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साहित्य सभा में चीरहरण

Date : 04-Jul-2025


पिछले सप्ताह पटना में हुई घटना से एक फिर यह साबित हो गया है कि स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है। और यह भी कि, वो स्त्री चाहे गांव-देहात की अशिक्षित हो, कस्बे-कूचे की अल्पशिक्षित या फिर नगर-महानगर की उच्च-शिक्षित। इस प्रकरण ने हिन्दी साहित्य के चरित्र को भी उजागर कर दिया है जो कथनी में बड़े-बड़े आदर्श, नैतिकता, स्त्री-मुक्ति, उसकी गरिमा,अस्मिता और स्त्री सशक्तीकरण पर लंबे लंबे अकादमिक विमर्श रच कर उसको सात-सात सलाम ठोकता है लेकिन व्यवहार में अपने शीर्षासन को लाख-लाख जतन करने पर भी नहीं छुपा पाता। इक्कीसवीं सदी में पितृसत्तात्मकता और स्त्री सशक्तीकरण हमारे साहित्यिकों के बौद्धिक व्यायाम का प्रिय आसन रहा है। व्यवहार में इसके अर्थ-गाम्भीर्य को कितने पित्तरों या कितनी स्त्रियों को आत्मसात किया है, यह विचारणीय विषय है।

इसे पटना-प्रकरण से भी समझा जा सकता है। पटना कांड में जिस 'नई धारा ' संस्था के राइटर्स रेजिडेंसी का प्रसंग बताया जा रहा है उसकी भूमिका भी सवालों के घेरे में है। यह बात अब सार्वजानिक वितान में आ ही चुकी है कि हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि और लेखक ने रेजिडेंसी में एक युवा कवयित्री के साथ अभद्र,अश्लील, आपत्तिजनक हरकत की है। इसके बाद काफी बवाल मचा और अंत में कवयित्री के कड़े विरोध के बाद वरिष्ठ कवि को वहां से बेआबरू होकर रुखसत होना पड़ा। प्रकरण का क्लाइमेक्स यह है पटकथा की सर्वाइवर और उत्पीड़क के बीच चालीस बरस का फासला है। इस भदेस प्रकरण से हिन्दी साहित्य की दुनिया को भी उबाल दिया।

जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच ने कड़ी भर्त्सना की है तो राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ ने उसे संगठन से ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। इन सबके बावजूद महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि सामाजिक, नैतिक और सबसे बढ़कर विधिक रूप से अपराध की श्रेणी में आने वाले कृत्य के आरोपी के खिलाफ कानूनी कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे? पुलिस में मामला दर्ज क्यों नहीं करवाया जा रहा है ? स्त्री-मुक्ति के डंडों से पितृसत्तात्मकता के खिलाफ ढोल पीटने वाली स्वयं कवयित्री और उसकी समर्थक स्त्रीवादी कवि-लेखक समाज उसके माफीनामे लिखने या रेजिडेंसी से निकल जाने पर ही क्यों समझौता कर बैठे?

इसके बाद नई धारा संस्था ने जो वक्तव्य जारी किया है वो भी लीपापोती करने वाला ही है। उत्पीड़क के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई के संबंध में अब तक चुप्पी ही पसरी हुई है। इन चुप्पियों ने ही पितृसत्तात्मकता को स्त्री को डुबोने का हथियार थमाया है। गौरतलब तो यह है कि पटना की घटना की सर्वाइवर किसी गांव-देहात या कस्बे की घूंघट या पल्लू ओढ़े बैठी रहने वाली कोई परंपरागत महिला नहीं, शहर की आधुनिक उच्च शिक्षित, बिंदास जीवन शैली जीने वाली हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य की अध्येता है। इस अभद्र प्रकरण में इस चुप्पी का समर्थन करने वाले-वालियों के भी अपने तर्क हैं। सोशल कंडीशनिंग की तरह बड़े जतन से पनपाए गए कुछ प्रलोभन, कुछ भय भी स्त्री को कानूनी कदम उठाने से रोकते हैं।

दरअसल हिन्दी साहित्य और समाज की संरचना विक्टिम ब्लेमिंग नहीं, सत्ता के अनुरूप रंग बदलती है। बरसों से क्रांति की अलख जगाने वाले, व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने का फतवा जारी करने वाले क्रांतिकारी हिन्दी लेखक ऐसे किसी मसले पर एकजुट नहीं हो सकते। ऐसे समय में क्रांति की मशाल बुझ जाती है। यह कौन-सा भय है जो गलत को गलत, दुराचारी को दुराचारी कहने से इन क्रांतिकारियों को रोकता है l ऐसे क्रांतिकारी संगठन मंचों पर, सोशल मीडिया पर दम तो भरते हैं सत्ता से, सरकार से लड़ने का, व्यवस्था उखाड़ फेंकने का, लेकिन अपराधी को सरेआम बेनकाब करने का वक्त आते ही चुप्पी मारकर पीछे खिसक जाते हैं।

असली क्रांति तो यह है कि पीड़िता को मुखर होकर पुलिस में मामला दर्ज करवा कर कथित कवि को अदालत तक घसीटना चाहिए। विक्टिम ब्लेमिंग अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। इस प्रसंग ने समाज और साहित्यिक जगत को आत्म-आलोड़न और आत्म चिंतन का एक अवसर दिया है। ऐसे किसी भी मामले को अंजाम तक पहुंचाना भी एक सामाजिक, साहित्यिक जवाबदेही मानी जानी चाहिए। कोई भी मामला किसी सार्वजनिक वितान पर आकर व्यक्तिगत नहीं, सार्वजनिक हो जाता है उसके बाद यह मामला आपसी नहीं रह जाता। यह अवश्य है कि प्राथमिकता में व्यक्तिगत निजता की सुरक्षा का पूरा ध्यान हो।

हमारे बौद्धिक जगत की विसंगति यह भी कम नहीं कि हिन्दी के साहित्यिक घेरे में जाति और रंग भेद को तो बेहद गंभीर माना जाता है लेकिन स्त्री विद्वेष या यौन हिंसा, यौन आक्रमण को हल्के में ले लिया जाता है, उसे अपने अपने टोले के नफे-नुकसान,अपने राजनीतिक हितों,भविष्य की ‘संभावनाओं’ के मुताबिक तौला जाता है। उसे सहन ही नहीं किया जाता बल्कि ऐसा करने वालों को पुरस्कृत भी किया जाता है, सम्मानित किया जाता है, उसके ‘ऑरा’ उसके ‘पावर स्ट्रक्चर’ को मजबूत किया जाता है। और प्रकारांतर से ऐसा परिवेश जिसमें उत्पीड़न आसान और सुरक्षित हो जाता है। अगर इस उत्पीड़क व्यवस्था से मुक्ति पानी है तो यह माहौल अब बदलना होगा। हो गई पीर पर्वत-सी, अब पिघलनी चाहिए, अब आंचल को परचम बना ही लेना चाहिए। यह वक्त चुप्पी साधने का नहीं, मुखर हो कर दहाड़ने का वक्त है।

लेखक- हरीश शिवनानी (स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। )

 

 
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