भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई | The Voice TV

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना - झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

Date : 19-Nov-2022

लक्ष्मीबाई उर्फ़ झाँसी की रानी मराठा शासित राज्य झाँसी की रानी थी। जो उत्तर-मध्य भारत में स्थित है। रानी लक्ष्मीबाई 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थी जिन्होंने अल्पायु में ही ब्रिटिश साम्राज्य से संग्राम किया था।

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी के भदैनी नगर में हुआ था उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था जिन्हें सब प्यार से मनु कहकर पुकारते थे।उनके पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। उनके पिता बिठुर में न्यायालय में पेशवा थे और उनके पिता आधुनिक सोच के व्यक्ति थे जो कि लड़कियों की स्वतंत्रता और उनकी पढ़ाई- लिखाई में भरोसा रखते थे।  रानी लक्ष्मी बाई की माँ का नाम भागीरथीबाई था माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया।

झांसी की रानी का बचपन

मनु बाई बचपन से ही बेहद सुंदर थी उनकी छवि मनमोहक थी जो भी उनको देखता था उनसे बात करे बिना नहीं रह पाता था। उनके पिता भी मनु बाई की सुंदरता की वजह से उन्हें छबीली कहकर बुलाते थे। बाजीराव के पुत्रों के साथ मनु खेल-कूद मनोरंजन करती थी और वे भाई-बहन की तरह रहते थे। वे तीनों साथ में खेलते थेऔर साथ में पढ़ाई-लिखाई भी करते थी। इसके साथ ही मनु बाई निशानेबाजी, घुड़सवारी, आत्मरक्षा, घेराबंदी की शिक्षा भी लेती थी। इसके बाद शस्त्रविद्याओं में निपुण होती चली गईं साथ एक अच्छी घुड़सवार भी बन गई। आपको बता दें कि बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र चलाना और घुड़सवारी करना लक्ष्मी बाई के दो प्रिय खेल थे।

रानी लक्ष्मी बाई की शिक्षा

बाजारीव के पुत्रों के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई की। आपको बता दें कि बाजीराव के पुत्रों को पढ़ाने एक शिक्षक आते थे मनु भी उनके पुत्रों के साथ उसी शिक्षक से पढ़ती थीं।

नाना साहब की लक्ष्मी बाई को चुनौती

रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी के किस्से बचपन से ही थी। जी हां वे बड़ी से बड़ी चुनौतियां का भी बड़ी समझदारी और होशयारी से सामना कर लेती हैं। ऐसे ही एक बार जब वे घुड़सवारी कर रही थी तब नाना साहब ने मनु बाई से कहा कि अगर हिम्मत है तो मेरे घोड़े से आगे निकल कर दिखाओ फिर क्या था मनु बाई ने नानासाहब की ये चुनौती मुस्कराते हुए स्वीकार कर ली और नानासाहब के साथ घुड़सवारी के लिए तैयार हो गई। जहां नानासाहब का घोड़ा तेज गति से भाग रहा था वहीं लक्ष्मी बाई के घोड़ा भी उसे पीछे नहीं रहा, इस दौरान नानासाहब ने लक्ष्मी बाई के आगे निकलने की कोशिश की लेकिन वे असफल रहे और इस रेस में वे घोड़े से नीचे गिर गए इस दौरान नाना साहब की चीख निकल पड़ीमनु मै मराजिसके बाद मनु ने अपने घोड़े को पीछे मोड़ लिया और नाना साहब को अपने घोड़े में बिठाकर अपने घर की तरफ चल पड़ी। इसके बाद सिर्फ नानासाहब ने मनु को शाबासी दी बल्कि उनकी घुड़सवारी की भी तारीफ की

इसके बाद नानासाहब और रावसाहब ने मनु बाई की प्रतिभा को देख उन्हें शस्त्र विद्या भी सिखाई।मनु ने नानासाहब से तलवार चलाना, भाला-बरछा फैकना और बंदूक से निशाना लगाना सीख लिया। इसके अलावा मनु व्यायामों में भी प्रयोग करती थी वहीं कुश्ती और मलखंभ उनके प्रिय व्यायाम थे।

