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“काम इतनी शांति से करो कि सफलता शोर मचा दे ”- अज्ञात

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करमा बाई के हाथ से खिचड़ी खाते थे भगवान

Date : 05-Apr-2024

करमा बाई जब 13 साल की थी तब कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के लिए पत्नी सहित पुष्कर जाते समय पिता जीवणराम ने उन्हें घर में भगवान के भोग की जिम्मेदारी सौंपी। कहा, भगवान को भोग लगाने के बाद ही वह खुद भोजन करें। उनके जाने के अगले दिन ही करमा बाई ने सुबह स्नान कर बाजरे का खीचड़ा बनाया। उसमें खूब घी डालकर उसने भगवान की मूर्ति के सामने रख दिया। वह बोली कि भगवान आपको जब भी भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के अन्य काम कर लेती हूं। इसके बाद वह काम में जुट गई और बीच-बीच में थाली देखने आने लगी। पर जब भगवान को खीचड़ा नहीं खाते पाया तो वह वह चिंता में पड़ गई। फिर खीचड़ी में घी व मीठा कम होना सोच उसने उसमें घी व गुड़ और मिला दिया। इस बार भगवान के सामने थाली रखकर वह भी वहीं बैठ गई। पर इस बार भी भगवान को भोजन ना करते देख उसकी चिंता और बढ़ गई। वह कहने लगी कि हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। मां-बापू पुष्कर नहाने गए हैं और आपको भोग लगाने की जिम्मेदारी मेरे पास ही है। आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन जब भगवान ने फिर भी भोग नहीं लगाया तो वह शिकायत करने लगी कि मां-बापू  जिमाते हैं तब तो आप भोग लगा लेते हो और आज मैं खिला रही हूं तो नहीं खा रहे हो। खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भी भूखी रखोगे क्या? मनुहार व शिकायत करते पूरा दिन बीत गया। आखिरकार शाम तक जब करमा बाई ने भी भोजन नहीं किया तो कन्हैया को प्रगट होना ही पड़ा। भगवान बोले, करमा तुम्हारे पर्दा नहीं करने की वजह से वे भोजन नहीं कर पाए। यह सुनकर करमा ने अपनी ओढ़नी की ओट कर श्रीकृष्ण को खिचड़ी का भोग लगाया। जिसके बाद भगवान ने पूरी खिचड़ी खाली। इसके बाद तो वह रोज भगवान को भोग लगाती और भगवान भी उसके हाथ का भोजन ग्रहण करते। जब पिता-माता ने वापस आकर गुड़, घी व अनाज में कमी पाई तो कारण पूछने पर सरल करमा बाई ने उन्हें सारी बात कह सुनाई। पर उन्हें उसकी बात का विश्वास नहीं हुआ। अगले दिन परीक्षा के लिए फिर करमा बाई से भोग लगवाया गया तो भक्त का मान रखने के लिए फिर भगवान खिचड़ी खाने आ गए। इसके बाद तो पूरे गांव में ये बात फैल गई और जल्द ही करमा बाई जगत में विख्यात हो गईं।

कर्माबाई जी संतो की सेवा किया करती थी। एक बार वैष्णव संत आचार्य उनके यहाँ पहुँचे। आचार्य को उनका अरीति से पाठ-पूजा करना ठीक न लगा। कर्माबाई जी बिना स्नान, व चौका-बर्तन करे ही खिचड़ी बना रही थी। जो आचार्य के लिए अपराध करने जैसा था। उन्होने बड़े दुखी मन से कर्माबाई को सारी पूजा कि शास्त्रीय विधियों का ज्ञान बताया कि भोजन पवित्रता से बनना चाहिए।
उनके मुख पर झूठन लगा देखकर पुजारी जी आश्चर्यचकित रह गए और उनसे पूछा- “प्रभु! आपके मुख पर ये खिचड़ी कैसे, कहिए आप कहाँ से खिचड़ी खा कर आए हैं?” भगवान के मुख पर खिचड़ी लगी देखकर, पुजारी जी चिंतित हो उठे और प्रार्थना करने लगे- “हे प्रभु! इस दृश्य को देखकर हमारी वाणी अवरुद्ध हो गयी है। हमसे कुछ कहा नहीं जाता। आज हमने यह नई बात देखी है कृपा प्रकट कीजिए।”
श्री जगन्नाथ जी बोले-“मेरी एक भक्त है कर्माबाई। मुझे वो अनन्य प्रिय हैं। वह नित प्रातःकाल खिचड़ी का भोग बड़े प्रेम से, बड़े भाव से मुझे अर्पण करती हैं। उसकी सच्ची भक्ति देखकर मैं नित उसके घर जाकर खिचड़ी पाता हूँ। परंतु एक संत वहाँ पहुँच गये और कर्माबाई को पूजा-पाठ की विधि बता आए। जबकि मेरी अनेक उपासना की विधियाँ हैं। इस रहस्य को जाने बिना जो उपासक की श्रद्धा को खंडित करता हैं; वह अन्याय करता है।”
एक दिन मंदिर मे पुजारियों ने एक आश्चर्यजनक घटना देखी। उन्होने देखा की श्री जगन्नाथ जी की आँखों मे अश्रु थे। उनके कोमल नेत्रों से अश्रु धारा प्रकट हो रही थी। पुजारी भयभित हो गए और करुणा भरे स्वर से प्रार्थना करने लगे- “प्रभो! क्या हमसे कोई भूल हुई है? क्या हमने कोई अपराध किया है? जो आज जगत के पालनहार व सुखदाता के सुंदर नेत्रों में से आँसू आ रहे हैं। प्रभो! हमे क्षमा कीजिए।”
 
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