आज 11 सितंबर है, जो महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि भी है। आइए इस अवसर पर उनकी जीवन यात्रा और उनके अद्भुत साहित्य से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें जानते हैं।
महादेवी वर्मा, जिन्हें आधुनिक मीरा कहा जाता है, का जन्म 1907 में उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद में होली के दिन हुआ था। हिन्दी साहित्य के महान कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने उन्हें ‘हिन्दी साहित्य की सरस्वती’ कहा और अपने परिवार की बहन की तरह उन्हें अपना स्नेह दिया। महादेवी वर्मा को छायावाद की चौथी स्तंभ के रूप में भी माना जाता है। उनकी कविताओं में छायावादी प्रतीकों के साथ-साथ नए और मौलिक प्रतीकों का भी शानदार उपयोग मिलता है। रूपक, अन्योक्ति, समासोक्ति और उपमा उनके पसंदीदा अलंकार थे।
वे ‘चाँद’ नामक मासिक पत्रिका की संपादिका थीं और प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की थी। शुरुआत में महादेवी वर्मा छिपकर ही कविताएं लिखती थीं। समाज की कड़वी परंपराओं के कारण उनका विवाह मात्र 9 वर्ष की आयु में कर दिया गया था, लेकिन वे अपने पति के साथ नहीं रहीं क्योंकि वे मांसाहारी थे। परिवार ने उन्हें पुनर्विवाह की सलाह दी, लेकिन महादेवी वर्मा ने जीवन भर अकेले रहने का फैसला किया।
महादेवी वर्मा ने महिलाओं के सशक्तिकरण और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए भी खास प्रयास किए। उनका मानना था,
“समाज के पास वह जादू की छड़ी है, जिससे वह स्त्री को ‘सती’ कहकर उसके सौभाग्य को बाँध देता है।”
महादेवी वर्मा गौतम बुद्ध के विचारों और महात्मा गांधी के आचार से गहराई से प्रभावित थीं। उन्होंने समाज की भलाई और बच्चों की शिक्षा के लिए भी निरंतर काम किया।
उनकी एक प्रसिद्ध कविता से कुछ पंक्तियाँ:
“दीपकमय कर डाला जब जलकर पतंग ने जीवन,
सीखा बालक मेघों ने नभ के आँगन में रोदन।”
महादेवी वर्मा का यह कथन भी यादगार है:
“कवि क्या कहेगा, यदि उसकी इकाई सबकी इकाई बनकर अनेकता नहीं पा सकी,
और श्रोता क्या सुनेंगे, यदि उनकी विभिन्नताएँ कवि में एक नहीं हो सकीं।”