देश-दुनिया के इतिहास में 23 नवंबर की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। मगर यह तारीख फिलीपींस के पत्रकारों के लिए ही नहीं, सारी दुनिया के मीडिया कर्मचारियों के लिए काला दिन के रूप में दर्ज है। साल 2009 में 23 नवंबर को ही फिलीपींस में 32 मीडियाकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। विश्व भर में एक साथ इतने पत्रकारों का मारा जाना इसे मामले में सबसे बड़ी घटना थी। इस घटना ने साबित किया कि इराक के बाद फिलीपींस पत्रकारों के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के मुताबिक 1987 से अब तक फिलीपींस में कम से कम 187 पत्रकार मारे गए हैं।
इस साल अक्टूबर के पहले हफ्ते में मनीला के बाहरी इलाके में रेडियो पत्रकार 62 वर्षीय पर्सिवल मबासा को गोलियों से भून दिया गया। मबासा फिलीपींस के पूर्व राष्ट्रपति रोड्रिगो डुटेर्टे के कटु आलोचक थे। इससे पहले सितंबर में रेडियो पत्रकार रे ब्लांको की मध्य फिलीपींस में चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी।
सारी दुनिया ‘विश्व टेलिविजन दिवस’ मना चुकी है। 26 साल पहले 21 नवंबर को संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस दिवस की घोषणा की थी। उस समय तक अमेरिका, यूरोप और जापान आदि देशों में लगभग हर घर में टेलीविजन पहुंच चुका था। भारत में इसे दूरदर्शन कहते हैं लेकिन सारी दुनिया में निकट-दर्शन का आज भी यही उत्तम साधन माना जाता है, हालांकि इंटरनेट का प्रचलन अब दूरदर्शन से भी ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है। यह दूरदर्शन है तो वह निकटदर्शन बन गया है। आप जेब से मोबाइल फोन निकालें और जो चाहें, सो देख लें।
दूरदर्शन या टीवी ने सबसे ज्यादा नुकसान अखबारों को पहुंचाया है। हमारे देश में अभी भी अखबार 5-7 रुपये में मिल जाता है लेकिन पड़ोसी देशों में उसकी कीमत 20-30 रुपेय तक होती है और अमेरिका व यूरोप में उसकी कीमत कई गुना ज्यादा होती है। हमारे अखबार ज्यादा से ज्यादा 20-25 पृष्ठ के होते हैं लेकिन ‘न्यूयाॅर्क टाइम्स’ जैसे अखबार इतवार के दिन 100-150 पेज के भी निकलते रहे हैं। उनके कागज, छपाई और लंबे-चौड़े कर्मचारियों के खर्चे भी किसी टीवी चैनल से ज्यादा ही होते हैं।
जब से टीवी चैनल लोकप्रिय हुए हैं, दुनिया के महत्वपूर्ण अखबारों की प्रसार-संख्या भी घटी है। उनकी विज्ञापन आय में टंगड़ी लगी है और बहुत से अखबार तो स्वर्ग भी सिधार गए हैं। लेकिन टीवी के दर्शकों की संख्या करोड़ों में है उनके पत्रकारों की तनख्वाह लाखों में है और उनके बोले हुए शब्द कितने ही हल्के हों लेकिन अखबारों के लिखे हुए शब्दों की टक्कर में वे काफी भारी पड़ जाते हैं। उनके कार्यक्रम तो सद्य:ज्ञानप्रदाता होते हैं लेकिन असली प्रश्न यह है कि ये टीवी चैनल आम लोगों को कितना जागरूक करते हैं और उन्हें आपस में कितना जोड़ते हैं? अखबारों के मुकाबले इस बुनियादी काम में वे बहुत पिछड़े हुए हैं। उनमें गली-मोहल्ले, गांव, शहर-प्रांत और जीवन के अनेक छोटे-मोटे दुखद या रोचक प्रसंगों का कोई जिक्र ही नहीं होता। उनमें अखबारों की तरह गंभीर संपादकीय और लेख भी नहीं होते।
पाठकों की प्रतिक्रिया भी नहीं होती। उनकी मजबूरी है। न तो उनके पास पर्याप्त समय होता है, न ही उनके सैकड़ों संवाददाता होते हैं और इन मामलों में कोई उत्तेजनात्मक तत्व भी नहीं होता, जो कि उनकी प्राणवायु है। इसीलिए गंभीर प्रवृत्ति के लोग टीवी देखने के लिए अपना कीमती समय नष्ट नहीं करते हैं लेकिन करोड़ों साधारण लोग टीवी के त्वरित प्रवाह में बहते रहते हैं। टीवी पर आजकल जो बहसें भी होती हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर, वे शाब्दिक दंगल के अलावा क्या होती हैं? उनमें निष्पक्ष बौद्धिक भाग लेना पसंद नहीं करते हैं। आजकल उनकी जगह विभिन्न पार्टियों के दंगलबाजों को भिड़ा दिया जाता है। इसीलिए टीवी चैनलों को अमेरिका में बुद्धू-बक्सा या मूरख बक्सा या इडियट बाॅक्स भी कह दिया जाता है लेकिन यह कथन भारतीय चैनलों पर पूरी तरह लागू नहीं होता है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
भारत ने अन्य देशों में हिंदू धर्म को स्थापित करने अथवा उनकी जमीन हड़पने के उद्देश्य से कभी भी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है।परंतु, वर्ष 1947 में, लगभग 1000 वर्ष के लम्बे संघर्ष में बाद, भारत द्वारा परतंत्रता की बेड़ियों को काटने में सफलताप्राप्त करने के पूर्व भारत की हिंदू सनातन संस्कृति पर बहुत आघात किए गए और अरब आक्रांताओं एवं अंग्रेजों द्वारा इसे समाप्त करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई थी। परंतु, भारतीय जनमानस की हिंदू सनातन संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा एवं महान भारतीय संस्कृति के संस्कारों ने मिलकर ऐसा कुछ होने नहीं दिया।
भारत में अनेक राज्य थे एवं अनेक राजा थे परंतु राष्ट्र फिर भी एक था। भारतीयों का हिंदू सनातन संस्कृति एवं एकात्मता में विश्वास ही इनकी विशेषता रही है। आध्यात्म ने हर भारतीय को एक किया हुआ है चाहे वह देश के किसी भी कोने में निवास करता हो और किसी भी राज्य में रहता हो। आध्यात्म आधारित दृष्टिकोण है इसलिए हम सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। आध्यात्मवाद ने ही भारत के नागरिकों की रचना की है और आपस में जोड़ा है। परंतु अभी हाल ही में भारत के अंदर एवं वैश्विक स्तर पर कुछ इस प्रकार की घटनाएं घटित हो रही हैं जिसके चलते एक बार पुनः यह आभास हो रहा है कि कहीं यह घटनाएं हिंदू सनातन संस्कृति एवं सनातन चिंतन पर विपरीत प्रभाव तो नहीं डाल रही हैं।
भारत हिंदू सनातन संस्कृति को मानने वाले लोगों का देश है और इसे राम और कृष्ण का देश भी माना जाता है, इसलिए यहां हिंदू परिवारों में बचपन से ही “वसुधैव कुटुम्बमक”, “सर्वे भवन्तु सुखिन:” एवं “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” की भावना जागृत की जाती है जिसके चलते भारत में जीव, जंतुओं एवं प्रकृति को भी देवता का दर्जा दिया जाता है।दरअसल हिंदू सनातन संस्कृति एकात्म दर्शन पर आधारित सर्वसमावेशी है। इसमें ईश्वरीय भाव जाहिर होता है। जो मेरे अंदर है वही आपके अंदर भी है। हिंदू सनातन संस्कृति, अन्य संस्कृतियों को भी अपने आप में आत्मसात करने की, क्षमता रखती है।
भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग आपस में एक दूसरे के धर्म का आदर करते हुए रहते आए हैं परंतु हाल ही के समय में ऐसा ध्यान में आता है कि भारत में जनसंख्या असंतुलन पैदा कर भारत के हिंदू सनातन चिंतन पर आघात किए जाने का प्रयास हो रहा है। आज भारत में प्रजनन दर हिंदुओं के लिए 1.94 है, सिखों के लिए 1.61 है,बौद्धों के लिए 1.39 है और जैनियों के लिए 1.60 है। वहीं मुसलमानों के लिए 2.36 है तो ईसाईयों के लिए 1.88 है। दूसरे, भारत के पड़ोसी देशों के माध्यम से रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में बहुत बड़ी मात्रा में प्रवेश कराया जा रहा है। तीसरे, हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान अथवा ईसाई बनाया जा रहा है।
एक अनुमान के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 8 लाख हिंदुओं का धर्मांतरण कर मुसलमान बनाया जा रहा है। भारत में लव जिहाद भी इसी दृष्टि से फलता फूलता दिखाई दे रहा है। विशेष रूप से वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से तो भारत में हिंदुओं की स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही है। आज भारत के 9 प्रांतो में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं एवं इस्लामी/ईसाई मतावलंबी बहुमत में आ गए हैं। जैसे, नागालैंड में 8%, मिजोरम में 2.7%, मेघालय में 11.5%, अरुणाचल प्रदेश में 29%, मणिपुर में 41.4%, पंजाब में 39%, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में 32%, लक्षद्वीप में 2%, लदाख में 2% आबादी हिंदुओं की रह गई है।
कुछ राज्यों में तो हिंदुओं की आबादी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। जिन जिन क्षेत्रों, जिलों अथवा प्रदेशों में इस्लाम को मानने वाले अनुयायियों की संख्या बढ़ी है उन उन क्षेत्रों, जिलों एवं प्रदेशों में हिंदुओं द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जुलूसों पर पत्थरों से आक्रमण किया जाता है एवं हिंदुओं को हत्तोत्साहित किया जाता है ताकि वे अपने धार्मिक आयोजनों को नहीं कर पाएं। लगभग इन्हीं कारणों के चलते वर्ष 1975 में इंडोनेशिया मेंईसाई बहुल ईस्ट तिमोर इलाका एक अलग देश बन गया, वर्ष 2008 में सर्बिया में मुस्लिम बहुल कोसावा इलाका एक अलग देश बन गया तथा वर्ष 2011 में सूडान से ईसाई बहुल इलाका दक्षिण सूडान नामक एक अलग देश बन गया।
