दानवीर भामाशाह भारतीय इतिहास के उन महानायकों में से एक हैं, जिनकी देशभक्ति, त्याग और सेवा की मिसालें आज भी प्रेरणा देती हैं। अग्रवंश के गौरव, भामाशाह ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवन भर की सम्पूर्ण धन-संपदा मेवाड़ के महाराणा प्रताप के चरणों में अर्पित कर दी। यह उनका निष्ठापूर्ण योगदान ही था, जो महाराणा प्रताप के जीवन में एक निर्णायक मोड़ बन गया।
यह वह समय था जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून, 1576) में हार चुके थे और मुगल सम्राट अकबर से संघर्ष के चलते उन्हें अपने परिवार सहित पहाड़ियों और जंगलों में छिपकर जीवन यापन करना पड़ा। मातृभूमि की रक्षा के लिए वे फिर से सेना खड़ी करना चाहते थे, किंतु उनके पास धन का अभाव था। जब यह समाचार भामाशाह को मिला, तो उनका हृदय व्यथित हो उठा। उन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी लेकर महाराणा प्रताप के पास जाकर कहा, "मैंने यह धन देश से कमाया है, और इसे देश की सेवा में लगाना मेरा सौभाग्य होगा।"
महाराणा प्रताप ने पहले तो संकोचवश इसे लेने से मना किया, लेकिन भामाशाह ने स्पष्ट किया कि यह दान वे मातृभूमि और मेवाड़ की प्रजा के लिए दे रहे हैं, न कि किसी एक व्यक्ति के लिए। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, "यदि मेवाड़ पराधीन हो गया तो इस धन का क्या मूल्य रहेगा? यदि मेवाड़ स्वतंत्र रहेगा, तो मैं फिर से यह सब कमा लूंगा।"
माना जाता है कि भामाशाह द्वारा दी गई सम्पत्ति इतनी विशाल थी कि उससे 25,000 सैनिकों का कई वर्षों तक निर्वाह संभव था। इस महान योगदान से महाराणा प्रताप ने फिर से सेना संगठित की और एक-एक करके मुगलों को पराजित कर मेवाड़ के अधिकांश हिस्से को स्वतंत्र करा लिया। यह आर्थिक और नैतिक सहयोग उनके लिए नई शक्ति का संचार था।
भामाशाह न केवल एक उदार और त्यागी पुरुष थे, बल्कि वे महाराणा प्रताप के बाल्यकाल से ही उनके मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार रहे। उनका जन्म 1547 में राजस्थान के पाली जिले के सादड़ी गांव में ओसवाल जैन वैश्य परिवार में हुआ था, हालांकि कुछ इतिहासकार उन्हें चित्तौड़गढ़ में जन्मा मानते हैं। उनके पिता भारमल रणथंभौर किले के किलेदार थे, जिन्हें राणा सांगा ने नियुक्त किया था। माता कर्पूर देवी ने उन्हें बचपन से ही राष्ट्रसेवा और त्याग की भावना से पोषित किया।
भामाशाह केवल धन देने वाले नहीं थे, बल्कि उन्होंने यह दर्शाया कि सच्ची सेवा सिर्फ शब्दों से नहीं, कर्म से होती है। उनके योगदान की स्मृति में छत्तीसगढ़ सरकार ने 'दानवीर भामाशाह सम्मान' की स्थापना की है, जो समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष योगदान देने वालों को प्रदान किया जाता है। राजस्थान सरकार ने 2008 में महिला सशक्तिकरण हेतु ‘भामाशाह कार्ड’ योजना शुरू की। भारत सरकार ने वर्ष 2000 में उनके सम्मान में ₹3 मूल्य का डाक टिकट जारी किया। उदयपुर में राजाओं के समाधि स्थल के मध्य उनकी समाधि है, और चित्तौड़गढ़ किले में आज भी उनकी हवेली मौजूद है। हरियाणा के अग्रोहा में भी उनके सम्मान में स्मारक बनाया गया है।
16 जनवरी 1600 को 53 वर्ष की आयु में इस कर्मयोगी का देहावसान हुआ, लेकिन उनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अमर हो गया। आज भी जब कोई व्यक्ति राष्ट्र के लिए बड़ा आर्थिक या सामाजिक योगदान देता है, तो उसे "दानवीर भामाशाह" की उपाधि से नवाज़ा जाता है। भामाशाह का जीवन हमें सिखाता है कि जब देश संकट में हो, तब केवल तलवार नहीं, बल्कि त्याग, समर्पण और सेवा की भावना ही असली वीरता होती है।