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26 अप्रैल 1858 : सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी बाबू कुँअर सिंह का बलिदान

Date : 26-Apr-2024


भारतीय स्वाधीनता संग्राम में ऐसे असंख्य बलिदानी हुये जिन्होंने न अपने परिवार की चिंता की न आयु बाधा बनी । वे भारत की स्वाधीनता के लिये न्यौछावर हो गये । ऐसे ही बलिदानी थे बाबू कुँअर सिंह, जिन्होंने हाथ में बंदूक लेकर अस्सी वर्ष की आयु में क्राँति का मोर्चा संभाला ।

उनका जन्म 1777 को बिहार के शाहाबाद  जिला अंतर्गत जगदीशपुर गांव में हुआ था । शाहाबाद का पुराना नाम भोजपुर था । बाबू कुँअर सिंह भोजपुर बसाने वाले इतिहास प्रसिद्ध राजा भोज के ही वंशज माने जाते थे । लेकिन समय के साथ यह वंश परंपरा जगदीशपुर की एक जागीरदार के रूप में ही सोमट गया था । अंग्रेजी राज में इस परिवार ने समन्वय का मार्ग निकाला । अंग्रेजों से संबंध तो ठीक रखे लेकिन अपनी जागीर के अंतर्गत सामान्य जनों पर कोई अतिरिक्त कर न थोपे । कृषि एवं खनिज उत्पाद का एक निश्चित लाभांश संबंधित प्रजाजनों को मिले इसका सिद्धांत बनाकर ही वे अपनी जागीर का संचालन करते थे । इसलिए वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय और सम्मानित भी थे । 

समय के साथ 1857 की क्रान्ति आरंभ हुई । इस क्रांति का उद्घोष बंगाल की बैरकपुर छावनी से क्राँतिकारी सिपाही मंगल पाडेय ने कर दी थी । अंग्रेजों कुछ सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया और कुछ को अपमानित करके बर्खास्त कर दिया । छावनी में बर्खास्त किये गये सैनिकों में एक बड़ी संख्या भोजपुरी सैनिकों की थी । वे बर्खास्त और अपमानित होकर भोजपुर लौटे । इसकी प्रतिक्रिया स्थानीय नागरिकों में हुई । जगदीशपुर में सभा हुई और   अंग्रेजों से भारत को मुक्त करने का संकल्प लिया गया । सभी सैनिक और नागरिक एकत्र होकर बाबू कुँअर सिंह के पास आये और उनसे नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया । तब बाबू कुँअर सिंह की आयु अस्सी वर्ष थी फिर भी उन्होंने मातृभूमि की मुक्ति के संघर्ष का मार्ग चुन लिया । पूरे भारत में यह क्राँति मई माह में आरंभ हुई लेकिन जगदीशपुर में इसका उद्घोष अप्रैल 1857 में ही हो गया था । बाबू कुंवर सिंह के नेतृत्व में इन सैनिकों ने पहले कारागार से सभी बंदियों को मुक्त किया और अंग्रेजों के खजाने को अपने अधिकार में ले लिया । यह तिथि 27 अप्रैल 1857 थी । इसके बाद क्राँतिकारी सैनिक दानापुर सैन्य छावनी पहुंचे और दानापुर छावनी के भारतीय सैनिकों को अपने साथ लिया और भोजपुर, शाहाबाद, आरा आदि आसपास के सभी नगरों को अपने अधिकार में ले लिया ।

इस विजित क्षेत्र पर प्रशासन संचालन की व्यवस्था करके बाबू कुँअर सिंह के नेतृत्व में सैनिकों ने  बीबीगंज पर धावा बोला और अधिकार कर लिया । अंग्रेज समर्थक टुकड़ी ने या तो घुटने टेक दिये अथवा भाग गई। यह 2 अगस्त 1857 की तिथि थी । पर क्राँतिकारियों की यह स्वतंत्र सत्ता अधिक न चल सकी । सितम्बर माह में अंग्रेजी फौज ने पहले आरा पर हमला बोला फिर बीबीगंज पर । अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियारों से युक्त सैन्य टुकड़ी और तोखाना था । आरा और बीबीगंज में अंग्रेजों के भारी पड़ते ही क्राँतिकारी जगदीशपुर आ गये । अंग्रेजी फौज ने जगदीशपुर घेरा और गोलाबारी से  किले की दीवारें ध्वस्त कर दीं । एक भी व्यक्ति को जीवित न छोड़ा। महल और किला दोनों खंडहर हो गये । वीर कुंवर सिंह किसी प्रकार सुरक्षित निकल गये । वे पहले मध्यप्रदेश के रीवा आये । रीवा राज परिवार में उनकी रिश्तेदारी थी । रीवा में कुछ दिन रुककर बांदा गये फिर कालपी । यहाँ उनकी भेंट तात्या टोपे और नाना साहब पेशवा से हुई। 

बाबू कुँअर सिंह आगे चल रहे थे और अंग्रेज अधिकारी कॉलिन के नेतृत्व में एक सैन्य टुकड़ी निरंतर पीछा कर रही थी । नाना साहब पेशवा ने बाबू कुंवर सिंह की सुरक्षा में रामगढ़ के सैनिकों की एक टुकड़ी तैनात कर दी थी । इस टुकड़ी की सतर्कता से पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों का दाव न लग रहा था । कुँअर वीर सिंह बांदा, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर होकर बिहार लौटना चाहते थे ।  जब यह समूह गंगा पार करने के लिये नाव में बैठा तब पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों ने मौका देखकर गोली बारी शुरू कर दी । सुरक्षा टुकड़ी ने जबाबी गोली बारी तो की पर वे नाव में थे । बचाव असफल हो गया । अनेक क्राँतिकारी घायल हो गये । एक गोली वीर कुँअर सिंह को भी लगी यह गोली उनकी बांह में लगी थी । किसी तरह बचकर जंगल की ओर गये । बहुत रक्त बह गया था । बचने की संभावना बहुत कम रह गई थी । वे अपने जन्मस्थान पर ही शरीर छोड़ना चाहते थे । इसलिये जगदीशपुर की ओर चल दिये । वे 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर पहुंचे । अधिक रक्त बहने और घाव बढ़ने से जीवन नाम मात्र का रह गया था । जगदीशपुर में उपचार हुआ किन्तु व्यर्थ गया और 26 अप्रैल 1858 को क्रान्ति के इस महान नायक ने शरीर त्याग दिया । 

इतिहास की पुस्तकों में इस अस्सी वर्षीय वीर महानायक का विवरण बहुत कम है पर भोजपुर के लोक जीवन में इनके संघर्ष की चर्चा कहानियों के रूप में आज भी जीवन्त है ।

लेखक - रमेश शर्मा 

 
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