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संत विनोबा भावे: सेवा और सत्य के प्रतीक

Date : 11-Sep-2025
संत विनोबा भावे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक महान सेनानी, समाज सुधारक, आध्यात्मिक चिंतक और गांधीवादी विचारधारा के प्रमुख वाहक थे। उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा गांव में हुआ था। उनका असली नाम विनायक नरहरि भावे था। बचपन से ही वे अध्ययनशील, विवेकी और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उनकी आध्यात्मिक रुचि भगवद्गीता की ओर बढ़ी, जो बाद में उनके जीवन का आधार बन गई।

विनोबा भावे ने 1916 में साबरमती आश्रम में पहली बार महात्मा गांधी से मुलाकात की और जीवन भर उनके सिद्धांतों का पालन किया। वे सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और आत्मनिर्भरता के कट्टर समर्थक थे। गांधीजी ने उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी माना। स्वतंत्रता के बाद विनोबा भावे ने समाज सुधार के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया। 1951 में उन्होंने तेलंगाना से भूदान आंदोलन की शुरुआत की, जिसके तहत उन्होंने जमींदारों से स्वेच्छा से जमीन दान में लेकर भूमिहीन किसानों में वितरित की। इस आंदोलन के दौरान उन्होंने लगभग 70,000 गांवों का पदयात्रा किया और 50 लाख एकड़ से अधिक जमीन का दान प्राप्त किया। यह अहिंसक आंदोलन विश्व इतिहास में अनोखा माना जाता है।

अपना जीवन विनोबा भावे ने सादगी, तपस्या और आत्म-शुद्धि के मार्ग पर बिताया। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे और किसी पद या पुरस्कार की इच्छा नहीं रखते थे। वे भगवद्गीता को अपने जीवन का मार्गदर्शक मानते थे और उसका सरल अनुवाद मराठी, हिंदी समेत कई भाषाओं में किया। भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया, लेकिन उन्होंने इसे औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे मानते थे कि सम्मान सेवा का उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

13 नवंबर 1982 को विनोबा भावे ने जैन धर्म की आत्म-त्याग की प्रक्रिया ‘सल्लेखना’ के माध्यम से स्वेच्छा से शरीर त्याग दिया। उनका निधन शांत और स्थिर चेतना में हुआ, जैसा कि एक सन्त के जीवन के लिए उपयुक्त माना जाता है।

उनके कुछ प्रसिद्ध विचारों में यह शामिल हैं कि जीवन में अधिकारों की तुलना में कर्तव्यों पर अधिक ध्यान देना चाहिए, शांति शक्ति से नहीं बल्कि प्रेम और सेवा से आती है, और उनका उद्देश्य विनाश नहीं बल्कि विकास था।
 
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