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भगवान जगन्नाथ के तीन रथों की महिमा और उनकी पौराणिक कथाएँ

Date : 27-Jun-2025
यह रथयात्रा और पुरी का जगन्नाथ मंदिर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। माना जाता है कि पुरी मंदिर का निर्माण दो सौ वर्ष ईसा पूर्व हुआ था। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार धर्म पीठों में से एक पीठ पुरी में भी स्थापित है, जो ऋग्वेदी पीठ है और गोवर्धन मठ के नाम से जानी जाती है। पुरी के विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर से यह रथयात्रा आरंभ होती है। इस मंदिर में भगवान कृष्ण (जगन्नाथ जी के रूप में), उनके बड़े भ्राता बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं।

रथयात्रा का स्वरूप और महत्व
भगवान जगन्नाथ जी अपने बड़े भाई बलभद्र जी और बहन सुभद्रा के साथ प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया को तीन रथों में सवार होकर गुंडिचा मंदिर जाते हैं, जो यहां से तीन किलोमीटर दूर है। वहां कुछ दिन रुककर वे आषाढ़ शुक्ल पक्ष दसवीं को लौटते हैं। इस वर्ष यात्रा 7 जुलाई को आरंभ हो रही है और इसका समापन 16 जुलाई को होगा। सामान्यतः यह रथयात्रा पंद्रह दिन की होती है, लेकिन इस वर्ष तिथियों में कुछ परिवर्तन के कारण यह दो दिन कम रहेगी।

यात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ जी नंदीघोष नामक रथ में विराजमान होंगे, जिसकी ध्वजा का नाम त्रैलोक्य मोहिनी है। इस रथ का रंग हल्का लाल-पीला होता है, इसमें 16 पहिए होते हैं और इसकी ऊंचाई 44.2 फीट होती है। बलभद्र जी के रथ की ध्वजा ताल ध्वज है और इस रथ की ऊंचाई 43.2 फीट होती है, इसमें 14 पहिए होते हैं। सुभद्रा जी का रथ 42 फीट ऊंचा होता है और इस रथ की ध्वजा का नाम दर्प दलन है।

रथों का क्रम इस प्रकार होता है: सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उनके पीछे सुभद्रा जी का रथ और फिर भगवान जगन्नाथ जी का रथ। रथ के सारथी दारूक और द्वारपाल जय-विजय होते हैं, जबकि संरक्षक गरुड़ जी हैं। इन रथों को 50 मीटर लंबी रस्सियों द्वारा हाथ से खींचा जाता है। रथ खींचने के लिए लाखों श्रद्धालु मानों स्पर्धा करते हैं, सभी रथ खींचकर पुण्य लाभ लेना चाहते हैं। सबसे पहले बलराम जी का रथ खींचा जाता है, फिर देवी सुभद्रा का और अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ होता है।

रथयात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया से आरंभ हो जाती है। यात्रा के लिए प्रतिवर्ष नए रथ बनाए जाते हैं, जिनके लिए नारियल और नीम की लकड़ी का उपयोग होता है। इन रथों के निर्माण के लिए आधुनिक मशीनों का उपयोग नहीं होता, बल्कि स्थानीय कारीगर परंपरागत कला से इन्हें तैयार करते हैं। रथ के लिए लकड़ियाँ पेड़ों से काटी नहीं जातीं, बल्कि संग्रहीत की जाती हैं (सूखकर गिरी हुई या समुद्र में बहकर आई हुई)। यात्रा आरंभ होने से पहले राजा रथ के आगे झाड़ू लगाते हैं, उनके साथ राजपुरोहित और सबर जनजाति समाज के मुखिया होते हैं।

पौराणिक कथा और स्वस्थ होने की मान्यता
पौराणिक कथा के अनुसार, यह क्षेत्र पहले सबर भील जनजाति बहुल था। प्राचीनकाल में उसके मुखिया विश्ववसु थे, जो भगवान नील माधव के उपासक थे। एक रात भगवान नील माधव ने राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में मंदिर बनाने को कहा। राजा ने अपने पुरोहित विद्यापति को मूर्ति लाने को कहा। पुरोहित विद्यापति ने सबर जनजाति के मुखिया विश्ववसु की पुत्री से विवाह कर लिया और परिवार का विश्वास जीतकर मूर्ति राजा को दे दी। भगवान की मूर्ति चोरी हो जाने से विश्ववसु बहुत दुखी हुआ और उसने अन्न त्याग दिया।

