पृथ्वी जिसे हम धरती, वसुंधरा या भूमि जैसे अनेक नामों से पुकारते हैं, सदियों से हमारी माता के रूप में पूजनीय रही है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में स्पष्ट रूप से कहा गया है— "माताभूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः", अर्थात् “पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।” यह कथन केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के आत्मिक संबंध का प्रतीक है।
मां की तरह पृथ्वी निस्वार्थ रूप से अपने सभी बच्चों—मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग और समस्त जीवों—का पालन-पोषण करती है। वह खुद कष्ट सहकर भी अपनी संतान को संजोती है। वह हमें अपने से अलग नहीं मानती, क्योंकि हम उसी का हिस्सा हैं। भारतीय परंपरा में यह भाव और भी गहरा है—"ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्"—इस सृष्टि की हर वस्तु में ईश्वर का वास है, अतः यह सब हमारी निजी संपत्ति नहीं है।
भारत में यह विचार रहा है कि पृथ्वी केवल हमारे रहने की जगह नहीं है, बल्कि वह हमारे अस्तित्व की शक्ति है। हमारी सोच, भाषा और शरीर की बनावट भी धरती की देन है। हम मिट्टी के ही अंश हैं, और वही मिट्टी अपनी उर्वरा शक्ति से न केवल बीज को पौधा बनाती है, बल्कि अन्न, पुष्प, फल और औषधियों का सृजन करती है।
पृथ्वी का गर्भ भी अनमोल रत्नों से भरा है—जल, कोयला, धातुएँ, पेट्रोल, हीरे, मोती—क्या कुछ नहीं समाया है उसमें। कई खनिजों और तत्वों की हमें आज भी पूरी जानकारी नहीं है। इसलिए यह कहना कि पृथ्वी जड़ है, सरासर भूल है। हमें इसे एक जीवंत इकाई के रूप में देखना चाहिए, जिसका हम एक अंग मात्र हैं।
जलवायु परिवर्तन: पृथ्वी की चेतावनी
आज की सबसे गंभीर वैश्विक समस्याओं में से एक है—जलवायु परिवर्तन। ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने से प्रकृति का संतुलन डगमगा रहा है। हमने प्रकृति को 'संसाधन' मानकर उसका बेतहाशा दोहन किया है। पर्यावरणीय आपदाओं—बाढ़, तूफान, सूखा, लू—की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। हाल ही में दुबई जैसी जगह में भारी वर्षा और बाढ़ ने सबको चौंका दिया।
विकास की होड़ में हमने ‘टिकाऊ विकास’ की अवधारणा तो अपनाई, लेकिन उसे व्यवहार में उतारने में विफल रहे हैं। जैव विविधता का क्षरण हो रहा है, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अनियंत्रित होता जा रहा है, और इसका खामियाजा विकासशील देश ज्यादा भुगत रहे हैं। तापमान में अनुमानित 2.5 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि मानव जीवन को गंभीर संकट में डाल सकती है।
प्रौद्योगिकी और प्रकृति के द्वंद्व
तेजी से बढ़ती तकनीक ने एक ओर सुविधाएं दीं, तो दूसरी ओर प्रकृति की क्षमताओं को अवरुद्ध किया। खेती में रसायनों का उपयोग अब विष का रूप ले चुका है, जिससे कई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं। आणविक ऊर्जा हो या वनों की कटाई, हर जगह हम प्रकृति को केवल लेने की वस्तु समझते हैं—देने का भाव कहीं खो गया है।
हम भूल चुके हैं कि प्रकृति असीमित नहीं है। हम उसे निर्जीव समझ कर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसका शोषण करते हैं। यह सोच हमारे भीतर असंवेदनशीलता और हिंसा को जन्म देती है।
संतुलित विकास की आवश्यकता
पृथ्वी से हमें जो कुछ मिलता है, वह प्रसाद है, उपभोग की वस्तु नहीं। कुछ संसाधन पुनर्नवीकरणीय हैं, पर अधिकांश सीमित हैं। उन्हें समझदारी से उपयोग में लाना हमारी ज़िम्मेदारी है। आज की अंधी विकास की दौड़ में हमने कूड़े के पहाड़ खड़े कर दिए हैं। दिल्ली जैसे महानगर इसकी ज्वलंत मिसाल हैं, जहां कचरे का निस्तारण चुनौती बन गया है।
मातृभूमि: केवल भूगोल नहीं, संस्कृति है
मातृभूमि का अर्थ केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और आस्था का केंद्र है। "सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्..." जैसे मंत्र हमें त्याग और कर्तव्य की भावना से जोड़ते हैं। भारत भूमि को ‘पुण्यभूमि’ कहा गया है, जहां जन्म लेना देवताओं का स्वप्न रहा है।
धरती के साथ किसी भी तरह की हिंसा अस्वीकार्य है। उसे जननी माना गया है, और उसकी सेवा करना हमारा धर्म है। केवल भौतिक समृद्धि नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी ज़रूरी है। आज ज़रूरत है प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक रिश्ते को पहचानने की। अगर हम पृथ्वी का ख्याल रखेंगे, तो वह भी हमारा ध्यान रखेगी।
पृथ्वी हमारी मां है—वह हमारी रक्षा करती है, हमारा पोषण करती है। पर आज वह स्वयं संकट में है। हमें अपने आचरण पर पुनर्विचार करना होगा। विकास का अर्थ केवल भौतिक प्रगति नहीं, बल्कि संतुलन, संवेदना और सह-अस्तित्व है। अगर हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ भी धरती के वरदान का लाभ उठा सकें, तो हमें प्रकृति के साथ सहयोगी बनकर जीना सीखना होगा।