रानी लक्ष्मी बाई का विवाह

रानी लक्ष्मी बाई की शादी महज 14 साल की उम्र में उत्तर भारत में स्थित झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवालकर – के साथ हो गया। इस तरह काशी की मनु अब झांसी की रानी बन गईं। आपको बता दें कि शादी के बाद उनका नाम लक्ष्मी बाई रखा गया था। उनका वैवाहिक जीवन सुख से बीत रहा था इस दौरान 1851 में उन दोनों को पुत्र को प्राप्ति हुई जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। परंतु उनके पुत्र मात्र 4 महीने तक ही जीवित रहा।महाराजा गंगाधर राव नेवलकर के पुत्र की जब मृत्यु हुई थी, तो वह अपने पुत्र की इस असामयिक मृत्यु से बहुत ही दुखी रहने लगे थे और इस दुख से वे कभी उभर सके। इसी दुख के कारण वह 1853 में बहुत ही बीमार रहने लगे। लक्ष्मीबाई ने अपने पति की ऐसी हालत देख उन्हें इस दुख से उबरने के लिए अपने एक रिश्तेदार के पुत्र को गोद ले लिया और इस पुत्र को गोद लेने के पश्चात उस पुत्र के उत्तराधिकारी पर ब्रिटिश सरकार को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि इस गोद लेने की प्रक्रिया को ब्रिटिश अफसरों की उपस्थिति में पूर्ण किया गया था, ताकि वह किसी भी प्रकार का आपत्ति जता सके। महारानी लक्ष्मीबाई और उनके पति के द्वारा इस पुत्र का नाम आनंद राव रखा गया। रानी लक्ष्मी बाई के दूसरे पुत्र आनंद राव के नाम को बदलकर के दामोदर राव रख दिया गया।  21  नवम्बरसन  1853  में  महाराज  गंगाधर  राव  नेवलेकर  की  मृत्यु  हो  गयीउस समय रानी कीआयु मात्र 18वर्ष थीपरन्तु  रानी  ने  अपना  धैर्य  और  सहस  नहीं  खोया  और  बालक  दामोदर की  आयु  कम  होने  के  करण  राज्यकाज  का  उत्तरदायित्व  महारानी  लक्ष्मीबाई  ने  स्वयं  पर  ले   लिया. उस  समय  लार्ड  डलहौजी  गवर्नर  था.

संघर्ष और शौर्य

रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझते हुए राज्य के सभी लोगों से घुलना मिलना प्रारंभ कर दिया विशेष रूप से स्त्रीयों से मित्रता कर अपने विचारों के अनुकूल सुन्दर गुन्दर, जूड़ी, झलकारी, काशीबाई, मोतीबाई नाम की सहेलियों झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई की महिला सेना दल का नाम दुर्गा बल थाभारत में ब्रिटिश राज के विरुद्ध झांसी की रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित महिला सेना थी, जिसको रानी ने हिंदु देवी दुर्गा के नाम पर दुर्गा दल नाम दिया था. इसका नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई ने किया था जहाँ हिंसा भड़क उठी. रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया. साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया. झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया. 7  मार्च, 1854को  ब्रिटिश  सरकार  ने  एक  सरकारी  गजट  जारी  किया,जिसके अनुसार झाँसी को  ब्रिटिश  साम्राज्य  में  मिलने  का  आदेश  दिया  गया  था.  रानी  लक्ष्मीबाई  को  ब्रिटिश  अफसर  एलिस  द्वारा  यह  आदेश  मिलने  पर उन्होंने  इसे  मानने  से  इंकार  कर  दिया  और  कहा  ‘ मेरी  झाँसी  नहीं  दूंगी’और  अब  झाँसी  विद्रोह  का  केन्द्रीय 