भारत में हिंदू सनातन संस्कृति का गौरवशाली इतिहास विश्व में सबसे पुराना माना जाता है। यदि भारत कीइतनी प्राचीन एवं महान हिंदू सनातन संस्कृति के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि सनातन संस्कृति एवं सनातन वैदिक ज्ञान वैश्विक आधुनिक विज्ञान का आधार रहा है। इसे कई उदाहरणों के माध्यम से, हिन्दू मान्यताओं एवं धार्मिक ग्रंथों का हवाला देते हुए, समय समय पर सिद्ध किया जा चुका है।इसी भारतीय सनातन चिंतन के आधार पर यह कहा जाता है कि भारत एक राष्ट्र के रूप में सनातन है, पुरातन है और हजारों/लाखों वर्षों से चल रहा है। परंतु भारत के भी हाल ही के इतिहास पर यदि नजर डालें तो आभास होता है कि जब जब देश के कुछ इलाकों में हिंदुओं की संख्या कम हुई है तब तब या तो देश का विभाजन हुआ है अथवा उन इलाकों में शेष बचे हिंदुओं को या तो मार दिया गया है या हिंदुओं को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया गया है अथवा उन इलाकों से हिंदुओं को भगा दिया गया है। जैसे वर्ष 1947 में पाकिस्तान, वर्ष 1971 में बंगला देश, वर्ष 1990 में जम्मू एवं काश्मीर में इस प्रकार की दुर्घटनाएं हिंदुओं के साथ घट चुकी हैं। आज केरल, बंगाल, उत्तर प्रदेश के कुछ जिले, दिल्ली के कुछ इलाके इसी आग में जल रहे हैं। जबकि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि भी कभी भारत के ही भाग रहे हैं।
अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, आदि देशों में हाल ही के समय में हिंदुओं पर हिंसा बढ़ी है। आज पूरी दुनिया में भारत व खासकर हिंदू समाज के खिलाफ झूठा विमर्श स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। हिंदुओं को अल्पसंख्यकों व दलितों पर उत्पीड़न करने वाली कौम के रूप में दिखाने का प्रयास हो रहा है। जबकि आज भारत की राष्ट्रपति एक वनवासी महिला है, पंजाब में मुख्यमंत्री एक सिक्ख है एवं नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में मुख्यमंत्री ईसाई हैं।
वर्ष 1947 में भारत द्वारा राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित करने के चलते भी सनातन चिंतन पर आघात होता रहा है। धर्मनिरपेक्षता की नीति के अंतर्गत विशेष रूप से मुस्लिम मतावलंबियों को तो बहुत सुविधाएं प्रदान की जाती रही हैं परंतु हिंदू धर्मावलम्बियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। जैसे, मुस्लिम वक्फ बोर्ड जमीनों पर अधिकार कर कहीं भी मजारें एवं मस्जिदें बना लेते हैं वहीं हिंदूओं के मंदिरों को राज्य सरकारों के प्रशासन के अंतर्गत चलना होता है एवं इन मंदिरों को चड़ावे एवं दान के माध्यम से होने वाली आय पर भी इन सरकारों का नियंत्रण रहता है। आज देश में वक्फ बोर्ड की जमीनें, केंद्र सरकार के रेल्वे विभाग को छोड़कर, सम्भवतः सबसे अधिक हो गई हैं।
देश में, भारतीय सिने जगत के माध्यम से एवं अन्यथा भी, माहौल ही कुछ इस प्रकार का बनाया गया ताकि हिंदू धर्म की मान्यताओं को दकियानूसी एवं कालकल्पित कहानियां सिद्ध किया जा सके। अंग्रेजों एवं आक्रांताओं की इन कुत्सित चालों में हिंदू धर्म के कुछ अनुयायी भी फंस गए एवं अपने बच्चों को पाश्चात्य मान्यताओं की ओर मोड़ दिया एवं इस प्रकार देश में पाश्चात्य मान्यताओं को बढ़ावा देने वाला एक वर्ग पैदा हो गया है जो भारतीय परम्पराओं को छोड़कर भौतिकवादी जीवन जीने में ही अपनी भलाई समझता है।
आज भी आतंकवादी संगठन एवं विदेशी ताकतें जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं वे इसी परिकल्पना पर अपना कार्य प्रारम्भ करते हैं एवं समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में लड़ाने का प्रयास करते नजर आते हैं। हाल ही के समय में न केवल भारत बल्कि विश्व के कई देशों यथा, स्वीडन, ब्रिटेन, फ्रांस, नार्वे, भारत, अमेरिका आदि में आतंकवाद की समस्या ने सीधे तौर पर इन देशों के आम नागरिकों को एवं कुछ हद्द तक इन देशों की अर्थव्यवस्था को विपरीत रूप से प्रभावित किया है। आतंकवाद के पीछे धार्मिक कट्टरता को मुख्य कारण बताया जा रहा है और आश्चर्य होता है कि पूरे विश्व में ही आतंकवाद फैलाने में एक मजहब विशेष के लोगों का अधिकतम योगदान नजर आ रहा है। इसके कारण खोजने पर ध्यान जाता है कि इस मजहब विशेष की एक किताब में ही यह बताया गया है कि इन्हें इस्लाम के अलावा अन्य कोई धर्म बिलकुल स्वीकार नहीं है और इस्लाम को नहीं मानने वाले लोगों को इस पृथ्वी पर रहने का कोई अधिकार नहीं है।ब्रिटेन की लगभग 7 करोड़ की आबादी में 4 प्रतिशत मुस्लिम हैं लेकिन ब्रिटेन की जेलों में कैदियों की संख्या में मुस्लिम 18 प्रतिशत हैं। वहीं दूसरी ओर इंग्लैंड एवं वेल्स की कुल आबादी में दो प्रतिशत हिंदू हैं, किंतु कोई भी हिंदू जघन्य अपराध में आरोप में जेल में नहीं पाया जाता है।
अब तो विश्व के कई विकसित देशों को भी यह आभास होने लगा है कि भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति इस धरा पर सबसे पुरानी संस्कृतियों में एक है और भारतीय वेदों, पुराणों एवं पुरातन ग्रंथों में लिखी गई बातें कई मायनों में सही पाई जा रही हैं। इन पर विश्व के कई बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शोध किए जाने के बाद ही यह तथ्य सामने आ रहे हैं।
हिन्दुस्थान समाचार/ डॉ. मयंक चतुर्वेदी/मुकुंद
देश-दुनिया के इतिहास में 22 नवंबर की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। इस तारीख का संबंध ऐसी महिला से है जो है तो ब्रितानी पर उसका दिल भारत के लिए धड़कता था। उसका नाम मेडेलीन स्लेड है। महात्मा गांधी की अनुयायी मेडेलीन स्लेड को दुनिया मीरा बेन के नाम से जानती है।
ब्रिटिश सैन्य अफसर सर एडमंड स्लेड के घर पर इंग्लैंड में मेडेलीन स्लेड का जन्म 22 नवंबर, 1892 को हुआ था। एडमंड ब्रितानी राज के समय बंबई (मुंबई) में नौसेना के ईस्ट इंडीज स्क्वाड्रन में कमांडर इन चीफ रहे हैं। स्लेड प्रकृति से प्रेम करती थीं तथा अपने बचपन से ही सादा जीवन से उन्हें प्यार था। संगीत में उनकी गहरी रुचि थी तथा बीथोवेन का संगीत उन्हें बहुत भाता था। मेडेलीन स्लेड बचपन में एकाकी स्वभाव की थी, स्कूल जाना तो हरगिज पसंद नहीं था लेकिन अलग-अलग भाषा सीखने में रुचि थी। उन्होंने फ्रेंच, जर्मन और हिंदी समेत अन्य भाषाएं सीखीं।
वे बचपन में अपना ज्यादातर समय घर के फार्म पर बितातीं और घुड़सवारी और शिकार पर जाया करती थीं। इंग्लैंड से वे फ्रेंच सीखने पेरिस पहुंच जाती हैं। यहीं उनकी मुलाकात रोम्यां रोलां से होती है जो मेडेलीन में गहरी आध्यात्मिक भूख देखते हुए गांधी के बारे में पढ़ने को कहती हैं। वह पेरिस से वापस आकर गांधी पर लिखे हर साहित्य को पढ़ती हैं। इसके बाद वो सादा जीवन जीना शुरू कर देती है और अपने कमरे के सारे फर्नीचर निकाल कर फर्श पर सोने लगती हैं।
गांधी से मिलने के लिए मेडेलीन 25 अक्टूबर, 1925 को पी एंड ओ जहाज पर सवार होकर 06 नवंबर 1925 को भारत पहुंचती हैं। गांधी उनके स्वागत के लिए वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई और स्वामी आनंद को भेजते हैं। 07 नवंबर 1925 को मेडेलीन महात्मा गांधी से मिलती हैं। अपनी आत्मकथा द स्पिरिट्स पिलग्रिमेज में महात्मा गांधी से अपनी पहली मुलाकात के बारे में वे लिखती हैं - जब मैं गांधी जी से पहली बार मिली तो एक ज्योति के अतिरिक्त मुझे और किसी वस्तु की चेतना न थी। गांधी जी ने मुझसे कहा- तुम मेरी बेटी बनकर रहोगी।
मीरा बेन ने मानव विकास, गांधी के सिद्धांतों की उन्नति और स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। ऐसा करते देख ही गांधी ने उन्हें मीरा बेन नाम दिया। बुनियादी शिक्षा, अस्पृश्यता निवारण जैसे कार्यों में गांधी के साथ मीरा की अहम भूमिका रही है। उन्होंने गांधी के खादी के सिद्धांतों तथा सत्याग्रह आंदोलन को उन्नतशील बनाने के लिए देश के कई हिस्सों की यात्रा की। उन्होंने यंग इंडिया तथा हरिजन पत्रिका में अपने हजारों लेख लिखकर योगदान दिया। वर्धा के पास सेवा ग्राम आश्रम स्थापित करने में मीरा बेन में अहम भूमिका निभाई। साथ ही उत्तर प्रदेश के मुलदास पुर में किसान आश्रम की स्थापना की।
आजादी की लड़ाई में मीरा बेन अंत तक गांधी की सहयोगी रहीं। 1932 के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में वह महात्मा गांधी के साथ थीं। 09 अगस्त 1942 को गांधी के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर किया गया था और उन्हें आगा खां हिरासत केंद्र में मई, 1944 तक रखा गया। उन्होंने उत्तर प्रदेश में अधिकाधिक अनाज उत्पादन अभियान में अहम भूमिका निभाने के अलावा 1947 में ऋषिकेश के नजदीक आश्रम पशुलोक की शुरुआत की। इसका नाम बाद में बापू ग्राम रखा गया। 28 जनवरी, 1959 को भारत छोड़ने से पहले वे कुछ दिन राष्ट्रपति भवन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ रहीं और फिर इंग्लैंड होती हुई वियना चली गईं। जंगलों के निकट, बिलकुल शांत-एकांत, प्राकृतिक सौंदर्य से भरी वह सुंदर सी जगह आखिरी दिनों तक उनका ठिकाना बनी रही। 1981 में भारत सरकार ने ‘पद्म विभूषण’ से उन्हें अलंकृत किया।
20 जुलाई, 1982 को वे उसी ‘अनंत लौ’ में विलीन हो गईं, जिससे छिटक कर उन्होंने बापू की राह धरी और आजादी की, सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी और जीवन जीने की एक कला विकसित की | आस्ट्रिया में मृतक के दाह संस्कार का रिवाज नहीं है पर मीरा बेन की इच्छा के मुताबिक उनके अनन्य सेवक रामेश्वर दत्त ने उनकी चिता को मुखाग्नि दी। फिर उनकी भस्मी भारत लाई गई और उसी ऋषिकेश और उसी हिमालय में प्रवाहित कर दी गई, जिसमें उन्होंने खुद को पाया और खोया था।
महत्वपूर्ण घटनाचक्र
1963: डलास में अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी की हत्या।
1968ः मद्रास का नाम बदलकर तमिलनाडु करने के प्रस्ताव को लोकसभा से स्वीकृति।
1975: जुआन कार्लोस स्पेन के राजा बने।
1971: भारत और पाकिस्तान के बीच हवाई संघर्ष शुरू।