तब भगवान स्वयं चलकर वापस आ गए और उन्होंने राजा को दोबारा स्वप्न दिया, जिसमें उन्हें समुद्र में द्वारिका से बहकर आने वाली लकड़ी से मूर्तियाँ बनवाने को कहा। राजा ने पुरी के समुद्र तट से लकड़ी संग्रहीत की। विश्वकर्मा जी स्वयं मूर्ति बनाने आए। उन्होंने इक्कीस दिन तक द्वार बंद करके कार्य किया और फिर अंतर्ध्यान हो गए। तब वे मूर्तियाँ उसी रूप में स्थापित कर दी गईं।

रथयात्रा से पूर्व भगवान जगन्नाथ जी पंद्रह दिन अज्ञातवास में रहते हैं। यह माना जाता है कि वे अस्वस्थ हो गए थे और उपचार करा रहे थे। स्वस्थ होकर ही भगवान जगन्नाथ जी यात्रा पर निकलते हैं। इस यात्रा में सहभागी होने के लिए देश-विदेश से लाखों लोग एकत्र होते हैं और यह यात्रा पूरे राजसी वैभव से निकाली जाती है।

परिवार, समाज और राष्ट्रीय एकत्व का प्रतीक
भारत के समस्त तीज-त्योहार और उत्सव परंपराएं व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण का संकेत होती हैं। पुरी में आयोजित भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भी यही संदेश है। पुरी के राजा, पुरोहित और सबर जनजातीय समाज के लोग इस यात्रा का शुभारंभ करते हैं। राजा का स्वयं रथ के आगे झाड़ू लगाना और उनके साथ पुरोहित एवं सबर भील जनजातीय मुखिया का साथ होना भारतीय समाज की समरसता का प्रतीक है। भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में सबर भील जनजातीय समाज के पुजारी भी होते हैं। मंदिर की दूसरी विशेषता यह है कि इसके सेवादारों में सभी प्रांतों और भाषा-भाषी लोग हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ही यहां नीलमाधव और जगन्नाथजी के रूप में विराजे हैं। उनका जन्मस्थान मथुरा और उनकी नगरी द्वारिका है। मान्यता है कि पहली बार जब भगवान जगन्नाथ जी की काष्ठ प्रतिमा बनाई गई थी, वह द्वारिका से ही समुद्र में बहकर आई थी। यदि पुरी भारत के एक छोर पर है, तो द्वारिका बिल्कुल दूसरे छोर पर है। मंदिर में देवी सुभद्रा की प्रतिमा भी है, जो भगवान श्रीकृष्ण की बहन हैं और हस्तिनापुर (आज का दिल्ली महानगर) में ब्याही गई थीं। तीसरी बात यह कि यहां विभीषण द्वारा भगवान जगन्नाथजी की आराधना करने का स्थल भी है। विभीषण श्रीलंका के राजा थे। दिल्ली एक ओर और श्रीलंका भारत के दूसरे छोर पर है। यह स्थिति द्वारिका और पुरी में भी है। इस प्रकार, जगन्नाथ पुरी मंदिर और रथोत्सव में जहां समाज के सभी समूहों की सहभागिता है, वहीं पूरे भारत का दर्शन भी होता है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ जी के बड़े भ्राता बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी हैं, जो परिवार समन्वय का संदेश देते हैं।

इस रथोत्सव के लिए रथों का निर्माण केवल लकड़ी से होता है और धातु का कोई प्रयोग नहीं होता। लेकिन यह लकड़ी पेड़ों को काटकर नहीं जुटाई जाती, बल्कि पेड़ों से सूखकर जो स्वयं गिरती है अथवा समुद्र में बहकर आती है, उसी लकड़ी का प्रयोग होता है। यह पर्यावरण की सुरक्षा का अद्भुत संदेश है। रथ बनाने के लिए मशीनों का उपयोग बिल्कुल नहीं होता। स्थानीय कारीगर और कलाकार लोककला के आधार पर इन्हें बनाते हैं, जो भारतीय लोक परंपरा को सजीव रखने का प्रयास है।

