभीर है।
बढ़ते तापमान के कारण गर्मी की लहरें (हीटवेव) अधिक तीव्र और बार-बार हो रही हैं। भारत में, विशेष रूप से उत्तर और मध्य भारत में, गर्मी की लहरों से हर साल हजारों लोग प्रभावित होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, हीटस्ट्रोक और डिहाइड्रेशन जैसी गर्मी से संबंधित बीमारियां बढ़ रही हैं। हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने से नदियों में पानी की उपलब्धता अनिश्चित हो रही है। उदाहरण के लिए, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां, जो भारत और दक्षिण एशिया की जीवनरेखा हैं, प्रभावित हो रही हैं।अनियमित मानसून और सूखे ने जल संकट को और गहरा दिया है, जिससे पेयजल और सिंचाई के लिए पानी की कमी हो रही है।
तापमान में वृद्धि और अनियमित वर्षा से फसलों की पैदावार भी प्रभावित हो रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अनुसार, गेहूं और चावल जैसी प्रमुख फसलों की उत्पादकता में कमी देखी जा रही है।कीटों और रोगों का प्रकोप भी बढ़ रहा है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर खतरा मंडरा रहा है।तापमान वृद्धि के कारण चक्रवात, बाढ़, सूखा, और जंगल की आग की घटनाएं बढ़ रही हैं। भारत में, केरल (2018, 2019) और उत्तराखंड (2021) की बाढ़ इसका उदाहरण हैं।प्राकृतिक आपदाओं से बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान हो रहा है। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से विकासशील देशों को सालाना अरबों डॉलर का नुकसान हो सकता है।कृषि और मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में उत्पादकता की कमी से आर्थिक स्थिरता पर असर पड़ रहा है।
इस खतरे को कम करने के लिए भारत सरकार सौर, पवन, और जलविद्युत जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दे रही है। भारत ने 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। इसके साथ ऊर्जा-कुशल उपकरणों, इमारतों, और परिवहन प्रणालियों को प्राथमिकता दी जा रही है। देश में परिवहन के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना इस कवायद का हिस्सा है। वहीं भारत ने अपनी राष्ट्रीय वन नीति के तहत 33 प्रतिशत भूमि को वन क्षेत्र बनाने का लक्ष्य रखा है। कार्बन उत्सर्जन में कमी करने के साथ उद्योगों में स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाकर भी चुनौती से निपटा जा सकता है। सरकारी प्रयासों के अलावा आम आदमी को भी भविष्य की चुनौती से लड़ने के लिए तैयार होना होगा।
भारतीय जनमानस को स्कूलों, समुदायों और मीडिया के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और समाधानों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है। पानी और बिजली की बचत, पुनर्चक्रण, और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग जैसे छोटे-छोटे कदम इस अभियान का अहम हिस्सा हैं। स्थानीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण और स्वच्छता अभियान के माध्यम से इस वैश्विक चुनौती से निपटा जा सकता है। लोग अधिक से अधिक पौधरोपण करें, पौधों का दान भी चलन में लाना होगा। जिससे लोग पर्यावरण के प्रति जागरुक हो सकंे। भारत जैसे देशों के लिए, जहां संसाधन सीमित हैं, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और नवाचार महत्वपूर्ण हैं। यदि हम अभी कार्रवाई नहीं करते, तो भविष्य की पीढ़ियों को इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ सकता है।
पिछले आठ वर्षों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री एवं योगी आदित्यनाथ के मार्गदर्शन में अकेले उत्तर प्रदेश में 210 करोड़ से अधिक पौधे लगाए गए हैं। यही प्रयास देश की अन्य राज्य सरकारे भी कर रही हैं इसके अतिरिक्त, भारतीय वन सर्वेक्षण (आईएसएफआर) 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, केवल उत्तर प्रदेश में 559.19 वर्ग किलोमीटर वन और वृक्ष आच्छादन में वृद्धि हुई है। फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट देहरादून की थर्ड पार्टी मॉनिटरिंग के अनुसार, यूपी का ग्रीन कवर पिछले 8 सालों में 3.38 लाख एकड़ बढ़ा है और वन क्षेत्र के बाहर वृक्षावरण में 3.72 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है।
सरकारी प्रयासों से लगाए गए पौधों में 70-75 प्रतिशत जीवित हैं, जबकि निजी और स्वैच्छिक संगठनों द्वारा लगाए गए पौधों की जीवितता दर 65-70 प्रतिशत है। वन विभाग के अनुसार, 2021-22 में 77 प्रतिशत, 2022-23 में 84 प्रतिशत, 2023-24 में 90 प्रतिशत, और पिछले साल 96 प्रतिशत पौधे जीवित रहे। यह उपलब्धि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के वृहद पौधरोपण अभियानों और जनसहभागिता के कारण संभव हुई है। इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारे भी संजीदा दिख रही है जो एक शुभ संकेत है अब जरूरत है आम जन मानस को इस अभियान से जुड़ने की तभी सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं l
(लेखक-राजेन्द्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)