1989: मंगल, शुक्र, शनि, यूरेनस, नेप्च्यून और चंद्रमा एक ही सीध में आए।
1990: ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने की त्यागपत्र देने की घोषणा।
1997: भारत की डायना हेडेन विश्व सुंदरी बनी।
1998: बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन ने ढाका की अदालत में आत्मसमर्पण किया।
2002ः मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के आयोजन के विरोध में नाइजीरिया में दंगे। सैंकड़ों लोग मारे गए।
2006ः भारत और वैश्विक कंसोर्टियन के छह अन्य देशों ने सूर्य की तरह ऊर्जा पैदा करने वाले प्राथमिक
फ्यूजन रिएक्टर की स्थापना के लिए पेरिस में ऐतिहासिक समझौता किया।
2007ः ब्रिटेन में अवैध प्रवासी समस्या पर नियंत्रण के लिए कड़े नियमों की घोषणा।
2008ः भारतीय क्रिकेट टीम के तत्कालीन कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी ने पद छोड़ने की धमकी दी।
जन्म
1808: मशहूर ट्रेवल कंपनी थॉमस कुक एंड संस के संस्थापक थॉमस कुक।
1830: रानी लक्ष्मीबाई की सेना की मुख्य सदस्य झलकारी बाई।
1864: भारत की प्रथम महिला चिकित्सक रुक्माबाई।
1892ः ब्रिटिश सैन्य अधिकारी सर एडमंड स्लेड की पुत्री मीरा बेन (वास्तविक नाम मेडेलीन स्लेड)। मीरा बेन ने गांधी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर खादी का प्रचार किया।
1916ः भारतीय स्वतंत्रता सेनानी शांति घोष।
1939ः उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव।
1986: ब्लेड रनर ऑस्कर पिस्टोरियस।
निधन
1881ः भारत के स्वतंत्रता सेनानी अहमदुल्लाह। उनका वास्तविक नाम अहमद बख्श था।
1967ः प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ और कट्टर सिख नेता तारा सिंह।
2016ः उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव।
2016ः हिन्दी और भोजपुरी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार विवेकी राय।
हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद
हर साल 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 17 दिसंबर, 1996 को एक प्रस्ताव पारित कर प्रतिवर्ष 21 नवंबर विश्व टेलीविजन दिवस मनाने का निर्णय लिया था। टेलीविजन का आविष्कार वर्ष 1925 में स्कॉटिश इंजीनियर तथा अन्वेषक जॉन लॉगी बेयर्ड ने किया था। वे दुनिया के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने 26 जनवरी, 1926 को ब्रिटेन के लंदन शहर में स्थित रॉयल इंस्टीट्यूशन से लंदन के पश्चिम में स्थित ‘सोहो’ नामक स्थान पर टेलीविजन संदेशों का सफल प्रसारण करके दिखाया था। उनके द्वारा बनाए गए मैकेनिकल टेलीविजन के बाद 1927 में फिलो फॉर्न्सवर्थ द्वारा इलैक्ट्रॉनिक टेलीविजन का आविष्कार किया गया, जिसका 3 सितम्बर 1928 को उनके द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया। कुछ असफलताओं के बाद सदी के महान आविष्कार टेलीविजन को पूरी तरह इलेक्ट्रॉनिक रूप देने में सफलता मिली वर्ष 1934 में। बिजली से चलने वाले उस अद्भुत इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की ही बदौलत आगामी वर्षों में कई आधुनिक टीवी स्टेशन खोले गए। इसके बाद लोग बड़ी संख्या में टीवी खरीदने लगे और टेलीविजन धीरे-धीरे मनोरंजन एवं समाचार का महत्वपूर्ण माध्यम बनता गया।
इलेक्ट्रॉनिक टेलीविजन ने अपने आविष्कार के करीब 32 साल बाद भारत में पहला कदम रखा। भारत में टीवी का पहला प्रसारण प्रायोगिक तौर पर दिल्ली में दूरदर्शन केन्द्र की स्थापना के साथ 15 सितंबर 1959 को शुरू किया गया। उस समय टीवी पर सप्ताह में केवल तीन दिन ही मात्र तीस-तीस मिनट के कार्यक्रम आते थे लेकिन इतने कम समय के बेहद सीमित कार्यक्रमों के बावजूद टीवी के प्रति लोगों का लगाव बढ़ता गया और यह बहुत जल्द लोगों की आदत का अहम हिस्सा बन गया। दूरदर्शन का व्यापक प्रसार हुआ वर्ष 1982 में दिल्ली में हुए एशियाई खेलों के आयोजन के प्रसारण के बाद। दूरदर्शन द्वारा अपना दूसरा चैनल 26 जनवरी 1993 को शुरू किया गया और उसी के बाद दूरदर्शन का पहला चैनल डीडी-1 और दूसरा नया चैनल डीडी-2 के नाम से लोकप्रिय हो गया, जिसे बाद में ‘डीडी मैट्रो’ नाम दिया गया। भले ही टीवी के आविष्कार के इन दशकों में इसका स्वरूप और तकनीक पूरी तरह बदल चुकी है लेकिन इसके कार्य करने का मूलभूत सिद्धांत अभी भी पहले जैसा ही है।
‘ब्लैक एंड व्हाइट’ बुद्धू बक्सा अपने सहज प्रस्तुतिकरण के दौर से गुजरते हुए कब आधुनिकता के साथ कदमताल करते हुए सूचना क्रांति का सबसे बड़ा हथियार और हर घर की अहम जरूरत बन गया, पता ही नहीं चला। यह दुनिया जहान की खबरें देने और राजनीतिक गतिविधियों की सूचनाएं उपलब्ध कराने के अलावा मनोरंजन, शिक्षा तथा समाज से जुड़ी महत्वपूर्ण सूचनाओं को उपलब्ध कराने, प्रमुख आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए समूचे विश्व के ज्ञान में वृद्धि करने में मदद करने वाला एक सशक्त जनसंचार माध्यम है। यह संस्कृतियों और रीति-रिवाजों के आदान-प्रदान के रूप में मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन है। मानव जीवन में टीवी की बढ़ती भूमिका तथा इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करने के उद्देश्य से ही 21 नवंबर को ‘विश्व टेलीविजन दिवस’ मनाया जाता है।
संचार और वैश्वीकरण में टेलीविजन की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘विश्व टेलीविजन दिवस’ मनाने की जरूरत महसूस की गई और आम जिंदगी में टीवी के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए आखिरकार टीवी के आविष्कार के करीब सात दशक बाद वर्ष 1996 में ‘विश्व टेलीविजन दिवस’ मनाने की घोषणा की गई। दरअसल टीवी के आविष्कार को सूचना के क्षेत्र में एक ऐसी क्रांति का आविष्कार माना गया है, जिसके जरिये समस्त दुनिया हमारे करीब रह सकती है और हम अब घर बैठे ही दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली घटनाओं को लाइव देख सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहली बार 21 तथा 22 नवंबर 1996 को विश्व टेलीविजन मंच का आयोजन करते हुए टीवी के महत्व पर चर्चा करने के लिए मीडिया को प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया गया था। उस दौरान विश्व को परिवर्तित करने में टीवी के योगदान और टीवी के विश्व पर पड़ने वाले प्रभावों के संदर्भ में व्यापक चर्चा की गई थी। हालांकि किसी भी वस्तु के अच्छे और बुरे दो अलग-अलग पहलू भी हो सकते हैं। कुछ ऐसा ही सूचना एवं संचार क्रांति के अहम माध्यम टीवी के मामले में भी है। एक ओर जहां यह मनोरंजन और ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत बन चुका है और नवीनतम सूचनाएं प्रदान करते हुए समाज पर सकारात्मक प्रभाव डालता है, वहीं इसके नकारात्मक प्रभाव भी सामने आते रहे हैं। टेलीविजन की ही वजह से ज्ञान, विज्ञान, मनोरंजन, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि तमाम क्षेत्रों में बच्चों से लेकर बड़ों तक की सभी जिज्ञासाएं शांत होती हैं। अगर नकारात्मक पहलुओं की बात करें तो टीवी के बढ़ते प्रचलन के साथ-साथ इस पर प्रदर्शित होते अश्लील, हिंसात्मक, अंधविश्वासों का बीजारोपण करने तथा भय पैदा करने वाले कार्यक्रमों के कारण हमारी संस्कृति, आस्था और नैतिक मूल्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। टीवी पर विभिन्न कार्यक्रमों में लगातार हत्या और बलात्कार जैसे दृश्य दिखाने से बच्चों का मानसिक विकास प्रभावित होता है। मौजूदा समय में टीवी मीडिया की सबसे प्रमुख ताकत के रूप में उभर रहा है और मीडिया का हमारे जीवन में इस कदर हस्तक्षेप बढ़ गया है कि टीवी के वास्तविक महत्व के बारे में अब लोगों को पर्याप्त जानकारी ही नहीं मिल पाती।
देश में जहां दूरदर्शन की शुरुआत के बाद दशकों तक दूरदर्शन के ही चैनल प्रसारित होते रहे, वहीं 1990 के दशक में निजी चैनल शुरू होने की इजाजत मिलने के साथ एक नई सूचना क्रांति का आगाज हुआ। इन तीन दशकों में निजी चैनलों को लगातार मिलते लाइसेंस के चलते अब देशभर में टीवी पर करीब एक हजार चैनल प्रसारित होते हैं। इससे दूरदर्शन जैसे माध्यम कमजोर हो गए हैं और अब हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां सूचना व संचार माध्यमों ने हमें इस कदर अपना गुलाम बना लिया है कि इनके अभाव में जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते।
योगेश कुमार गोयल
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
काशी में जो परसों हुआ वह सनातन संस्कृति के इतिहास का महानतम पृष्ठ है। प्राचीन सनातन शास्त्रों में वर्णित ऋषि अगस्त्य की यात्रा से लेकर भगवान आदि शंकराचार्य की समूची परंपरा बहुत सलीके से नई पीढ़ी के सामने प्रस्तुत हो रही है। भारत के वर्तमान राजनीतिक सत्ता के स्वामी की राजनीतिक पृष्ठभूमि से बिल्कुल अलग नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के रूप में हम भारत के उस सनातन राज ऋषि को साक्षात देख रहे हैं जो एक-एक कर सनातन प्रतीकों की पुनर्स्थापना कर विश्व की इससे परिचित कराने में पूरी शक्ति से जुटा हुआ है। यह भारत के लिए स्वर्णिम भविष्य के आधार के निर्माण की दिशा में एक ऐसा पाठ है जिसको वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी बड़े सलीके से पढ़ भी रही है और स्वीकार भी कर रही है। यह संयोग ही अद्भुत है।