बिंदुबन  गया.रानी  लक्ष्मीबाई  ने  कुछ  अन्य  राज्यों  की  मदद  से  एक  सेना  तैयार  की,  जिसमे  केवल  पुरुष  ही 

नहीं,  अपितु  महिलाएं  भी  शामिल  थी;  जिन्हें  युध्द  में  लड़ने  के  लिए  प्रशिक्षण  दिया  गया  था. उनकी सेना में       अनेक महारथी भी थे, जैसे: गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुन्दरमुन्दर, लाला  भाऊ  बक्शी,  दीवानरघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, आदि. उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे. 10मई,  1857  को  मेरठ  में  भारतीय  विद्रोह  प्रारंभ  हुआ,  जिसका  कारण  था  कि  जो  बंदूकों  की   नयी  गोलियाँथी,  उस  पर  सूअर  और  गौमांस  की  परत  चढ़ी  थी.  इससे  हिन्दुओं  की  धार्मिक  भावनाओं  पर  ठेस  लगी  थी और  इस  कारण  यह  विद्रोह  देश  भर   में  फ़ैल  गया  था इस  विद्रोह को दबाना  ब्रिटिश  सरकार  के  लिए ज्यादा जरुरी था,अतः उन्होंने  झाँसी  को फ़िलहाल  रानी  लक्ष्मीबाई के  अधीन  छोड़ने  का  निर्णय  लियाइस  दौरान  सितम्बरअक्टूबर, 1857  में  रानी  लक्ष्मीबाई  को  अपने  पड़ोसी  देशो  ओरछा  और  दतिया  के  राजाओ  के  साथ  युध्द  करना  पड़ा  क्योकिं  उन्होंने  झाँसी  पर  चढ़ाई  कर  दी  थी.इसके  कुछ  समय  बाद  मार्च, 1858  में  अंग्रेजों  ने सर  ह्यू  रोज  के  नेतृत्व  में झाँसी  पर  हमला  कर  दिया  और  तब  झाँसी  की  ओर  से  तात्या  टोपे  के  नेतृत्व  में  20,000 सैनिकों  के साथ  यह  लड़ाई  लड़ी  गयी,  जो  लगभग  2  सप्ताह  तक  चली. अंग्रेजी  सेना  किले  की  दीवारों  को  तोड़ने  में  सफल  रही   और  नगर  पर  कब्ज़ा  कर  लिया.  इस  समय  अंग्रेज  सरकार  झाँसी  को  हथियाने  में  कामयाब  रही  और  अंग्रेजी  सैनिकों  नगर  में  लूट पाट  भी  शुरू  कर  दी. फिर  भी  रानी  लक्ष्मीबाई   किसी  प्रकार  अपने  पुत्र  दामोदर  राव  को  बचाने  में  सफल  रही.

काल्पी  की  लड़ाई

इस  युध्द  में  हार  जाने  के  कारण  उन्होंने   सतत  24  घंटों  में  102  मील  का  सफ़र  तय  किया  और अपने  दल  के  साथ  काल्पी  पहुंची  और  कुछ  समय  कालपी  में  शरण  ली,जहाँ  वे  ‘तात्या  टोपे’  के  साथ  थी.  तबवहाँ  के  पेशवा  ने  परिस्थिति  को  समझ  कर  उन्हें  शरण  दी  और  अपना  सैन्य  बल  भी   प्रदान  किया.

