बात उस समय की है, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी निच्चेगोंड के गाँधी आश्रम में काम करते थे। एक बार अनावृष्टि के कारण अकाल की स्थिति आ गयी। तब आश्रम में हर गुरुवार को सस्ते मूल्य पर अनाज बेचा जाने लगा।
एक दिन राजाजी के पास दो ग्रामवासियों के बारे में यह शिकायत आयी कि उन्होंने प्रतिज्ञा तोड़कर ताड़ी पी है, किन्तु राजाजी द्वारा उनसे बार-बार पूछे जाने पर भी वे अस्वी-कार करते रहे कि उन्होंने ताड़ी पी थी। उन्हें सन्देह हुआ कि वे झूठ बोल रहे हैं, किन्तु उनसे सत्य बात कैसे उगलवायी जाय ? उनके एक साथी ने भगवान् की शपथ लिवाने की सलाह दी, किन्तु राजाजी को इस पर विश्वास न हुआ। अकस्मात् उनकी दृष्टि एक की चप्पल पर गयी और उन्होंने कुछ सोचकर एक से प्रश्न किया, "तुम मोची हो न ?"
"हाँ, हम दोनों मोची ही हैं।" उसने उत्तर दिया।
"तब तो तुम्हारा जीवन चमड़े से ही चलता होगा। तुम्हारी रोजी-रोटी देनेवाला यह चमड़ा ही है, इसलिये इस चप्पल को स्पर्श कर कहो कि तुमने ताड़ी पी है या नहीं।" और उन दोनों को कबूल करना पड़ा कि उन्होंने रात को ताड़ी पी थी ।
राजाजी सोचने लगे – 'मैं तुझे पैर की जूती समझता हूँ'– ऐसा कहने वाले लोग जूते को तुच्छ, निकम्मी वस्तु मानते हैं, लेकिन वही जूता न मालूम कितने लोगों को जीवन देता है और उसी से लाखों मनुष्य आजीविका कमाते हैं। फिर भगवान् आखिर है कौन? जो हमारा भरण-पोषण करे, हमारे जीवन को धारण करे, वही तो भगवान् है!