यह लिखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह केवल एक आयोजन अथवा घटना भर नहीं है। इसके पीछे निश्चित रूप से दैव योग भी है जो 2014 से विश्व की बता रहा है कि सनातन संस्कृति में समय-समय पर ऐसे ऋषि योद्धा जन्म लेते हैं और सनातन की यात्रा को और भी प्रभावी बनाकर विश्व के समक्ष रखते हैं। यही यात्रा भारत को सदैव सांस्कृति रूप से अखंड और अक्षुण्य रखती है। आज का भारत उसी दिशा में यात्राशील है। इस यात्रा के महानायक या कहें कि इस संघर्ष के महायोद्धा निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी ही हैं। इसमे कोई एक दो स्थितियों का घटनाक्रम भर नहीं है, इसमे असंख्य दीपमालिका की तरह सनातन के आधार बिन्दुओं की बहुत बड़ी माला है जो अभी भी निर्माण की अवस्था में ही है लेकिन विश्व अभी से इसके आकार, प्रकार और स्वरूप को देख कर आश्चर्यचकित है।
श्री अयोध्या धाम में भव्य श्रीराम मंदिर, श्रीकाशी विश्वनाथ कॉरिडोर, श्रीसोमनाथ, श्री महाकाल उज्जैन, श्री केदार, श्री केदार गुफा, श्रीरामानुजाचार्य की प्रतिमा, श्री शंकराचार्य की प्रतिमा, श्री अम्बा देवी कॉरिडोर, बांग्लादेश में श्री शक्ति पीठ, अरब में भव्य मंदिर , प्रयागराज का तीर्थ क्षेत्र और संगम कुम्भ से लेकर सरदार पटेल और नेता जी सुभाष तक की प्रतिमाओं के अलावा ऐसे अनेक प्रकल्प और प्रवाहकल्प हैं जिनको लेकर, देखकर और पाकर सनातन की ध्वजा अत्यंत ऊर्ध्वगामी लहरों के साथ विश्व को आलोकित और चमत्कृत कर रही है।
इसीलिए इस आलेख में पहले ही लिख दिया कि एक राजनीतिक सत्ता के शिखर स्वामी के रूप में मोदी से इतर उनके इस स्वरूप से हमें ज्यादा गर्वानुभूति हो रही है क्योंकि यह कार्य रजानीतिक नहीं है। नरेन्द्र मोदी के भीतर अवश्य एक ऐसा महान ऋषि है जिसे हम इस काल मे पूरी सक्रियता और तन्मयता से क्रिया भाव मे देख पा रहे हैं। काशी में तमिल संगमम तो मुझे लगता है एक शुरुआत जैसा है। देश मे भारत जोड़ो के नाम से आजकल एक और यात्रा चल रही है जिसको लोग देख रहे हैं। उस यात्रा से भारत कितना जुड़ पाया है यह तो समय बताएगा लेकिन मोदी की महान सनातन योजनाओं की कड़ी के रूप में काशी तमिल संगमम से जो यात्रा आरंभ हुई है वह निश्चय ही बहुत प्रभावकारी होगी , यह सुनिश्चित है। यह मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं और ऐसा मानता भी हूं कि नरेन्द्र मोदी को सामान्य रूप में डीकोड करना बहुत कठिन है क्योंकि उनकी कोई योजना अचानक नही होती । हर योजना के पीछे समग्र शोध, उसके परिणाम और प्रभाव निहित होते हैं। उनके कार्ययोजना में संबंधित संदर्भ के अति पारंगत और प्रभावी अवयव भी निर्दिष्ट रूप से सम्पूर्ण समर्पण के साथ क्रियाशील होते हैं। इसका ताजा उदाहरण काशी तमिल संगमम से ही लेना उचित लगता है।
सौराष्ट्र विश्वविद्यालय में विधि के एक आचार्य हैं जो भारतीय शिक्षक शिक्षण संस्थान गुजरात के संस्थापक कुलपति और सौराष्ट्र विश्विद्यालय के भी कुलपति रह चुके हैं। राज्य सुरक्षा आयोग गुजरात के सदस्य भी हैं। नाम है प्रो. कमलेश जोशीपुरा। परिचय से विदित हो रहा है कि वर्तमान भारत के महान शिक्षाविदों में से एक हैं। यह मेरे संज्ञान में है कि नरेन्द्र मोदी की उत्तर भारत से दक्षिण भारत को जोड़ने के इस सांस्कृतिक, शैक्षिक अभियान में प्रो. जोशीपुरा पूरे प्राण प्रण से लगे हैं। इस अभियान में निश्चित रूप से और भी अनेक लोग होंगे । प्रो. जोशीपुरा जी की पत्नी डॉ. भावना जोशीपुरा राजकोट की प्रथम महिला मेयर रह चुकी हैं। ऐसी ही समर्पित टीम की शक्ति से मोदी के वे सपने साकार हो रहे हैं जो कल्पना से आकार देने के लिए प्रयोग के रूप में शुरू किए गए हैं। इसीलिए नरेन्द्र मोदी ऐसे किसी आयोजन को संबोधित करते हैं तो उनके संबोधन के एक-एक शब्द लक्ष्य को इंगित करते हैं। उनके काशी के ही परसों के संबोधन को देखिए, कैसे उसमें नए भारत और सनातन संस्कृति गूढ़ रहस्य उद्घाटित हो रहे हैं। वह बहुत स्पष्ट संदेश देते हैं- गंगा यमुना के संगम जितना ही पवित्र है काशी और तमिलनाडु का संगम। तमिल दिलों मे काशी के लिए अविनाशी प्रेम न अतीत में कभी मिटा न भविष्य में कभी मिटेगा। दक्षिण के विद्वानों के भारतीय दर्शन को समझे बिना हम भारत को नहीं जान सकते। तमिल भाषा और विरासत को बचाना देश के 130 करोड़ देशवासियों का कर्तव्य है। गंगा-यमुना जैसी अनंत संभावनाओं और सामर्थ्य को समेटे हुए है काशी तमिल संगमम।
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री हर हर महादेव, वणक्कम काशी, वणक्कम तमिलनाडु कहकर सभी अतिथियों का स्वागत करते हैं। फिर संबोधित करते हैं- हमारे देश में संगमों की बड़ी महिमा है। नदियों-धाराओं के संगम से लेकर विचारों और विचाधाराओं, ज्ञान-विज्ञान और समाज व संस्कृतियों के हर संगम को हमने सेलिब्रेट किया है। ये सेलीब्रेशन वास्तव में भारत की विविधताओं और विशेषताओं का है। आज हमारे सामने एक ओर पूरे भारत को अपने आप में समेटे हुए हमारी सांस्कृतिक राजधानी काशी है तो दूसरी ओर भारत की प्राचीनता और गौरव का केंद्र हमारा तमिलनाडु और तमिल संस्कृति है। ये संगम भी गंगा-यमुना की तरह ही पवित्र है। ये गंगा-यमुना जैसी अनंत संभावनाओं और सामर्थ्य को अपने में समेटे हुए है। संस्कृति और सभ्यता के टाइमलेस सेंटर हैं काशी और तमिलनाडु। हमारे यहां ऋषियों ने कहा है एको हं बहुस्याम, यानी एक ही चेतना अलग अलग रूपों में प्रकट होती है। काशी और तमिलनाडु की फिलॉसफी को हम इसी रूप में देख सकते हैं। दोनों क्षेत्र संस्कृत और तमिल जैसी विश्व की सबसे प्राचीन भाषाओं के केंद्र हैं। काशी में बाबा विश्वनाथ हैं तो तमिलनाडु में रामेश्वर का आशीर्वाद है। काशी और तमिलनाडु दोनों शिवमय और शक्तिमय है। एक स्वयं में काशी है तो तमिलनाडु में दक्षिण काशी है। काशी और कांची दोनों का सप्तपुरियों में महत्वपूर्ण स्थान हैं। दोनों संगीत, साहित्य और कला का अद्भुत स्रोत हैं। काशी का तबला है और तमिलनाडु का तन्नुमाई। काशी में बनारसी साड़ी है तो तमिलनाडु का कांजीवरम सिल्क पूरी दुनिया में फेमस है। दोनों भारतीय अध्यात्म के सबसे महान आचार्यों की जन्मभूमि और कर्मभूमि है। काशी भक्त तुलसी की धरती है तो तमिलनाडु संत तिरुवल्लुवर की भक्तिभूमि है। जीवन के हर क्षेत्र में काशी और तमिलनाडु की एक ऊर्जा के दर्शन होते हैं।
प्रधानमंत्री को भरोसा है कि हमें आजादी के बाद हजारों वर्षों की परंपरा और विरासत को मजबूत करना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से इसके लिए बहुत प्रयास नहीं किए गए। काशी तमिल संगमम आज इस संकल्प के लिए एक प्लेटफार्म बनेगा। हमें राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए ऊर्जा देगा। विष्णुपुराण का एक श्लोक हमें बताता है कि भारत का स्वरूप क्या है। भारत वो है जो हिमलाय से लेकर हिन्द महासागर तक सभी विविधताओं को समेटे हुए है और उसकी हर संतान भारतीय है। तमिल संगम साहित्य में गंगा का बखान है। तिरुक्कुरल में काशी की महिमा गायी गई है। ये भौतिक दूरियां और ये भाषा भेद को तोड़ने वाला अपनत्व ही था जो स्वामी कुमरगुरुपर तमिलनाडु से काशी आए और इसे अपनी कर्मभूमि बनाया। स्वामी कुमरगुरुपर ने यहां केदारघाट पर केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। बाद में उनके शिष्यों ने तंजावुर जिले में काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया।
दक्षिण के विद्वानों के भारतीय दर्शन को समझे बिना हम भारत को नहीं जान सकते। तमिलनाडु में जन्मे रामानुजाचार्य ने काशी से कश्मीर तक की यात्रा की थी। आज भी उनके ज्ञान को आधार माना जाता है। मेरे शिक्षक ने मुझसे कहा था कि तुमने रामायण और महाभारत पढ़ी होगी, लेकिन अगर इसे गहराई से समझना है तो राजाजी ने जो महाभारत लिखी है उसे जरूर पढ़ना। रामानुजाचार्य, शंकराचार्य, राजाजी और सर्वपल्ली राधाकृष्णन तक दक्षिण के विद्वानों के भारतीय दर्शन को समझे बिना हम भारत को नहीं जान सकते। मोदी कहते हैं- भारत ने अपनी विरासत पर गर्व का पंच प्राण सामने रखा है। दुनिया में किसी भी देश के पास कोई प्राचीन विरासत होती है तो वो उसपर गर्व करता है। उसे गर्व से दुनिया के सामने प्रस्तुत करता है। मिस्र के पिरामिड से लेकर इटली के कॉलेजियम जैसे कितने ही उदाहरण हमारे सामने हैं। हमारे पास भी दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा तमिल है। आज तक ये भाषा उतनी ही पॉपुलर और लाइव है। दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा भारत में है ये बात जब दुनियावालों को पता चलती है तो उन्हें आश्चर्य होता है, मगर हम उसके गौरवगान में पीछे रहते हैं। ये हम 130 करोड़ देशवासियों की जिम्मेदारी है कि हमें तमिल की इस विरासत को बचाना है। उसे समृद्ध करना है। तमिल को भुलाएंगे तो देश का नुकसान होगा। तमिल को बंधनों में बांध कर रखेंगे तो भी देश का नुकसान होगा। हमें भाषा भेद को दूर कर भावनात्मक एकता कायम करना है। काशी तमिल संगमम शब्दों से ज्यादा अनुभव का विषय है। तमिलनाडु से आये हुए सभी अतिथियों की काशी यात्रा उनकी मेमोरी से जुड़ने वाली है। ये आपके जीवन की पूंजी बन जाएगी। मेरी काशी आपके सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ेगी। मैं चाहता हूं कि तमिलनाडु और दक्षिण के दूसरे राज्यों में भी ऐसे आयोजन हों और देश के दूसरे राज्य के लोग वहां जाएं। ये बीज राष्ट्रीय एकता का वटवृक्ष बने। राष्ट्रहित ही हमारा हित है। काशी तमिल संगमम का यह संबोधन तो केवल एक साक्ष्य है। इस राज ऋषि के मानस में भारत और सनातन की नवीन परिकल्पनाओं के आकार प्रकार और उनके साकार स्वरूप से विश्व बार बार चौंकेगा लेकिन हर भारतीय का गर्व बढ़ता ही जाएगा, यह तो तय है।
