विश्व स्वास्थ्य संगठन हर वर्ष 07 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाता है। इसकी बुनियाद विश्व स्वास्थ्य संगठन के अस्तित्व में आते ही रख दी गई थी। 1948 में दुनिया भर के देशों ने लोगों के स्वास्थ्य, हर जरूरतमंद तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित करने और एक सुरक्षित दुनिया के निर्माण के लिए साझा सहमति के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना की। इसकी स्थापना के दो वर्षों बाद 1950 में पहला विश्व स्वास्थ्य दिवस 07 अप्रैल को मनाया गया। उसी समय से हर साल दुनिया भर के सदस्य देश विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाते हैं। जिसमें स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर लोगों में जागरूकता बढ़ाने संबंधी कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। हर साल एक नई थीम के साथ स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है।
महर्षि वाल्मिकी रचित रामायण हो या गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस, दोनों में बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, उत्तरकाण्ड नामकरण कर रामकथा के प्रसंगों को इन काण्डों में समाहित किया है, जिसमें सुंदरकाण्ड नामकरण की विशेषताओं का रहस्य विरले ही समझ पाते हैं। विशेषकर वे लोग जो नित्य प्रतिदिन सुंदरकाण्ड का पाठ करते है।
`रामायण जनमनोहरमादिकाव्यम' रामायण जन-जन को प्रिय है, यह आदिकाव्य है जिसके सभी पात्र ओर उनकी कथाएं सुंदर हैं इसलिए काण्ड का नाम सुंदरकाण्ड रखा गया। रामायण सबके मन में बसी होने से मनोहर है और सुंदरकाण्ड अत्यंत मनोहर ओर सर्वश्रेष्ठ है। इसे सर्वश्रेष्ठ बतलाते हुए कहा है-”सुंदरे सुंदरों रामरू सुंदरे सुंदरी कथा। सुंदरे सुंदरी सीता सुंदरे किन्न सुंदरम।”सुंदरकाण्ड में राम सुंदर है, सुंदर की कथाएँ सुंदर है, सुंदर में सीता सुंदरी है , सुंदर में क्या सुंदर नहीं है? सुंदर में राम की कथा नहीं है, भक्त हनुमान की कथा ओर सीता की व्यथा हृदय को द्रवित कर देती है, यही सुंदरतम है, प्रश्न उठता है फिर सुंदरे सुंदरों रामः क्यो कहा गया है? सुंदर काण्ड के दो प्रमुख ओर प्रधान चरित्र है सीता ओर हनुमान।
हनुमान तो भक्त है ओर सीता शक्ति है ओर राम शक्तिमान। श्रीराम सीता अभिन्न है उन्हे प्रथक करके नही देखा गया है, क्योकि सीता के हृदय में राम बसे है ओर ऐसा कोई पल नहीं आया जब सीता ने राम को विस्मृत किया हो तथा हनुमान ने भी जो भी पराक्रम दिखाये, कही आभास नही होने दिया की वे उनके द्वारा किए गए है, अहंकाररहित हनुमान ने जो भी दुर्गम, दुर्जेय वीरोचित कार्य किए उस सभी कार्य का श्रेय उन्होने अपने प्रभु श्रीराम को दिया है, यही सुंदर कथा है, जो सुंदरकाण्ड की शोभा बढ़ाती है।
रामायण के प्रत्येक काण्डों का नामकरण करते समय व्यक्तित्व, चरित्र, जीवन ओर स्थान विशेष प्रासंगिक रखे गए हैं। जहां हरेक व्यक्तित्व के चरित्र व गुणों के प्रगट होते ही उनके गुणों की सर्वाेत्तमता शिखर पर देखने को मिलती है। बालकाण्ड में राम के बचपन के बाल स्वरूप से ताड़का-सुबाहु वध, अहिल्या उद्धार, धनुष भंग कर सीता स्वयंवर का चित्रण है तो उत्तरकाण्ड में रावण वध का चरित्र के पश्चात को विस्तार रूप दिया गया है। अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड ओर किष्किंधा काण्ड में अयोध्या का उल्लेख, वन प्रदेशों का उल्लेख के आलवा किष्किंधा का उल्लेख है। राम और रावण के युद्ध को लंका काण्ड नाम दिया गया जबकि सुंदरकाण्ड इन सारे पहलुओं से पृथक है ओर यह नाम सर्वथा उच्चासन पर होने से अन्य किसी कथा या प्रसंग सुंदरकाण्ड के आसन पर आसीन नही हो सका है।
