यादव कृष्ण जोशी जी, जिन्हें यादवराव जी के नाम से जाना जाता है, का जन्म 3 सितम्बर 1914 को अनंत चतुर्दशी के दिन नागपुर के एक पारंपरिक वेदपाठी परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थे। उनके पिता, कृष्ण गोविन्द जोशी जी, एक सामान्य पुजारी थे। इस कारण बचपन से ही यादवराव जी ने अभाव और संघर्ष भरा जीवन जिया, जिससे उनमें साधना और समर्पण की भावना विकसित हुई।
उनका डॉ. हेडगेवार जी से गहरा और आत्मीय संबंध था। वे उनके घर में ही रहते थे और प्रारंभ से ही संघ कार्य से जुड़ गए थे। एक बार जब डॉ. जी मोहिते के बाड़े की शाखा पर उदास मन से आए और वीर सावरकर की नजरबंदी दो वर्ष के लिए बढ़ाए जाने की सूचना दी, तो यह घटना बालक यादवराव के मन पर इतनी गहराई से छपी कि उन्होंने डॉ. जी को अपना आदर्श मान लिया।
यादवराव जी एक प्रतिभाशाली शास्त्रीय गायक भी थे। उन्हें संगीत की दुनिया में 'बाल भास्कर' कहा जाता था। उनके संगीत गुरु शंकरराव प्रवर्तक उन्हें स्नेह से 'बुटली भट्ट' (छोटू पंडित) कहते थे। डॉ. हेडगेवार जी से उनकी पहली भेंट 20 जनवरी 1927 को एक संगीत कार्यक्रम में ही हुई थी, जहां संगीत सम्राट सवाई गंधर्व ने उनके गायन की अत्यंत सराहना की थी। लेकिन इसके बाद उन्होंने संगीत को पीछे छोड़कर संघ कार्य को ही अपना जीवन बना लिया।
वर्ष 1940 में जब संघ में संस्कृत प्रार्थना की शुरुआत हुई, तो उसका प्रथम गायन संघ शिक्षा वर्ग में स्वयं यादवराव जी ने किया। संघ के कई गीतों की धुनें भी उन्होंने ही तैयार कीं। एम.ए. और कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें प्रचारक के रूप में झांसी भेजा गया, लेकिन डॉ. हेडगेवार जी के स्वास्थ्य की गंभीरता को देखते हुए उन्हें शीघ्र ही नागपुर वापस बुला लिया गया।
सन् 1941 में उन्हें कर्नाटक प्रांत प्रचारक नियुक्त किया गया। इसके बाद उन्होंने दक्षिण भारत में संघ कार्य के विस्तार हेतु असंख्य योजनाओं और कार्यक्रमों का संचालन किया। वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख, सेवा प्रमुख और 1977 से 1984 तक सह सरकार्यवाह के दायित्वों पर रहे। उनके प्रयासों से दक्षिण भारत में पुस्तक प्रकाशन, सेवा कार्यों तथा संस्कृत प्रचार को नई दिशा मिली। उनकी प्रेरणा से ‘राष्ट्रोत्थान साहित्य परिषद’ द्वारा ‘भारत भारती’ पुस्तक माला के अंतर्गत बच्चों के लिए लगभग 500 लघु पुस्तकों का प्रकाशन किया गया, जो अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुआ।
यादवराव जी का जीवन सादगी और तप का प्रतीक था। वे प्रातःकालीन नाश्ता नहीं करते थे और भोजन में केवल एक दाल या सब्जी से संतुष्ट रहते थे। उनकी सादी कमीज और धोती उनका प्रिय वेश था। यद्यपि वे छोटे कद के थे, लेकिन उनके विचार और भाषण अत्यंत प्रभावशाली होते थे, जो श्रोताओं के मन-मस्तिष्क को झकझोर देते थे। एक राजनेता ने उन्हें सेना के जनरल की उपमा दी थी।
उनके नेतृत्व में कर्नाटक में अनेक महत्वपूर्ण कार्यक्रम हुए, जिनमें 1948 और 1962 में बंगलौर में क्रमशः 8,000 और 10,000 गणवेशधारी स्वयंसेवकों के शिविर, 1972 में विशाल घोष शिविर, 1982 में बंगलौर में 23,000 कार्यकर्ताओं का हिन्दू सम्मेलन, 1969 में उडुपी में विहिप का प्रथम प्रांतीय सम्मेलन तथा 1983 में धर्मस्थान में आयोजित द्वितीय प्रांतीय सम्मेलन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिसमें 70,000 प्रतिनिधि और एक लाख पर्यवेक्षक उपस्थित थे। विवेकानंद केंद्र की स्थापना तथा मीनाक्षीपुरम् कांड के पश्चात जनजागरण में भी उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।
सन् 1987-88 में वे विदेश यात्रा पर गए। केन्या के एक समारोह में जब वहां के मेयर ने उन्हें 'आदरणीय अतिथि' कहकर संबोधित किया, तो उन्होंने विनम्रता से उत्तर दिया – "मैं अतिथि नहीं, आपका भाई हूं।" उनका मानना था कि भारतवासी जहां भी रहें, वहां की प्रगति में सक्रिय योगदान देना चाहिए, क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं।
जीवन के अंतिम चरण में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गए और 20 अगस्त 1992 को बंगलौर स्थित संघ कार्यालय में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनका जीवन त्याग, समर्पण और राष्ट्रसेवा की एक प्रेरक गाथा बनकर आज भी कार्यकर्ताओं के लिए आदर्श बना हुआ है।