संजय तिवारी
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
डॉ. श्रीरंग गोडबोले
हैदराबाद नि:शस्त्र प्रतिरोध का आंदोलन हिंदू महासभा, आर्य समाज और स्टेट कांग्रेस ने किया। यह आंदोलन संघर्ष और बलिदान की अनुपम गाथा है। निजाम सरकार ने इस आंदोलन को निर्दयता से कुचलने का प्रयास किया। कांग्रेस ने हैदराबाद राज्य के पीड़ित हिंदुओं से विश्वासघात कर स्टेट कांग्रेस को मुंह की खाने पर विवश किया।
आंदोलन का स्वरूप हिंदू महासभा द्वारा नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन सन् 1938 में अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से शुरू हुआ। मार्च 1939 तक मुंबई और महाराष्ट्र से लगभग 200 एवं बरार तथा नागपुर से भी लगभग 200 नि:शस्त्र सत्याग्रही हिंदू महासभा ने निजाम राज्य में भेजे। 17 नवंबर, 1938 को नागपुर से सत्याग्रहियों की पहली टुकड़ी रवाना हुई। हिंदू महासभा द्वारा यह निश्चय किया गया कि इस आंदोलन के लिए महाराष्ट्र के अलावा अन्य प्रदेशों से मात्र पैसे भेजे जाएं। लोगों को इतनी दूर भेजने में ज्यादा खर्चा होता है, इसलिए आंदोलन में होने वाले खर्च पर नियंत्रण के लिए यह फैसला किया गया। मार्च 1939 तक सभी सत्याग्रही छोटी-छोटी टोलियों में रवाना हुए। नागपुर की टोलियां पच्चीस-तीस लोगों की थीं, तो दक्षिण महाराष्ट्र से आठ से दस लोगों की टोलियां बन कर गईं। बड़ी टोलियां भेजने में एक समस्या यह थी की सभी सत्याग्रही स्टेशन पर ही पकड़े जाते थे। हिंदू महासभा की टोलियों में शामिल अधिकांश सत्याग्रहियों ने निजाम राज्य में पहुंचकर, सभाएं आयोजित कर, जयघोष कर तथा पत्रक बांटकर प्रतिकार करना प्रारंभ किया। नवंबर, 1938 से अगले तीन माह तक हिंदू महासभा के आंदोलन का यह क्रम चलता रहा। फरवरी, 1939 से आर्य समाज इसमें कूद पड़ा और आंदोलन को व्यापक रूप मिला। मुंबई, कराची, लाहौर, रावलपिंडी, दिल्ली, देहरादून, फतेहपुर, बरेली आदि शहरों में आर्य समाज के सत्याग्रहियों की भर्ती की गई (केसरी, 18 नवंबर 1938)। फरवरी, 1939 के पहले सप्ताह में आर्य समाज के प्रथम अधिनायक पं. नारायणस्वामी ने 20 नि:शस्त्र सत्याग्रहियों सहित गुलबर्गा जाकर आर्य समाज के विशाल आंदोलन का आरंभ किया। आर्य समाज के दूसरे अधिनायक चांदकरण शारदा (अजमेर) जब पुणे आए, तब उन्होंने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि आर्य समाज की बड़ी टोलियों के समान ही, हिंदू महासभा की भी अब बड़ी टोलियां जानी चाहिए, जिससे संयुक्त परिणाम प्राप्त हो सके। अन्य आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने भी यही बात सुझाई। इसके पश्चात हिंदू महासभा द्वारा एक नई योजना बनाई गई, जिसके तहत मार्च, 1939 से सभी सत्याग्रही एक साथ पचास-पचास की संख्या वाली टोलियों में निकलना शुरू हुए। महाराष्ट्र के सभी केंद्रों को यह निर्देश दिया गया कि छोटी टोलियां न भेजकर सभी सत्याग्रहियों को पुणे भेजा जाए। (केसरी, 24 मार्च 1939)। :शस्त्र प्रतिकार आंदोलन को हिंदुओं के विभिन्न जाति-संप्रदायों का समर्थन प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं विदेशों में रहने वाले हिन्दुओं ने भी यथाशक्ति सहयोग किया। नागपुर हिंदू महासभा ने जैसे ही नि:शस्त्र प्रतिरोध को समर्थन दिया, वैसे ही कथित रूप से अछूत ‘मांग’ जाति के नागपुर निवासी शंकर जंगलाजी खड़से ने वीर सावरकर को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उन्हें भी सत्यग्रह की पहली टुकड़ी में शामिल होने की अनुमति दी जाए (केसरी, 6 जनवरी 1939)। 26 फरवरी, 1939 को जोशी मठ के शंकराचार्य ने इस आंदोलन का प्रचार कार्य शुरू किया। हैदराबाद हरिजन संघ के अध्यक्ष वी.एस. व्यंकट राव ने 23 अप्रैल, 1939 को कहा कि, हमारी न्यायोचित मांगें जब तक पूरी नहीं होंगी, तब तक आंदोलन जारी रहेगा। पुणे के हरिजन अधिकार सुरक्षा मंडल के मंत्री एवं पुणे हिंदू सभा के कार्यकर्ता कृष्णराव गंगाराम गांगुर्डे ने भी सत्याग्रह में भाग लिया। 22 फरवरी, 1939 को सयाम और फिजी से सत्याग्रहियों की टुकड़ी सोलापुर पहुंची (केसरी, 1 अगस्त 1939)। 'केसरी' पत्र के लंदन स्थित प्रतिनिधि द.वि. ताम्हनकर और 'हिंदू एसोसिएशन ऑफ यूरोप' के मंत्री बेंगेरी ने विदेशों में हैदराबाद के प्रश्न पर जनजागरण का कार्य किया। (केसरी, 21 जुलाई 1939)।
नि:शस्त्र प्रतिरोध में अनेक सिख पंथ के लोगों ने भी भाग लिया। दादर हिंदू सभा के सरदार जयसिंह के नेतृत्व में ग्यारह सत्याग्रहियों की टुकड़ी को 31 मई, 1939 को नांदेड़ में बंदी बनाया गया। बीस वर्ष का कारावास भुगते हुए सिख क्रांतिकारी बाबा मदन सिंह गागा ने पंजाबी नारायण सेना के तत्वावधान में 18 सत्याग्रहियों के जत्थे के साथ भाग लिया। 2 जून को पुणे में हुई स्वागत सभा में बाबा मदन सिंह ने कहा, मुझे विश्वास है कि यह सत्याग्रह सफल होगा, क्योंकि इसका नेतृत्व वीर सावरकर जी कर रहे हैं। साथ ही मुझे यह भी विश्वास है की हिन्दुस्तान को भी सावरकर जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता मिलेगी। बाबा सिंह के नेतृत्व में 3 जून, 1939 को सक्कर (सिंध) से नौ सिखों का एक जत्था पुणे पहुंचा। (केसरी, 6 जून 1939)।
देशभर से आर्य समाज के लगभग 18,000 से अधिक सत्याग्रहियों ने आंदोलन में भाग लिया। हिंदू महासभा के अधिकांश सत्याग्रही बृहन्महाराष्ट्र से थे, जो संख्या में लगभग सात-आठ हजार थे। स्टेट कांग्रेस के लगभग 400 प्रतिकारक जब जेल में ही थे, तभी उनका सत्याग्रह स्थगित करवाया गया। बारह और चौदह वर्ष के लड़के भी इस संग्राम में शामिल हुए और जेल गए। 18 सत्याग्रहियों ने इस संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी। महिलाओं को जानबूझकर प्रत्यक्ष रूप से सत्याग्रह में शामिल होने की मनाही थी, फिर भी उन्होंने पैसों के संकलन और जनजागृति के माध्यम से सत्याग्रहियों को संबल दिया। इस आंदोलन में हिंदू महासभा ने लगभग एक लाख रुपये खर्च किए। यह वित्तीय बोझ महाराष्ट्र ने और उसमें भी प्रमुखता से मुंबई ने उठाया। इस आंदोलन के कारण निजाम सरकार के लगभग एक करोड़ रुपये खर्च होने का अंदाजा है। (दाते, पृ.194,195)। हैदराबाद रेलवे स्टेशन पर उतरने से पूर्व विकाराबाद से ही संदिग्ध यात्रियों पर नजर रखी जाने लगी। कौन हैदराबाद जा रहा है, इस पर गुप्त पुलिस की नजर थी। स्टेशन पर उतरते ही उतरने वाले के पूरे सामान की तलाशी ली जाने लगी। इससे बहुत से सनातनियों को अपने धार्मिक ग्रंथ, गुरुचरित्र, शिवलीलामृत या नित्य पठन की पोथियां मुस्लिम अधिकारियों के हाथों में सौंपनी पड़ती थी। अगर किसी के ट्रंक में कोई संदिग्ध साहित्यिक वस्तु मिलती, तो वह ट्रंक पुलिस चौकी ले जाया जाता। कई बार उतरने वालों को चार-चार घंटे तक इंतजार करना पड़ता था। अतिथियों के आगमन की सूचना मकान मालिक या होटल मालिक यदि पुलिस को नहीं देते थे, तो मकान मालिक को भी दस बार पुलिस चौकी में हाजिरी देने जाना पड़ता था। इसके विपरीत कोई मवाली दाढ़ीवाला पठान मुस्लिम निडर होकर घूम सकता था। सत्याग्रह आंदोलन शुरू होते ही गुप्त पुलिस में जबरदस्त भर्तियां की गई थी। दीवारों से भी जासूस चिपके होंगे, इस डर से घर में भी कोई राजनीति पर खुलकर चर्चा नहीं कर पाता था। ऐसी परिस्थिति में हिन्दुओं के दुःख सुनना भी दूभर हो चला था। हिंदुओं के बड़े-बड़े नेता चाह कर भी किसी से खुलकर बात नही कर पाते थे। हिंदू नेताओं की हर एक गतिविधि पर दरबारी गुप्तचरों की नजर थी। एक तरह से देखा जाए तो हिंदू नेता नजर कैद में ही थे। मुस्लिमों में जातीय भावना चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। हर एक गली में हिंदुओं की दुकानों के सामने मुस्लिम दुकानें खड़ी की जा रही थीं। हैदराबाद के केंद्र स्थान पर स्थित एक बैंक से छह लाख रुपये की पूंजी ले कर चारों ओर मुस्लिम दुकानें खोली गई। इन्हीं दुकानों से ही मुस्लिम माल खरीदें, इसलिए रास्तों पर मुस्लिम स्वयंसेवक सादे कपड़ों में हिंदू दुकानों के सामने पहरा देने लगे। हिंदू व्यापारियों को समाप्त करने की बहुत से धनवान मुस्लिम व्यापारियों ने मानो शपथ सी ली हो। निजाम शाही के नौकरशाह भीतर से इस विरोध प्रचार को हवा दे रहे थे। सब्जी मार्केट, फूलवाले, कल्हई वाले, कसार, पिंजारी ये सभी मुस्लिम थे। अब 'इस्लामी दुकान' के नाम से उनकी गांवों में संख्या बढ़ने लगी। जातीय विद्वेष फैलाने वाला वर्ग बाहर से मुस्लिम व्यापारियों को लाकर व्यापार में मुस्लिम वर्ग को अग्रिम पंक्ति में खड़ा करने के प्रयास में था, क्योंकि व्यापार के क्षेत्र में इस्लामी प्रभाव लोकप्रिय नहीं था। अन्य सरकारी विभाग तो संपूर्ण रूप में इस्लामी हो ही चुके थे, तब बचे हुए व्यापारिक क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए बहिष्कार की यह गतिविधि शुरू हुई। दूसरी तरफ बंदी की सीमा में आने वाले समाचार पत्रों की संख्या में नित्य वृद्धि हो रही थी। चीन की दीवार के समान एक विशाल दीवार निजाम सरकार ने अपने प्रदेश के चारों ओर खड़ी कर रखी थी। (केसरी, 18 नवंबर1938)। स्थानीय सत्याग्रही उनके सत्याग्रह की सूचना एक घंटे पूर्व पुलिस चौकी में दे देते थे, पर सत्याग्रह का स्थान नहीं बताते। इससे सत्याग्रह का समाचार मिलते ही शहर में काले लबादे वाली पुलिस की भागदौड़ शुरू हो जाती। कई बार वे निरपराधी लोगों पर, उनके घरों में घुसकर जबरन लाठीमार कर उनके सिर फोड़ देते थे, जिसके कारण गांव की हिंदू बस्तियों में श्मशान जैसी शांति फैल जाती थी। इसी समय रमजान के महीने के कारण रात में मस्जिदें खिल उठती थी। सरकारी खर्चे पर शानदार दावतें दी जाती थी। (केसरी, 22 नवंबर 1938)। वंदे मातरम का आंदोलन औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के उस्मानिया महाविद्यालय के प्राचार्य द्वारा 16 नवंबर, 1938 को वंदे मातरम कहने पर प्रतिबंध लगाने से छात्रावास के छात्रों ने अन्न त्याग की घोषणा की (केसरी, 18 नवंबर 1938)। इसके बाद अधिकारियों ने प्रतिबंध हटाया (केसरी, 22 नवंबर 1938)। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने छात्रावास के हिंदू छात्रों द्वारा सायंकालीन प्रार्थना के समय वंदे मातरम कहने पर मुस्लिम छात्रों की आपत्ति के बाद लगभग 850 हिंदू छात्रों को 12 दिसंबर, 1938 को विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। इन छात्रों ने अपने पाठ्यक्रम को तिलांजलि दे दी, पर वंदे मातरम को अपमानित नहीं होने दिया। इन विद्यार्थियों ने नागपुर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री. केदार के यहां शरण ली। कुलाधिपति श्री. केदार ने नागपुर विश्वविद्यालय के अंर्तगत समस्त महाविद्यालयों को उस्मानिया विश्वविद्यालय के इन छात्रों को प्रवेश देने संबंधी आदेश जारी किया (केसरी, 27 दिसंबर 1938, 13 और 17 जनवरी 1939)। इन्स्पेक्टर-जनरल हॉलिन्स हैदराबाद जेल के निरीक्षण हेतु 4 फरवरी, 1939 को पहुंचे। वहां कौन कौन वंदे मातरम गाता है, इसकी उन्होंने पूछताछ की। उनकी इस धौंस को धता बताते हुए रामचंद्र रेड्डी नामक एक वीर युवक सामने आया और उसने निर्भय होकर कहा, 'मैं वह पद गाता हूं'। इसके साथ ही हॉलिन्स ने उसे दो घूंसे जड़ दिए। दूसरे दिन उसे और एक अन्य बंदी को 24-24 बेंत मारी गई। उसके अगले दिन रामलाल नामक सत्याग्रही को 36 बेंत मारी गई। इस संबंध में हॉलिन्स ने स्पष्टीकरण दिया कि सरकारी आदेशानुसार वंदे मातरम गाने पर पाबंदी है (केसरी, 7 मार्च 1939)। निजामशाही जेल में यातनाएं बंदी बनाए गए सत्याग्रहियों को तरह-तरह से यातनाएं दी जाती थी। भूख से बेहाल, नित्य कर्म हेतु पर्याप्त पानी ना देना, बेड़ियां पहनाना, बेंत से पीटना, बीमार बंदियों को दवा ना देकर उलटा उनके साथ मारपीट करना, धार्मिक स्वतंत्रता छीनना जैसी बातें सहज और सामान्य थीं। उदाहरण के लिए 5 से 12 जून, 1939 में औरंगाबाद कारावास में घटित घटनाक्रम का उल्लेख प्रासंगिक होगा। 5 जून को आर्य समाजी नेता महाशय कृष्ण और उनके 782 प्रतिकारकों के जत्थे को बंदी बनाकर औरंगाबाद कारागार लाया गया। उन्हें ठीक तेरह घंटों बाद जवार की आधी रोटी दी गई। नए बंदी और पहले के 2000 राजबंदियों के कारण कारावास की व्यवस्था डगमगा गई। 6 और 7 जून को यही परिस्थिति कायम रही। कारागार के एक वार्ड में स्थित शौचालय के निस्तार का पानी बाहर करने वाला पाइप खुला था। 7 जून की दोपहर में तूफानी बारिश के कारण एक तिहाई कारागार निस्तार के पानी से भर उठा। कारागार में नए आए अधिकारी के समक्ष सभी सत्याग्रहियों ने जोरदार शिकायत की। आश्वासन देना तो दूर, उलटा उसने 7 जून की रात को 7:30 बजे खतरे की घंटी बजाकर बाहर से पुलिस और लाठीधारी मुस्लिम गुंडों को बुलाया। बंदियों को खोलियों में धकेला गया। फिर वहां की बत्ती बुझा कर बंदियों को लाठियों से मारा गया। इसमें लगभग 75 से 100 लोग घायल हुए। पांच से छह लोग गंभीर रूप से घायल हुए। 8 जून की दोपहर 2 बजे तक उन्हें बंद रखा गया। 8 जून की दोपहर में तो हद कर दी गई। जेल अधिकारी ने ल. ब. भोपटकर, अनंत हरी गद्रे, विश्वनाथ केलकर इत्यादि नेताओं को बरामदे में बैठाया। इसके बाद दो दर्जन पुलिसवाले दो पंक्तियों में खड़े हो गए। फिर प्रत्येक वार्ड के दो बंदी बाहर लाकर दो पंक्तियों में खड़ी पुलिस के बीच से उन्हें चलवाया गया। अब लात, मुक्का, छड़ी की मार, थूकना आदि कई चीजों का हर एक बंदी को सामना करना पड़ा। नेताओं को असहाय रूप से उनके अनुयायियों पर हो रहे अत्याचार को देखना पड़ा। पुलिस जब मार-मार कर थक कर निढाल हुई, तब जाकर यह अमानवीय हरकत थमी। इसी में एक आर्य समाजी सत्याग्रही की मृत्यु हो गई। अगले तीन दिनों के लिए सभी बंदियों को दिन रात बंद कर रखा गया। लगभग पच्चीस सत्याग्रहियों के पैरों में 5 से 12 जून तक मोटी बेड़ियां जकड़ दी गई (केसरी, 13 एवं 20 जून 1939; यह सारा घटनाक्रम वहां बंदिवान शं.रा. दाते की पुस्तक के पृ.159-173 पर उल्लेखित है)। निजाम ने की सुधार की घोषणा निजाम राज्य में होने वाले अत्याचारों पर केंद्रीय विधिमंडल में प्रश्न पूछे गए। सर वेजवुड बेन और डेविड रीस ग्रेनफेल नामक दो ब्रिटिश संसद सदस्यों ने निजाम राज्य की परिस्थिति का विषय ब्रिटिश सांसद तथा वहां के समाचार पत्रों में उठाया। देशभर से 90 नामांकित लोगों की मंडली ने वायसराय के सामने इस संबंध में निवेदन प्रस्तुत किया। हैदराबाद आर्य समाज के नेता विनायक राव कोरटकर के नेतृत्व में 1300 प्रतिकारकों की टुकड़ी सत्याग्रह के लिए 22 जुलाई को तैयार हुई। निजाम विरोधी आंदोलन बाहर के लोग चला रहे है, उसे स्थानीय समर्थन नहीं है, यह कहनेवाले निजाम के लिए यह मुंहतोड़ जवाब था। यह सत्याग्रह होने से पूर्व उसने मजबूरी में 17 जुलाई को सुधार प्रारूप पर हस्ताक्षर कर 19 जुलाई को इसकी घोषणा की। निजाम को सर्वसत्ताधारी बनाये रखने और राजनीति, सेना, दूसरे राष्ट्रों से संबंध या अन्य विषय उसी की परिधि में रखने का प्रावधान था। हैदराबाद के प्रस्तावित विधिमंडल में 85 सदस्य थे, इनमें से 42 लोगों द्वारा नियुक्त तथा 43 सरकार द्वारा नियुक्त होने थे। सभी प्रतिनिधिक मंडलों में हिंदू-मुस्लिम समान संख्या में होने थे। धार्मिक स्वतंत्रता के मामलों में विवादग्रस्त प्रश्न पर निर्णय देने के लिए हिंदू-मुस्लिम के समान संख्या में प्रतिनिधि वाले स्थाई स्वरूपवाला विधिवत मंडल, हैदराबाद राज्य के अधिकारी वर्ग की नियुक्ति हेतु स्वतंत्र पब्लिक सर्विस कमीशन, ब्रिटिश हिन्दुस्तान के प्रेस कायदे पर आधारित मुद्रण नियमन हेतु नया कानून, संघीय स्वतंत्रता और अधिकारियों को सूचना देकर मान्य किया गया (केसरी, 21 जुलाई 1939)। 19 जुलाई को आर्य समाज ने अपना आंदोलन रोक दिया। दस प्रतिशत मुस्लिमों को, नब्बे प्रतिशत हिंदुओं का राजनैतिक दर्जा दिलाने का दाग सुधारों पर लगा भी हो, तो भी कुल मिलाकर उनका स्वागत करते हुए हिंदू महासभा के कार्यकारी मंडल ने 30 जुलाई, 1939 को प्रस्ताव रख कर नि:शस्त्र प्रतिकार का आंदोलन स्थगित किया। 17 अगस्त, 1939 से एक सप्ताह में सभी राजनैतिक बंदियों को धीरे-धीरे छोड़ा गया। उनका यात्रा व्यय जो निजाम ने उठाया, वह लगभग एक लाख रुपये था। इस प्रकार हैदराबाद (भागानगर) नि:शस्त्र प्रतिरोध की इतिश्री हुई। इस आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका क्या थी? ये सब आगामी आलेखों में बताया जाएगा। हिन्दुस्थान समाचार /मुकुंद
राहुल गांधी की अच्छी-खासी भारत-यात्रा चल रही है, लेकिन पता नहीं क्या बात है कि वक्त-बेवक्त उसमें वे पलीता लगवा लेते हैं। पहले उन्होंने जातीय-जनगणना के सोये मुर्दे को उठा दिया, जिसे उनकी माता सोनिया गांधी ने खुद दफना दिया था और अब उन्होंने महाराष्ट्र में जाकर वीर सावरकर के खिलाफ बयान दे दिया है। क्या उन्हें पता नहीं है कि विनायक दामोदर महाराष्ट्रियन थे और महाराष्ट्र के लोग उन्हें स्वांतत्र्य संग्राम का महानायक मानते हैं? स्वयं इंदिरा गांधी ने उन्हें महान स्वतंत्रता-सेनानी कहा है। राहुल ने ब्रिटिश सरकार को लिखे सावरकर के एक पत्र को उद्धृत करते हुए कहा है कि सावरकर ने अपने आप को अंडमान की जेल से छुड़वाने के लिए ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी और रिहा होने के बाद उसके साथ पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। राहुल का कहना है कि सावरकर ने ऐसा करके गांधी, पटेल और नेहरू के साथ विश्वासघात किया और वे अंग्रेजों का साथ देते रहे।
ऐसा कहने में मैं राहुल का कोई दोष नहीं मानता हूं। यह दोष उनका है, जो लोग राहुल को पट्टी पढ़ाते हैं। बेचारे राहुल को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के बारे में क्या पता है? अंग्रेज के जमाने के गुप्त दस्तावेजों का स्वाध्याय और अनुसंधान करना तो राहुल क्या, किसी पढ़े-लिखे नेता से भी उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन सावरकर पर इधर छपे 5-6 प्रामाणिक ग्रंथों को भी राहुल ने सरसरी नजर से भी देख लिया होता तो उन्हें पता चल जाता कि सावरकर और उनके भाई ने आजन्म जेल से छूटने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक बार नहीं, कई बार चिट्ठियां लिखी थीं और वे हर कीमत पर जेल से छूटकर अंग्रेज के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का षड़यंत्र रच रहे थे। यह बात मैं नहीं कह रहा हूं। लगभग 40 साल पहले नेशनल आर्काइव्ज के गोपनीय दस्तावेजों को खंगालने पर मुझे पता चला कि उनके माफीनामे पर प्रतिक्रिया देते हुए गवर्नर जनरल के विशेष अधिकारी रेजिनाल्ड क्रेडोक ने लिखा था कि सावरकर झूठी माफी मांग रहा है और वह जेल से छूटकर यूरोप के ब्रिटिश-विरोधी आतंकवादियों से हाथ मिलाएगा और सशस्त्र क्रांति के द्वारा ब्रिटिश सरकार को उलटाने की कोशिश करेगा।