सुंदरकाण्ड में सभी के चरित्र है विशेषकर इसमें सीता ओर हनुमान की कथा सुंदर है। सीता शक्ति है ओर राम शक्तिमान है।शक्ति ओर शक्तिमान के अनन्य भक्त हनुमान है। शक्तिस्वरूप सीता का हृदय श्रीराम को नहीं छोड़ सकता है। राम के सौंदर्य को लेकर सीता त्रेलोक्य सुंदरी है अतएव राम ही सीता बनकर सुंदर हो रहे है। रामतापनीय उपनिषद में कहा गया है:-“यो वै श्रीरामचन्द्ररूस भगवान, या जानकी भुभूर्वः। स्वस्तस्ये वै नमो नमः।“श्रीराम साक्षात भगवान है ओर देवी जानकी रमा है। राम ही जानकी है, इसीलिए राम के सौंदर्य में ही राम मानस-सरो-भरालिका सौंदर्य है। सुदरकाण्ड में जिस कुंतलाकुल कपोलसुंदरी सीता के रूप गुण का विकास है, वह क्या जाग्रत क्या स्वप्न, सर्वदा श्रीराम के चरण कमलों में सब कुछ समर्पित है इसलिए कहा गया हैः-“”सुंदरे सुंदरों रामः।“” वाल्मिकी जी द्वारा रचित सुंदरकाण्ड में हनुमान के चरित्र को प्रधानता देते हुए उच्च शिखर पर रखा गया और हनुमान के समक्ष रावण की तुलना करते हुए रावण को अति तुच्छ मानकर कहा है-”न मे समा रावणकोटयोधमाः रामस्य दासोंहमपारविक्रमः।“ रावण जैसे करोड़ों अधम मेरी समता नहीं कर सकते। मैं श्रीराम का दास हूँ। अतः मेरे पराक्रम का कोई थाह नहीं पा सकता है। राम का दास होने के कारण मुझमें अपार विक्रम है।“
दास होने से जहां इतना शौर्य प्रस्फुटित हो उठता है, वहाँ भक्त का सौंदर्य भगवान का ही है। इसी से “सुंदरे सुंदरों रामः”कहा गया है।”सुंदरे सुंदरों रामः”का अर्थ तो यहा प्रगट हो गया किन्तु सुंदर में सभी सुंदर है इसका अभिप्राय समझने के लिए कथा के मूल में हनुमान ओर सीता के समस्त गुण विकास को समझना होगा तभी सुंदरकाण्ड के सुंदर होने का रस्वास्वादन प्राप्त हो सकेगा।
गोस्वामी तुलसीदास ने सुंदर काण्ड की पहली ही चैपाई की शुरुआत सुंदर वचनों से की है कि-“”जामवंत के वचन सुहाए, सुनि हुनुमंत हृदय अति भाए।“”वे हनुमान को अपने विस्मृत हो चुके पराक्रम की याद कराने के बाद उन्हे अपने बल का बखान करते है जो एक ऋषि के श्राप से वे भूल चुके थे। हनुमान जी को स्मरण आता है तो उसकी परीक्षा के लिए वहाँ एक पर्वत का प्रसंग गोस्वामी जी रखते है कि-“” सिंधु तीर एक भूधर सुंदर “” में सुंदर शब्द का पहली बार उल्लेख किया ओर हनुमान जी जैसे ही उस पर्वत पर पाँव रखकर कूदते है तो वह पर्वत पाताल में धस जाता है।
सुंदरकाण्ड में सुदर क्या है हनुमान का स्वरूप जो भीमाकर कर लिया है जो अगाध गगनाकार सागर को लांघने के लिए है। शत योजन सागर को पार करते समय देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने सुरसा को विघ्न बनाकर प्रस्तुत किया जो उन्होंने अपने बुद्धिबल से सुरसा की परीक्षा पास करने के लिए सुरसा के शरीर के आकार से दुगुना चौगुना रूप धरने के बाद उनके मुख से वापस आकर विदा मांगी।
मैनाक पर्वत समुद्र से आ जाना ओर हनुमान से कहना कि थक गए होंगे विश्राम कर ले ओर कुछ भोजन ग्रहण कर ले तब हनुमान द्वारा कहना कि राम काज किन्हे बिना मोहि कहां विश्राम। मैं राम के काम से जा रहा हूँ इस समय मुझे भोजन ओर विश्राम के लिए समय नहीं है। मुझे शीघ्र जाना है, हनुमान की बात सुनकर मैनाक पर्वत सागर में लौट जाता है। हनुमान सागर लांघते आगे बढ़ते हैं तभी एक निशाचर जो आकाश में उड़ने वाले पक्षियों जीव-जन्तुओं की परछाई सागर के जल में पड़ते ही उनकी परछाई पकड़ उन्हें खा जाती है वह राक्षसी हनुमान की परछाई पकड़ लेती है हनुमान जी तुरंत उसे मारकर समुद्र पार कर लंका पहुचते हैं। जिसपर तुलसीदास जी सुंदर शब्द का दूसरी बार प्रयोग कर लिखते है कि -“”कनककोट विचित्रा मनि कृत सुन्दरायतना घना”” अर्थात लंका का वह सोने का परकोटा रंग विरंगी मणियों से जड़ा है जिसके अतिसुंदर घर है।