विध्वंस और पुनर्निर्माण का लंबा इतिहास
यदि मंदिर ऐतिहासिक है, तो इस पर हमलों और इसके विध्वंस का इतिहास भी बहुत लंबा है। संभवतः अयोध्या में विध्वंस और पुनर्निर्माण के संघर्ष के बाद दूसरा सबसे बड़ा संघर्ष पुरी में ही हुआ।

पहला हमला 1340 में बंगाल के सुल्तान इलियास शाह ने किया, जब ओडिशा (तत्कालीन उत्कल प्रदेश) में राजा नरसिंह देव तृतीय का शासन था। मंदिर की रक्षा नहीं हो सकी, परिसर में सामूहिक नरसंहार और विध्वंस हुआ। राजा और पुरोहितों ने मूर्तियों को छुपा लिया, जिससे वे सुरक्षित रहीं। लूटपाट के बाद मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ और मूर्तियाँ पुनर्प्रतिष्ठित की गईं।

दूसरा हमला 1360 में दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक ने किया।

तीसरा हमला 1509 में बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह के कमांडर इस्माइल गाजी ने किया। तब ओडिशा में राजा रुद्रदेव प्रताप का शासन था। इस बार पुजारियों ने मूर्तियों को बंगाल की खाड़ी में चिल्का झील क्षेत्र में छुपा दिया था।

जगन्नाथ मंदिर पर चौथा हमला अफगानी लुटेरे काला पहाड़ ने 1568 में किया था। यह भीषण हमला था, जिसमें जगन्नाथ मंदिर को ध्वस्त करने के साथ मूर्तियों को भी जलाकर नष्ट कर दिया गया था। इस युद्ध के बाद ओडिशा सीधे इस्लामिक शासन के अंतर्गत आ गया था।

पांचवां हमला 1592 में सुल्तान की ओर से कुथू खान और सुलेमान खान ने किया। भक्तों और पुजारियों ने मंदिर की रक्षा का संघर्ष किया, पर मंदिर ध्वस्त हुआ, सामूहिक नरसंहार हुआ और मूर्तियों को खंडित कर लूटपाट हुई।

छठा हमला 1601 में बंगाल के नवाब इस्लाम खान के कमांडर मिर्जा खुर्रम द्वारा, और सातवां हमला सूबेदार हाशिम खान द्वारा हुआ।

इसके बाद चार बार स्थानीय शासक सेनापतियों ने मंदिर के पुनर्निर्माण कार्य को ध्वस्त किया।

मंदिर पर एक बड़ा हमला 1611 में मुगल बादशाह अकबर की सेना ने किया, जिसमें अकबर के दरबारी राजा टोडरमल के बेटे कल्याणमल भी शामिल थे।

1617 में दिल्ली के बादशाह जहांगीर के सेनापति मुकर्रम खान ने, और 1621 में मुगल गवर्नर मिर्जा अहमद बेग ने हमला किया।

मुगल बादशाह शाहजहां ने एक बार ओडिशा का दौरा किया था, तब भी पुजारियों ने मूर्तियों को छुपा दिया था।

वर्ष 1641 में ओडिशा के मुगल गवर्नर मिर्जा मक्की ने मंदिर परिसर पर धावा बोला और पुनर्निर्माण के कार्यों को ध्वस्त किया। मिर्जा मक्की ने दो बार मंदिर के पुनर्निर्माण कार्य को ध्वस्त किया था।

अगला हमला भी फतेह खान ने किया था।

मंदिर पर काला पहाड़ की भांति सबसे भीषण हमला बादशाह औरंगजेब के आदेश पर वर्ष 1692 में हुआ। औरंगजेब ने मंदिर को पूरी तरह ध्वस्त करके इसे सैन्य छावनी बनाने का आदेश दिया। तब मुगलों की ओर से ओडिशा में इकराम खान किलेदार था। मुगलों के तुकी खान ने 1699 में मंदिर परिसर के सभी सनातन चिन्हों को नष्ट किया या उन्हें रूपांतरित करके पूर्ण रूप से सैन्य छावनी में बदल दिया था।

मुगलों के पतन और मराठा शक्ति के उदय के बाद मंदिर का पुनर्निर्माण आरंभ हुआ। समय के साथ परिसर खाली हुआ और मंदिर पुनः अपने अस्तित्व में आया। वर्तमान मंदिर को उसका स्वरूप देने का कार्य इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने आरंभ किया और समय के साथ अपना आकार ले सका।
 
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