सावरकर को जेल से छोड़ने के बाद भी बरसों-बरस नजरबंद करके क्यों रखा गया? यदि सावरकर अंग्रेज भक्त थे तो महात्मा गांधी खुद उनसे मिलने लंदन के ‘इंडिया हाउस’ में क्यों गए थे? स्वयं गांधीजी ब्रिटिश-विरोधी तो 1916 में बने। 1899 में वे अफ्रीका के बोइर-युद्ध में अंग्रेजों के साथ दे रहे थे। उन्हें ‘केसरे-हिंद’ की उपाधि भी अंग्रेज सरकार ने दी थी। सावरकर उनके बहुत पहले से ही ब्रिटिश सरकार को उलटाने की कोशिश कर रहे थे? क्या वजह है कि मदाम भीकाजी कामा, सरदार भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस सावरकर के भक्त थे? यह ठीक है कि आप सावरकर और सुभाष बोस के सशस्त्र क्रांति के हिंसक तरीकों से असहमत हों लेकिन सावरकर को लांछित करने और अंग्रेजों को लिखे उनके पत्रों की मनमानी व्याख्या करने की तुक क्या है? यदि राहुल का सोच यह है कि इससे वे ज्यादा वोट कबाड़ सकेंगे तो उन्हें पता होना चाहिए कि महाराष्ट्र में आजकल उनका साथ देनेवाली उद्धव ठाकरे की शिवसेना को उन्होंने कितनी अधिक तकलीफ पहुंचाई है। सावरकर को नीचा दिखाकर भाजपा को हानि पहुंचाने की रणनीति कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकती है। सावरकर पर खोजपूर्ण लेखों के लिए आप मेरे ग्रंथ ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान’ को भी पढ़ सकते हैं।
डॉ. वेदप्रताप वैदक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
भारत भूमि पर अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अनेक वीर अग्रणी भूमिका में रहे हैं। लेकिन देश को स्वतंत्र कराने में मातृशक्ति के योगदान को किसी प्रकार से कम नहीं कहा जा सकता। जिन नारियों ने भारत को स्वतंत्र कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई आज पूरा देश उन्हें वीरांगना के नाम से स्वीकार करता है। वीरांगना नाम सुनते ही हमारे मन मस्तिष्क में स्वाभाविक रूप से रानी लक्ष्मीबाई की छवि उभरती है। भारतीय वसुंधरा को अपने वीरोचित भाव से गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सच्चे अर्थों में वीरांगना हैं। वे भारतीय महिलाओं के समक्ष अपने जीवनकाल में ही ऐसा आदर्श स्थापित कर विदा हुईं, जिससे हर कोई प्रेरणा ले सकता है। वर्तमान युग में जहां हर कोई अपने आप तक केन्द्रित होता जा रहा है, उनके लिए वीरांगना लक्ष्मीबाई का जीवन एक ऐसा उदाहरण है, जो राष्ट्रीय भावना को संचारित करने में एक आदर्श है। भारतीय नारी शक्ति को इस बात का अवश्य ही विचार करना चाहिए कि हमारे नायक कौन होने चाहिए? क्योंकि श्रेष्ठ नायक और नायिकाओं के माध्यम से ही श्रेष्ठ जीवन बनता है। आज हम जिस चमक-दमक में नायकत्व को देखने का प्रयास करते हैं, वे वास्तव में भारत के नायक हैं ही नहीं। इसे सुनियोजित तरीके से भारत में इस रूप में प्रचारित किया गया है और इसी कारण समाज का बहुत बड़ा वर्ग भ्रम में जी रहा है।
यह वास्तविकता ही है कि जो भी देश से प्यार करता है, उसे कोई भी प्रलोभन अपने कर्तव्य से डिगा नहीं सकता। ऐसे ही महान व्यक्ति भविष्य में समाज के नायक के रूप में स्थापित होते हैं। वास्तव में नायक वही होता है, जो अपने कर्मों से सही राह पर चलने की प्रेरणा दे सके। ऐसा ही रानी लक्ष्मीबाई का जीवन था, यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। उन्हें अपने राज्य और राष्ट्र से एकात्म भाव को प्रदर्शित करने वाला प्यार था। वीरांगना के मन में हमेशा यह बात कचोटती रही कि देश के दुश्मन अंग्रेजों को सबक सिखाया जाए। इसी कारण उन्होंने यह घोषणा की थी कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। इतिहास बताता है कि इस घोषणा के बाद रानी ने अंग्रेजों से युद्ध किया। वीरांगना लक्ष्मीबाई के मन में अंग्रेजों के प्रति किस कदर घृणा थी, वह इस बात से पता चल जाता है कि जब रानी का अंतिम समय आया, तब ग्वालियर की भूमि पर स्थित गंगादास की बड़ी शाला में रानी ने संतों से कहा कि कुछ ऐसा करो कि मेरा शरीर अंग्रेज न छू पाएं। इसके बाद रानी स्वर्ग सिधार गईं और बड़ी शाला में स्थित एक झोपड़ी को चिता का रूप देकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया और अंग्रेज देखते ही रह गए। हालांकि इससे पूर्व रानी के समर्थन में बड़ी शाला के संतों ने अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, जिसमें 745 संतों का बलिदान भी हुआ, पूरी तरह सैनिकों की भांति अंग्रेजों से युद्ध करने वाले संतों ने रानी के शरीर की मरते दम तक रक्षा की।
जिन महापुरुषों और महान नायिकाओं का हृदय वीरोचित भाव से भरा होता है, उसका लक्ष्य सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान ही होता है। वह एक ऐसे आदर्श चरित्र को जीता है, जो समाज के लिए प्रेरणा बनता है। इसके साथ ही वह अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही थीं महारानी लक्ष्मीबाई। उनका जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनु व मणिकर्णिका के नाम से जानी जाती थीं। सन् 1850 में मात्र 15 वर्ष की आयु में झांसी के महाराजा गंगाधर राव से मणिकर्णिका का विवाह हुआ। एक वर्ष बाद ही उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, लेकिन चार माह पश्चात ही उस बालक का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेज सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। 27 फरवरी, 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं। उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, बानपुर के राजा मर्दन सिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा, लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय के उल्लास का नहीं था, अपनी शक्ति को संगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था। इधर जनरल स्मिथ और मेजर रूल्स अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करते रहे और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने घमासान युद्ध करके ग्वालियर का किला अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून, 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंतत: उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की आहुति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया। रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान उस समाज के लिए भी एक प्रेरणा है जो देश के विरोध में नए नए षड्यंत्र करते हैं। क्योंकि विचार करने वाली यह है कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए जिन योद्धाओं ने अंग्रेजों से मुकाबला किया, वह उनके स्वयं के लिए नहीं था, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए ही था। आज हम स्वतंत्र भारत में जी रहे हैं तो इसमें इन क्रांतिकारियों का अविस्मरणीय योगदान है। भारत की भावी पीढ़ी को ऐसे नायकों से प्रेरणा लेकर जितना भी बन सके, राष्ट्र के लिए योगदान देना ही चाहिए।
डॉ. वंदना सेन
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
लक्ष्मीबाई उर्फ़ झाँसी की रानी मराठा शासित राज्य झाँसी की रानी थी। जो उत्तर-मध्य भारत में स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी जिन्होंने अल्पायु में ही ब्रिटिश साम्राज्य से संग्राम किया था।
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी के भदैनी नगर में हुआ था उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था जिन्हें सब प्यार से मनु कहकर पुकारते थे।उनके पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। उनके पिता बिठुर में न्यायालय में पेशवा थे और उनके पिता आधुनिक सोच के व्यक्ति थे जो कि लड़कियों की स्वतंत्रता और उनकी पढ़ाई- लिखाई में भरोसा रखते थे। रानी लक्ष्मी बाई की माँ का नाम भागीरथीबाई था । माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया।
मनु बाई बचपन से ही बेहद सुंदर थी उनकी छवि मनमोहक थी जो भी उनको देखता था उनसे बात करे बिना नहीं रह पाता था। उनके पिता भी मनु बाई की सुंदरता की वजह से उन्हें छबीली कहकर बुलाते थे। बाजीराव के पुत्रों के साथ मनु खेल-कूद मनोरंजन करती थी और वे भाई-बहन की तरह रहते थे। वे तीनों साथ में खेलते थेऔर साथ में पढ़ाई-लिखाई भी करते थी। इसके साथ ही मनु बाई निशानेबाजी, घुड़सवारी, आत्मरक्षा, घेराबंदी की शिक्षा भी लेती थी। इसके बाद शस्त्रविद्याओं में निपुण होती चली गईं साथ एक अच्छी घुड़सवार भी बन गई। आपको बता दें कि बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र चलाना और घुड़सवारी करना लक्ष्मी बाई के दो प्रिय खेल थे।
रानी लक्ष्मी बाई की शिक्षा
बाजारीव के पुत्रों के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई की। आपको बता दें कि बाजीराव के पुत्रों को पढ़ाने एक शिक्षक आते थे मनु भी उनके पुत्रों के साथ उसी शिक्षक से पढ़ती थीं।
नाना साहब की लक्ष्मी बाई को चुनौती
रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी के किस्से बचपन से ही थी। जी हां वे बड़ी से बड़ी चुनौतियां का भी बड़ी समझदारी और होशयारी से सामना कर लेती हैं। ऐसे ही एक बार जब वे घुड़सवारी कर रही थी तब नाना साहब ने मनु बाई से कहा कि अगर हिम्मत है तो मेरे घोड़े से आगे निकल कर दिखाओ फिर क्या था मनु बाई ने नानासाहब की ये चुनौती मुस्कराते हुए स्वीकार कर ली और नानासाहब के साथ घुड़सवारी के लिए तैयार हो गई। जहां नानासाहब का घोड़ा तेज गति से भाग रहा था वहीं लक्ष्मी बाई के घोड़ा भी उसे पीछे नहीं रहा, इस दौरान नानासाहब ने लक्ष्मी बाई के आगे निकलने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे और इस रेस में वे घोड़े से नीचे गिर गए इस दौरान नाना साहब की चीख निकल पड़ी ”मनु मै मरा” जिसके बाद मनु ने अपने घोड़े को पीछे मोड़ लिया और नाना साहब को अपने घोड़े में बिठाकर अपने घर की तरफ चल पड़ी। इसके बाद न सिर्फ नानासाहब ने मनु को शाबासी दी बल्कि उनकी घुड़सवारी की भी तारीफ की
इसके बाद नानासाहब और रावसाहब ने मनु बाई की प्रतिभा को देख उन्हें शस्त्र विद्या भी सिखाई।मनु ने नानासाहब से तलवार चलाना, भाला-बरछा फैकना और बंदूक से निशाना लगाना सीख लिया। इसके अलावा मनु व्यायामों में भी प्रयोग करती थी वहीं कुश्ती और मलखंभ उनके प्रिय व्यायाम थे।
रानी लक्ष्मी बाई की शादी महज 14 साल की उम्र में उत्तर भारत में स्थित झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवालकर – के साथ हो गया। इस तरह काशी की मनु अब झांसी की रानी बन गईं। आपको बता दें कि शादी के बाद उनका नाम लक्ष्मी बाई रखा गया था। उनका वैवाहिक जीवन सुख से बीत रहा था इस दौरान 1851 में उन दोनों को पुत्र को प्राप्ति हुई जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। परंतु उनके पुत्र मात्र 4 महीने तक ही जीवित रहा।महाराजा गंगाधर राव नेवलकर के पुत्र की जब मृत्यु हुई थी, तो वह अपने पुत्र की इस असामयिक मृत्यु से बहुत ही दुखी रहने लगे थे और इस दुख से वे कभी उभर न सके। इसी दुख के कारण वह 1853 में बहुत ही बीमार रहने लगे। लक्ष्मीबाई ने अपने पति की ऐसी हालत देख उन्हें इस दुख से उबरने के लिए अपने एक रिश्तेदार के पुत्र को गोद ले लिया और इस पुत्र को गोद लेने के पश्चात उस पुत्र के उत्तराधिकारी पर ब्रिटिश सरकार को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि इस गोद लेने की प्रक्रिया को ब्रिटिश अफसरों की उपस्थिति में पूर्ण किया गया था, ताकि वह किसी भी प्रकार का आपत्ति न जता सके। महारानी लक्ष्मीबाई और उनके पति के द्वारा इस पुत्र का नाम आनंद राव रखा गया। रानी लक्ष्मी बाई के दूसरे पुत्र आनंद राव के नाम को बदलकर के दामोदर राव रख दिया गया। 21 नवम्बर, सन 1853 में महाराज गंगाधर राव नेवलेकर की मृत्यु हो गयी, उस समय रानी कीआयु मात्र 18वर्ष थी. परन्तु रानी ने अपना धैर्य और सहस नहीं खोया और बालक दामोदर की आयु कम होने के करण राज्य – काज का उत्तरदायित्व महारानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं पर ले लिया. उस समय लार्ड डलहौजी गवर्नर था.
संघर्ष और शौर्य
रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझते हुए राज्य के सभी लोगों से घुलना मिलना प्रारंभ कर दिया । विशेष रूप से स्त्रीयों से मित्रता कर अपने विचारों के अनुकूल सुन्दर गुन्दर, जूड़ी, झलकारी, काशीबाई, मोतीबाई नाम की सहेलियों झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई की महिला सेना दल का नाम दुर्गा बल था. भारत में ब्रिटिश राज के विरुद्ध झांसी की रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित महिला सेना थी, जिसको रानी ने हिंदु देवी दुर्गा के नाम पर दुर्गा दल नाम दिया था. इसका नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई ने किया था जहाँ हिंसा भड़क उठी. रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया. साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया. झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया. 7 मार्च, 1854को ब्रिटिश सरकार ने एक सरकारी गजट जारी किया,जिसके अनुसार झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलने का आदेश दिया गया था. रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश अफसर एलिस द्वारा यह आदेश मिलने पर उन्होंने इसे मानने से इंकार कर दिया और कहा ‘ मेरी झाँसी नहीं दूंगी’और अब झाँसी विद्रोह का केन्द्रीय
बिंदुबन गया.रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की मदद से एक सेना तैयार की, जिसमे केवल पुरुष ही
नहीं, अपितु महिलाएं भी शामिल थी; जिन्हें युध्द में लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था. उनकी सेना में अनेक महारथी भी थे, जैसे: गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुन्दरमुन्दर, लाला भाऊ बक्शी, दीवानरघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, आदि. उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे. 10मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका कारण था कि जो बंदूकों की नयी गोलियाँथी, उस पर सूअर और गौमांस की परत चढ़ी थी. इससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर ठेस लगी थी और इस कारण यह विद्रोह देश भर में फ़ैल गया था इस विद्रोह को दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा जरुरी था,अतः उन्होंने झाँसी को फ़िलहाल रानी लक्ष्मीबाई के अधीन छोड़ने का निर्णय लिया. इस दौरान सितम्बर – अक्टूबर, 1857 में रानी लक्ष्मीबाई को अपने पड़ोसी देशो ओरछा और दतिया के राजाओ के साथ युध्द करना पड़ा क्योकिं उन्होंने झाँसी पर चढ़ाई कर दी थी.इसके कुछ समय बाद मार्च, 1858 में अंग्रेजों ने सर ह्यू रोज के नेतृत्व में झाँसी पर हमला कर दिया और तब झाँसी की ओर से तात्या टोपे के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों के साथ यह लड़ाई लड़ी गयी, जो लगभग 2 सप्ताह तक चली. अंग्रेजी सेना किले की दीवारों को तोड़ने में सफल रही और नगर पर कब्ज़ा कर लिया. इस समय अंग्रेज सरकार झाँसी को हथियाने में कामयाब रही और अंग्रेजी सैनिकों नगर में लूट – पाट भी शुरू कर दी. फिर भी रानी लक्ष्मीबाई किसी प्रकार अपने पुत्र दामोदर राव को बचाने में सफल रही.
काल्पी की लड़ाई
इस युध्द में हार जाने के कारण उन्होंने सतत 24 घंटों में 102 मील का सफ़र तय किया और अपने दल के साथ काल्पी पहुंची और कुछ समय कालपी में शरण ली,जहाँ वे ‘तात्या टोपे’ के साथ थी. तबवहाँ के पेशवा ने परिस्थिति को समझ कर उन्हें शरण दी और अपना सैन्य बल भी प्रदान किया.
22 मई, 1858 को सर ह्यू रोज ने काल्पी पर आक्रमण कर दिया, तब रानी लक्ष्मीबाई ने वीरता और रणनीतिपूर्वक उन्हें परास्त किया और अंग्रेजो को पीछे हटना पड़ा. कुछ समय पश्चात् सर ह्यू रोज ने काल्पी पर फिर से हमला किया और इस बार रानी को हार का सामना करना पड़ा. युद्ध में हारने के पश्चात् राव साहेब पेशवा, बन्दा के नवाब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई और अन्य मुख्य योध्दा गोपालपुर में एकत्र हुए. रानी ने ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव दिया ताकि वे अपने लक्ष्य में सफल हो सके और वहीरानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने इस प्रकार गठित एक विद्रोही सेना के साथ मिलकर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी. वहाँ इन्होने ग्वालियर के महाराजा को परास्त किया और रणनीतिक तरीके से ग्वालियर के किले पर जीत हासिल की और ग्वालियर का राज्य पेशवा को सौप दिया.
17जून,1858 में किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ युध्द लड़ते समय उन्होंने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र का मोर्चा संभाला. इस युध्द में उनकी सेविकाए तक शामिल थी और पुरुषो की पोषक धारण करने के साथ ही उतनीहवीरता से युध्द भी कर रही थी. इस युध्द के दौरान वे अपने ‘राजरतन’ नामक घोड़े पर सवार नहीं थी औरयहघोड़ानया था, जो नहर के उस पार नही कूद पा रहा था, रानी इस स्थिति को समझ गयी और वीरता के साथ वही युध्द करती रही. इस समय वे बुरी तरह से घायल हो चुकी थी और वे घोड़े पर से गिर पड़ी. चूँकि वे पुरुष पोषक में थी, अतः उन्हें अंग्रेजी सैनिक पहचान नही पाए और उन्हें छोड़ दिया. तब रानी के विश्वास पात्र सैनिक उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गये और उन्हें गंगाजल दिया. तब उन्होंने अपनअंतिम इच्छा बताई की “कोई भी अंग्रेज अफसर उनकी मृत देह को हाथ न लगाए.” इस प्रकार कोटाकी सराई के पास ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई अर्थात् वे मृत्यु को प्राप्त हुई.ब्रिटिश सरकार ने 3 दिन बाद ग्वालियर को हथिया लिया. उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पिता मोरोपंत ताम्बे को गिरफ्तार कर लिया गयाऔर फांसी की सजा दी गयी.रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश राज्य द्वारा पेंशन दी गयी और उन्हें उनका उत्तराधिकार कभी नहीं मिला. बाद में राव इंदौर शहर में बस गये और उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय अंग्रेज सरकार को मनाने एवं अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के प्रयासों में व्यतीत किया. उनकी मृत्यु 28 मई, 1906 को 58 वर्ष में हो गयी.इस प्रकार देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए उन्होंने अपनी जान तक न्यौछावर कर दी.
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
