साल 2023 में पारित नारी शक्ति वंदन अधिनियम (संविधान का 106वां संशोधन) देश के लोकतांत्रिक ढांचे में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का ऐतिहासिक प्रयास है। यह अधिनियम लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण सुनिश्चित करता है। इसकी सफलता महज संविधान में दर्ज होने से नहीं होगी। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी होगी। वर्ष 2029 के आम चुनाव में यदि यह आरक्षण प्रभावी होता है, तो यह न केवल भारत के लोकतंत्र के लिए निर्णायक मोड़ होगा, बल्कि महिलाओं के नेतृत्व की दिशा भी तय करेगा। इसके लिए राजनीतिक दलों को अभी से व्यापक और दूरदर्शी कदम उठाने होंगे।
भारतीय राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति हमेशा सीमित रही है। 2024 में चुनी गई 18वीं लोकसभा में सिर्फ 74 महिलाएं चुनकर आईं, जो कुल सीटों का मात्र 13.6% हैं। यह आंकड़ा 2019 की तुलना में भी घटा है और वैश्विक औसत 26.9% से काफी पीछे है। राज्य विधानसभाओं की स्थिति और भी चिंताजनक है, जहां औसतन केवल 9% ही महिलाएं विधायक हैं। यह न केवल लैंगिक असमानता को दर्शाता है बल्कि नीति-निर्धारण की उस प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है जिसमें आधी आबादी की हिस्सेदारी नगण्य है।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के निम्न स्तर के कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है समाज की पितृसत्तात्मक सोच। महिलाओं को पारिवारिक भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है, जिससे नेतृत्व के अवसर स्वाभाविक रूप से पुरुषों को मिलते हैं। 'सरपंच पति' जैसी प्रथाएं इस सोच को और भी स्पष्ट करती हैं।
राजनीतिक दलों के भीतर भी यह धारणा प्रचलित है कि महिलाएं चुनाव जीतने की दृष्टि से कमजोर प्रत्याशी होती हैं। लेकिन यह एक मिथक है, जिसे हाल के आंकड़े खारिज करते हैं। उदाहरण के लिए, 2024 लोकसभा चुनाव में महिलाएं केवल 9.6% उम्मीदवार थीं, लेकिन उनकी सफलता दर पुरुषों से अधिक थी – उन्होंने 13.6% सीटें जीतीं।
महिलाओं के सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी एक बड़ी बाधा है। देश में चुनाव लड़ना अत्यंत महंगा है और अधिकांश महिलाएं-खासकर ग्रामीण व पिछड़े वर्गों से-स्वतंत्र रूप से इतने संसाधन नहीं जुटा सकतीं। इसके अलावा, राजनीति का वातावरण भी महिलाओं के लिए असुरक्षित और शत्रुतापूर्ण रहता है। उन्हें ट्रोलिंग, चरित्र हनन, और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, जिससे उनका आत्मविश्वास डगमगाता है।
राजनीतिक दलों में महिलाओं के लिए मार्गदर्शन, प्रशिक्षित नेतृत्व विकास, और निर्णय लेने वाली इकाइयों में शामिल करने जैसी संस्थागत व्यवस्था भी अकसर अनुपस्थित रहती है। महिला मोर्चा बनाकर उन्हें पार्टी के मुख्य ढांचे से अलग कर दिया जाता है, जिससे वे सत्ता के निर्णायक केंद्रों से दूर रह जाती हैं।
2029 के आरक्षण को सार्थक बनाने के लिए राजनीतिक दलों को अब से ही तैयारी करनी होगी। सबसे पहला कदम है-स्वैच्छिक आंतरिक कोटा। टिकट वितरण में 33% महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता देना केवल आरक्षण की तैयारी नहीं, बल्कि समावेशी लोकतंत्र की दिशा में पहल होगी। ऑस्ट्रेलिया की लेबर पार्टी जैसी मिसालें बताती हैं कि आंतरिक कोटा राजनीति की संस्कृति को सकारात्मक रूप से बदल सकते हैं।
दूसरा आवश्यक कदम है-वित्तीय सहायता और संरचित प्रशिक्षण। राजनीतिक दलों को महिला उम्मीदवारों के लिए अलग चुनावी फंड बनाना चाहिए ताकि वे चुनावी खर्च का बोझ उठा सकें। कनाडा का जूडी लामार्श फंड इसका अच्छा उदाहरण है। साथ ही, पंचायतों और नगरपालिकाओं में सक्रिय महिला प्रतिनिधियों को विधानसभा और संसद स्तर के लिए तैयार करने का नेतृत्व कार्यक्रम भी चलाया जाना चाहिए।
महिलाओं को पार्टी की कोर कमेटियों, नीति निर्माण इकाइयों और प्रवक्ता मंडल में भी सक्रिय भूमिका देनी चाहिए। केवल महिला मोर्चा या सांस्कृतिक आयोजनों तक सीमित रखकर नेतृत्व नहीं उभरेगा। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग पार्टी ने हाल ही में कोर नेतृत्व में महिलाओं को शामिल किया है।अन्य दलों को भी यही दिशा लेनी चाहिए।
मेंटोरशिप भी एक सशक्त उपकरण हो सकता है। अनुभवी महिला नेता अगर नवोदित उम्मीदवारों को मार्गदर्शन दें, तो आत्मविश्वास, नीति की समझ, और रणनीतिक कौशल विकसित हो सकता है। इसके साथ ही, पार्टी के भीतर महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न या असम्मानजनक व्यवहार को रोकने के लिए सख्त आचार संहिता और त्वरित कार्रवाई की व्यवस्था जरूरी है।
राजनीतिक दलों के प्रयासों के साथ-साथ मीडिया और नागरिक समाज की भी भूमिका अहम है। मीडिया को महिला नेताओं की नीतिगत भूमिका, वैचारिक दृष्टिकोण और सामाजिक योगदान पर केंद्रित करना चाहिए-ना कि उनके पहनावे, निजी जीवन या विवादों पर। नागरिक संगठनों को भी प्रशिक्षण, जनजागरण और महिला नेतृत्व को प्रोत्साहित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए।
महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व केवल लैंगिक समानता का सवाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की गुणवत्ता का भी मापदंड है। यदि प्रतिनिधित्व का आधार केवल पुरुषों की पहुंच और दबदबे तक सीमित रहेगा, तो लोकतंत्र का स्वरूप अधूरा ही रहेगा। महिला आरक्षण केवल एक नीति नहीं, बल्कि नेतृत्व को समावेशी, संवेदनशील और संतुलित बनाने का औजार है।
2029 का चुनाव भारत के लिए एक ऐतिहासिक अवसर लेकर आएगा। अगर राजनीतिक दल अभी से महिला नेतृत्व को गढ़ने में निवेश नहीं करते-तो यह आरक्षण भी केवल सत्ता में वंशवाद और प्रतीकात्मकता का विस्तार बनकर रह जाएगा। अब वक्त है कि दल ''औरतों के लिए सीट छोड़ने'' की बात नहीं करें, बल्कि ''औरतों को नेतृत्व के लिए खड़ा करने'' की पहल करें। लोकतंत्र को मजबूत बनाने का यही असली रास्ता है।
लेखिका- प्रियंका सौरभ(स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)