जलझूलनी एकादशी 2025: व्रत, पूजन विधि व पौराणिक महत्व | The Voice TV

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जलझूलनी एकादशी 2025: व्रत, पूजन विधि व पौराणिक महत्व

Date : 03-Sep-2025

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी कहा जाता है। यह एकादशी जलझूलनी एकादशी, वामन एकादशी, पद्मा एकादशी, जयंती एकादशी और डोल ग्यारस जैसे कई नामों से भी जानी जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा में करवट बदलते हैं, इसलिए इसे परिवर्तिनी एकादशी कहा जाता है।

इस वर्ष जलझूलनी एकादशी व्रत बुधवार, 3 सितम्बर 2025 को मनाया जाएगा। यह व्रत अत्यंत पुण्यदायक माना गया है। कहा जाता है कि इस दिन व्रत करने से वाजपेय यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। इससे जीवन के कष्टों का नाश होता है, सम्मान में वृद्धि होती है, धन-धान्य की कोई कमी नहीं रहती और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

एक मान्यता के अनुसार इस दिन देवताओं ने स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने हेतु मां लक्ष्मी की आराधना की थी। इस दिन उनकी विशेष पूजा करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और साधक को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा करने से पापों का नाश होता है और वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, जलझूलनी एकादशी के दिन ही भगवान श्रीकृष्ण का सूरज पूजन (जलवा पूजन) संपन्न हुआ था, जो उनके जन्म के पश्चात पहला धार्मिक संस्कार माना जाता है। इसलिए यह भी कहा जाता है कि जन्माष्टमी का व्रत जलझूलनी एकादशी के व्रत से ही पूर्ण होता है। इस दिन श्रीकृष्ण की भी विशेष पूजा का विधान है।

राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे क्षेत्रों में इस दिन भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का भव्य श्रृंगार किया जाता है और सुसज्जित डोल (पालकी) में उनकी सवारी निकाली जाती है, इसलिए इसे डोल ग्यारस भी कहा जाता है।

मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि इस एकादशी का व्रत करने वाला और भगवान विष्णु को कमल पुष्प अर्पित करने वाला व्यक्ति अंत समय में प्रभु को प्राप्त करता है और उसे त्रिदेवों व त्रिलोक के पूजन के समान पुण्य प्राप्त होता है।

यह व्रत दशमी की रात्रि से ही आरंभ होता है। ब्रह्मचर्य का पालन और सात्विक जीवन का अनुसरण आवश्यक होता है। एकादशी को प्रातःकाल स्नान आदि कर स्वच्छ वस्त्र पहनकर पूजा स्थान पर चौकी पर भगवान विष्णु के वामन अवतार की मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। एक कलश में जल भरकर स्थापित किया जाता है। पूजा की थाली में रोली, मोली, अक्षत, फल, पुष्प, कमल के फूल, दूध, दही, घी, शहद, इत्र, चंदन, तुलसी, जनेऊ आदि सामग्री रखी जाती है।

हाथ में जल लेकर व्रत का संकल्प करें। फिर भगवान विष्णु का पंचामृत से अभिषेक कर, धूप-दीप जलाकर विधिपूर्वक पूजन करें। तिलक करें, वस्त्र अर्पित करें, फूलमाला चढ़ाएं, कमल पुष्प अर्पित करें। यदि स्वयं पूजन संभव न हो तो योग्य पंडित से पूजा करवाई जा सकती है। भगवान को मिठाई का भोग लगाएं। वामन अवतार की कथा का पाठ या श्रवण करें और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें।

माता लक्ष्मी की भी विशेष पूजा की जाती है। उन्हें षोडशोपचार विधि से पूजें और भोग अर्पित करें। फिर लक्ष्मी अष्टोत्तर स्तोत्र का पाठ करें, जिससे वे शीघ्र प्रसन्न होती हैं और साधक को ऐश्वर्य प्रदान करती हैं।

इस दिन अन्न नहीं खाया जाता, केवल फलाहार किया जाता है। भगवान के अभिषेक के जल (पंचामृत) को अपने तथा परिवार के सदस्यों पर छिड़कें और उसे चरणामृत रूप में ग्रहण करें।

रात्रि को जागरण करें, भजन-कीर्तन में समय बिताएं और भगवान की मूर्ति के समीप ही विश्राम करें। अगले दिन द्वादशी को ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दें और फिर स्वयं भोजन करें।

इस दिन दान का विशेष महत्व है। जरूरतमंदों, ब्राह्मणों, अनाथ बच्चों, वृद्धों और लाचारों को भोजन, वस्त्र, पुस्तकें आदि दान देने से महान पुण्य प्राप्त होता है।

पौराणिक कथा के अनुसार, त्रेतायुग में बलि नामक एक असुर राजा था, जिसने अपनी तपस्या और शक्ति से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। उसने देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गए, जिन्होंने वामन अवतार लेकर धरती पर आगमन किया।

राजा बलि ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें वह आने वाले याचकों को दान दे रहा था। भगवान विष्णु ब्राह्मण वामन के रूप में वहां पहुंचे और बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी। शुक्राचार्य ने बलि को सतर्क किया कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, बल्कि स्वयं विष्णु हैं, परंतु बलि अपने वचन से पीछे नहीं हटा।

वामन भगवान ने विराट रूप धारण कर लिया और एक पग में पृथ्वी और दिशाओं को, दूसरे पग में स्वर्गलोक को नाप लिया। जब तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं बचा, तब बलि ने अपना सिर आगे कर दिया। भगवान उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए और उसे पाताल का राजा बना दिया। बलि ने भगवान से वर मांगा कि वे सदैव उसके समक्ष रहें। भगवान ने उसकी यह इच्छा पूर्ण की और उसके साथ पाताल चले गए।

इस प्रकार देवताओं को स्वर्गलोक वापस मिला और बलि को परम भक्ति का आदर्श माना गया। जलझूलनी एकादशी पर इस कथा का स्मरण कर भगवान वामन की पूजा करना अत्यंत फलदायक होता है।

 
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