पितृपक्ष: पूर्वजों की स्मृति और कृतज्ञता का पर्व | The Voice TV

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पितृपक्ष: पूर्वजों की स्मृति और कृतज्ञता का पर्व

Date : 07-Sep-2025
भारतवर्ष की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में पितृपक्ष का विशेष स्थान है। यह वह सोलह दिवसीय अवधि होती है, जब संपूर्ण हिंदू समाज अपने पितरों (पूर्वजों) को श्रद्धापूर्वक स्मरण करता है और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है। पितृपक्ष केवल एक धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं है, बल्कि यह हमारी सामाजिक और पारिवारिक जड़ों से जुड़े रहने की परंपरा को भी दर्शाता है।

 पितृपक्ष की तिथि और अवधि

पितृपक्ष हर वर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा (जिसे पूर्णिमा श्राद्ध कहा जाता है) से आरंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इसे सोलह श्राद्ध, महालया पक्ष या अपर पक्ष भी कहा जाता है। इन सोलह दिनों के दौरान लोग अपने दिवंगत पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान और ब्राह्मण भोजन करवाकर आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं।

 पितृपक्ष का आध्यात्मिक महत्व

हिंदू शास्त्रों के अनुसार, मनुष्य के जीवन में तीन ऋण होते हैं— देव ऋण, ऋषि ऋण, और पितृ ऋण। पितृपक्ष का पर्व विशेष रूप से पितृ ऋण को चुकाने का समय माना गया है। ऐसा विश्वास है कि पितर इस दौरान पृथ्वी पर अपने वंशजों के पास आते हैं और तर्पण, श्राद्ध आदि के माध्यम से संतुष्ट होते हैं। जो संतान विधिपूर्वक यह कर्म करती है, उसे पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे परिवार में सुख-शांति, संतान-सुख और समृद्धि बनी रहती है।

 श्राद्ध, तर्पण और पिण्डदान की प्रक्रिया

श्राद्ध का अर्थ है 'श्रद्धा से किया गया कर्म'। यह क्रिया मृत पूर्वजों की आत्मा की तृप्ति हेतु की जाती है।

तर्पण जल, तिल और कुशा के माध्यम से किया जाता है, जिसमें पितरों के नाम का उच्चारण कर उन्हें जल अर्पित किया जाता है।

पिण्डदान में चावल, तिल, जौ आदि से बने पिण्ड अर्पित किए जाते हैं, जिससे आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति में सहायता मिलती है।

श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना, गाय, कुत्ते और कौए को अन्न खिलाना, और ज़रूरतमंदों को दान देना भी पुण्य माना जाता है।

 पितृपक्ष से जुड़ी पौराणिक कथा: दानवीर कर्ण की कथा

पितृपक्ष से संबंधित सबसे प्रसिद्ध कथा दानवीर कर्ण की है। महाभारत के युद्ध के बाद जब कर्ण का देहांत हुआ और वे स्वर्गलोक पहुंचे, तो उन्हें सोने-चांदी और रत्नों का भंडार मिला, लेकिन भोजन नहीं मिला। कर्ण ने इंद्रदेव से इसका कारण पूछा। इंद्रदेव ने उत्तर दिया कि जीवन भर कर्ण ने दान तो बहुत किया, लेकिन अपने पूर्वजों को अन्न का दान नहीं दिया, इसलिए उसे यह फल मिला।

इस पर कर्ण ने प्रार्थना की कि उसे पूर्वजों को अन्न दान देने का अवसर दिया जाए। इंद्रदेव ने उसे 15 दिनों के लिए पृथ्वी पर लौटने की अनुमति दी। उन्हीं 15 दिनों में कर्ण ने पिंडदान, तर्पण और अन्नदान द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट किया। तभी से यह अवधि पितृपक्ष के रूप में मनाई जाती है।

 पितृपक्ष के सामाजिक और भावनात्मक पहलू

पितृपक्ष हमें यह सिखाता है कि हमारी वर्तमान स्थिति केवल हमारे कर्मों का फल नहीं है, बल्कि हमारे पूर्वजों के आशीर्वाद और त्याग का परिणाम भी है। यह पर्व कृतज्ञता की भावना को जागृत करता है। जब हम अपने पितरों का स्मरण करते हैं, तो यह एक प्रकार से हमारे इतिहास, हमारी पहचान और हमारे मूल्यों से जुड़ने की प्रक्रिया बन जाती है।

इसके अलावा, पितृपक्ष का यह भाव भी महत्वपूर्ण है कि मृत्यु अंत नहीं है। हिंदू दर्शन के अनुसार, आत्मा अमर है और उसे तर्पण, पिण्डदान आदि से शांति मिलती है। यह हमें जीवन के गूढ़ सत्य और अध्यात्म की ओर उन्मुख करता है।

 पितृपक्ष में क्या करें और क्या न करें

करने योग्य कार्य:

पितरों के नाम से तर्पण और श्राद्ध करें।

गरीबों को भोजन और वस्त्र दान दें।

ब्राह्मणों को आदरपूर्वक भोजन कराएं।

पवित्रता और शुद्धता बनाए रखें।

न करने योग्य कार्य:

पितृपक्ष के दौरान विवाह, गृहप्रवेश, मुंडन, नामकरण जैसे मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं।

मांसाहार, मद्यपान, तामसिक भोजन आदि से परहेज करना चाहिए।

झूठ, क्रोध, अपशब्दों और अहंकार से बचना चाहिए।

कभी-कभी किसी व्यक्ति की मृत्यु यदि पितृपक्ष से कुछ समय पहले हुई हो, तो उसके लिए नवश्राद्ध (अर्थात नए श्राद्ध) किया जाता है। इसके अलावा, यदि किसी के पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, तो सर्वपितृ अमावस्या (पितृपक्ष की अंतिम तिथि) को श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है।

पितृपक्ष हमें यह सिखाता है कि जीवन केवल वर्तमान में नहीं चलता, वह अतीत से जुड़ा हुआ है और भविष्य की ओर बढ़ता है। पितरों की स्मृति हमें संयम, सेवा और संस्कार का मार्ग दिखाती है। उनके प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता ही वह आधार है, जिस पर एक स्वस्थ और समृद्ध समाज की नींव रखी जाती है।

श्रद्धा से किया गया हर श्राद्ध, आत्मा के मोक्ष का मार्ग बनता है और घर में सुख-शांति और समृद्धि का कारण भी।
इस पावन अवसर पर हम सभी को अपने पितरों का स्मरण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए।
 
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