22 मई, 1858 को  सर  ह्यू  रोज  ने  काल्पी  पर आक्रमण  कर दिया,  तब  रानी  लक्ष्मीबाई  ने  वीरता  और  रणनीतिपूर्वक  उन्हें  परास्त  किया  और  अंग्रेजो  को  पीछे  हटना  पड़ा.  कुछ  समय  पश्चात्  सर  ह्यू  रोज  ने  काल्पी  पर  फिर  से  हमला  किया  और  इस  बार  रानी  को  हार  का  सामना  करना  पड़ा. युद्ध  में हारने  के  पश्चात् राव साहेब  पेशवा, बन्दा  के नवाब, तात्या  टोपे, रानी  लक्ष्मीबाई  और अन्य  मुख्य  योध्दा  गोपालपुर   में  एकत्र  हुए.  रानी  ने  ग्वालियर पर अधिकार  प्राप्त  करने  का  सुझाव  दिया  ताकि  वे  अपने  लक्ष्य  में  सफल  हो  सके  और  वहीरानी  लक्ष्मीबाई  और  तात्या  टोपे  ने  इस  प्रकार गठित  एक  विद्रोही  सेना  के  साथ  मिलकर  ग्वालियर  पर  चढ़ाई  कर  दी.  वहाँ  इन्होने  ग्वालियर  के  महाराजा  को  परास्त  किया  और  रणनीतिक  तरीके  से  ग्वालियर  के  किले पर जीत  हासिल  की  और  ग्वालियर  का  राज्य  पेशवा  को  सौप  दिया.

रानी लक्ष्मी बाई मृत्यु

17जून,1858 में  किंग्स  रॉयल  आयरिश  के  खिलाफ  युध्द  लड़ते  समय  उन्होंने  ग्वालियर  के  पूर्व  क्षेत्र   का  मोर्चा  संभाला.  इस  युध्द  में  उनकी  सेविकाए  तक  शामिल  थी  और  पुरुषो  की  पोषक धारण  करने  के  साथ  ही  उतनीहवीरता  से  युध्द  भी  कर  रही  थी.  इस  युध्द  के  दौरान  वे  अपने  ‘राजरतन’  नामक  घोड़े  पर सवार  नहीं  थी औरयहघोड़ानया  था,  जो  नहर  के  उस  पार  नही  कूद  पा  रहा  था,  रानी  इस  स्थिति  को  समझ   गयी  और  वीरता  के  साथ  वही  युध्द  करती  रही. इस  समय वे  बुरी तरह  से  घायल  हो चुकी  थी और  वे  घोड़े  पर  से  गिर पड़ी. चूँकि   वे  पुरुष  पोषक  में  थी,  अतः  उन्हें  अंग्रेजी  सैनिक  पहचान  नही  पाए  और  उन्हें  छोड़  दिया. तब  रानी  के  विश्वास  पात्र  सैनिक  उन्हें  पास  के  गंगादास  मठ  में  ले  गये  और  उन्हें  गंगाजल  दिया.  तब  उन्होंने  अपनअंतिम  इच्छा  बताई  की  “कोई  भी  अंग्रेज  अफसर  उनकी  मृत  देह  को  हाथ    लगाए.  इस  प्रकार  कोटाकी  सराई  के   पास  ग्वालियर  के  फूलबाग  क्षेत्र  में  उन्हें  वीरगति  प्राप्त  हुई  अर्थात्  वे  मृत्यु  को  प्राप्त  हुई.ब्रिटिश  सरकार  ने 3 दिन  बाद  ग्वालियर  को  हथिया  लिया. उनकी  मृत्यु  के  पश्चात्  उनके  पिता  मोरोपंत  ताम्बे  को  गिरफ्तार  कर  लिया  गयाऔर फांसी की  सजा  दी गयी.रानी लक्ष्मीबाई  के दत्तक  पुत्र  दामोदर राव  को  ब्रिटिश राज्य  द्वारा  पेंशन  दी  गयी  और  उन्हें  उनका  उत्तराधिकार  कभी  नहीं  मिला.  बाद  में  राव  इंदौर  शहर  में  बस  गये  और  उन्होंने  अपने  जीवन  का  बहुत  समय  अंग्रेज  सरकार  को मनाने  एवं  अपने  अधिकारों  को  पुनः  प्राप्त  करने  के  प्रयासों  में  व्यतीत  किया.  उनकी  मृत्यु  28 मई,  1906  को  58  वर्ष  में  हो  गयी.इस  प्रकार  देश  को  स्वतंत्रता  दिलाने  के  लिए  उन्होंने  अपनी  जान  तक  न्यौछावर  कर  दी.

रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी

 

 
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