भारतीय सिनेमा में पहली बोलती फिल्म का श्रेय आलमआरा फिल्म को जाता है। यह 14 मार्च, 1931 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म के निर्माता थे इंपीरियल फिल्म कंपनी के मालिक आर्देशिर ईरानी। इस पहली बोलती फिल्म के नायक थे मास्टर विट्ठल और नायिका थीं जुबैदा। इसमें पृथ्वीराज कपूर, जिल्लो और अंधे फकीर की भूमिका में डबल्यू.एम. खान भी थे, जिन पर फिल्म इतिहास का पहला गाना- दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, ताकत है अगर देने की-भी फिल्माया गया था।
1885 को पुणे में जन्मे आर्देशिर ईरानी ने मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से शिक्षा ग्रहण की थी और कुछ दिन वहां पढ़ाया भी था। बाद में अपने पिता की फोटोग्राफी और संगीत यंत्रों की दुकान संभालने लगे थे। फोटोग्राफी की दुकान के चलते ही उनका रुझान फिल्मों की तरफ हुआ और शायद संगीत स्वरों ने उन्हें सवाक फिल्म बनाने की प्रेरणा भी दी। 1905 में वे विदेशी फिल्म कंपनी यूनिवर्सल के भारतीय एजेंट बने और अस्थाई सिनेमा हॉल (जो कि टेंट में लगा करते थे ) में विदेशी फिल्में मंगा कर दिखाने लगे। इधर, भारत में भी दादा साहब फाल्के के प्रयासों के बाद मूक फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया था। 1917 में आर्देशिर ईरानी ने अपने मित्र भोगीलाल दवे के साथ मिलकर जो कि न्यूयार्क से फिल्म फोटोग्राफी का कोर्स करके आए थे एक "स्टार फिल्म कंपनी" बनाई और इसके तहत वीर अभिमन्यु नाम की फिल्म बनाई। 1922 में बनी इस फिल्म को बनाने में उन्होंने उस समय इसके निर्माण में एक लाख रुपये खर्च किए थे।
इसके बाद आर्देशिर ईरानी ने नवल गांधी के साथ मिलकर मैजेस्टिक फिल्म कंपनी बनाई और उसके तहत कई ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया। इस कंपनी में रहते हुए उन्होंने वीर दुर्गादास और रजिया सुल्तान जैसी ऐतिहासिक फिल्में बनाईं। फिल्मों को बेहतर और उत्कृष्ट बनाने की धुन में वे लगातार नए-नए पार्टनर तलाशते रहते थे । 1925 में मैजेस्टिक कंपनी को छोड़कर कुछ नए लोगों के साथ उन्होंने रॉयल आर्ट स्टूडियो बनाया जिसके तहत मूलराज सोलंकी नामक ऐतिहासिक फिल्म बनाई।
आखिरकार 1926 में उन्होंने अब्दुल अली, युसूफ अली के साथ इंपीरियल फिल्म कंपनी बनाई जो भारतीय फिल्म निर्माण के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म कंपनी ने फिल्म उद्योग को सबसे ज्यादा सितारे दिए। उनमें बिलिमोरिया बंधु , पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान, याकूब, मुबारक आदि प्रमुख हैं। चालीस की उम्र तक आते-आते आर्देशिर ईरानी निर्माता, निर्देशक, वितरक और प्रदर्शक के रूप में एक बहुत बड़ी हस्ती बन चुके थे।
विदेशी कंपनी यूनिवर्सल के प्रतिनिधि होने के कारण वे इसी की तर्ज पर इंपीरियल फिल्म कंपनी को भी वैश्विक रूप प्रदान करना चाहते थे। उन्होंने हिंदुस्तानी, गुजराती, मराठी तमिल, तेलुगु ,मलयालम भाषा में तो रुचिकर फिल्में बनाई हीं बल्कि बर्मी, पश्तो और फारसी में भी फिल्मों का निर्माण किया। आलमआरा के सेट पर ही उन्होंने उसे समय तमिल में कालिदास फिल्म का निर्माण किया था। उनकी दूसरी सवाक फिल्म नूरजहां (1934) थी, जिसे हिंदी और अंग्रेजी भाषा में बनाया गया था । इसमें विमला, नायमपल्ली और मजहर खान ने काम किया था।
अंग्रेजी फिल्म बनाने के कारण अंग्रेज सरकार ने उनको खान बहादुर की पदवी प्रदान की थी। उन्होंने 1937 में भारत की पहली रंगीन फिल्म किसान कन्या का निर्माण कर एक और मील का पत्थर अपने जीवन में जोड़ा। हालांकि फिल्म से उनको बहुत घाटा हुआ और उन्होंने इसके बाद लगभग फिल्म बनाना बंद ही कर दिया। उनकी अंतिम फिल्म पुजारी 1945 में आई थी। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के 20 वर्ष के दौरान उन्होंने 158 फिल्मों का निर्माण किया। 1956 में भारतीय फिल्म उद्योग ने उनका सवाक फिल्मों के जनक के रूप में एक बड़ा सम्मान किया था। वह 1933 में इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर संगठन के प्रथम अध्यक्ष भी चुने गए थे और अपनी मृत्यु 14 अक्टूबर, 1969 तक उसके सदस्य भी बन रहे।
चलते-चलते
आलमआरा पहली ऐसी भारतीय फिल्म भी थी जिसकी इंडोर शूटिंग रात में आर्कलाइट की रोशनी में की गई थी। इतना ही नहीं आर्देशिर ईरानी ने अपनी एक मूक फिल्म माधुरी में आवाज डालकर दिखाने का प्रयोग भी किया था। यहां यह बात स्पष्ट करना जरूरी है कि आलमआरा पहली बोलती फिल्म न होकर पहली बोलती फीचर फिल्म थी।
अजय कुमार शर्मा
(लेखक, वरिष्ठ कला-साहित्य समीक्षक हैं।)