लंका पहुचकर हनुमान जी द्वारा दक्षिण किनारे से त्रिकुट शिखर पर चढ़कर लंकापूरी को देखना, संध्याकाल मसक/मच्छर के समान सूक्ष्म शरीर धारण कर लंका में प्रवेश करते समय राक्षसीवेश धारण करने वाली लंकिनी को घूंसा मारकर रक्तरंजित करना तथा लंकिनी द्वारा हनुमान को लंका के विनाश के प्रसंग सुनकर शुभ संकेत देना सुंदर ही तो है जिसका विस्तार से पढ़ने के बाद सुंदरकाण्ड के अन्य प्रसंगो का सुंदरतम वर्णन से सभी आभिभूत होते है ओर हनुमान के द्वारा उनके मार्ग में बाधक बनी तीन स्त्रियों के साथ अपनाए गए व्यवहार उनकी बुद्धि का प्रमाण है जहा वे पहली स्त्री सुरसा के सामने विनय करते है, दूसरी स्त्री सिहिंका को यमलोक पहुचाते है ओर लंका को एक मुसठिका मारकर ठीक करते है।
सुंदरकाण्ड के कथा वर्णनों में माता सीता की खोज में हनुमान लंका के हर महल ओर घरों का अन्वेषण करते हैं। गोस्वामी जी लिखते है “ मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा, देखे जहं तहं अगनित जोधा। गयउ दसानन मंदिर माहीं, अति विचित्र कहि जात सो नाही। “”हनुमान ने हर घर जिन्हे मंदिर कहा गया है में सीता की तलाश की परंतु उन्हे असंख्य योद्धा दिखे। रावण के महल में भी देखा जो विचित्र बना हुआ था जहा भी सीता नही दिखी। तब हनुमान को एक सुंदर घर दिखा जिसमे रामनाम अंकित था तुलसी की पुजा होती थी तब उन्होने सोचा यहा निश्चरों के बीच कौन सज्जन पुरुष है “” लंका निसिचर निकर निवासा, इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा। मन महु तरक करें कपि लागा, तेही समय विभिसनु जागा। “” हनुमानजी ने ब्रम्हण का वेश धर कर विभीषण से मिले जहां से उन्हें सीता माता के अशोक वाटिका में होने कि जानकारी मिली ओर वे सीतामाता से मिलने के लिए अशोक वाटिका कि ओर चल दिये।
“एकवेन्णी कृशां दीनां मलिनाम्बरधारिणिम ।
भूमौ शयानां शौचंती रामरामेति भाषिनिम॥ “
हनुमान जी ने अशोकवाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी पर माता जानकी को देखा,मानो कोई देवांगना एक वेणी धारण किए हुये है ओर उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो, आकृति दीन थी, वस्त्र मलिन थे ओर चिंतन कि मुद्रा में राम राम कि रट लगाए हुये थी। हनुमान जी ने जनकनंदिनी के दर्शन रात में किए तब बीस भुजा वाले नीलांजन राशि के समान रावण का सीता के पास आना ओर सीता के दर्शन कर अपनी कठोर ओर कटु वाणी बोलना ओर सीता का उत्तर प्रतिउत्तर सुनकर जानकी के वध के लिए रावण का खड़ग उठाना ओर मन्दोदरी द्वारा उसे रोका जाना, रावण का सीता को दो माह का समय देना तथा राक्षसीगण को सीता को भयभीत करने के आदेश के उपक्रम में सीता को उत्पीड़न करना ओर धमकी देना कि “”मास दिवस महूँ कहा न माना तो मैं मारिब काढ़ि कृपाना।“”त्रिज़टा का स्वप्नवृतांत सुनाकर राक्षसीवृंद को भयभीत ओर निंदित करना , सीता का रुदन करना ओर प्राणत्याग कि चेष्टा का भाव लाने पर हनुमान द्वारा अवसर जानकार सीता को रामवृतांत सुनाना ओर फिर राम द्वारा दी गई मुद्रिका/अंगूठी सीता को प्रदान कर उनका विश्वास अर्जित करने के लिए अंगूठी सीता जी से सामने डाल दी। “तब देखि मुद्रिका मनोहर, राम नाम अंकित अति सुंदर। “ सीताजी अंगूठी पहचान कर हर्ष ओर दुख के साथ व्याकुल हो गई तब हनुमान से वानरराज सुग्रीव से मित्रता कि बात बताकर वानरों के बल बुद्धि का बखान कर कर उनकी ताकत का भरोसा दिलाया जिसपर पर संतुष्ट होकर सीता ने उन्हे आशीर्वाद दिया-“आशीष दीन्ही रामप्रिय जाना होहु तात बल सील निधाना। अजर अमर गुन निधि सुत होहु। करहुं बहुत रघुनायक छोहु।“
सीता जी से अजय अमर होने का आशीर्वाद प्राप्त कर हनुमान जी ने उनसे कहा माँ मुझे भूख लगी है अगर आप कहें तो मैं अशोक वाटिका से कुछ फल खा लूँ-“लागि देखि सुंदर फल रूखा।“इसके बाद आज्ञा पाकर अशोक वाटिका में सुंदर फलों का आहार कर वाटिका उजाड़ना, रावण के सेना ओर उसके बेटे अक्षयकुमार को मारना, फिर मेघनाथ द्वारा हारने कि स्थिति में हनुमान पर ब्रम्हपाश छोड़ना और हनुमान का उसमें बंधाना, रावण की सभा में जाना, रावण को उपदेश देना, रावण का क्रोधित होना, पूंछ में आग लगाना और उस आग से हनुमान द्वारा पूरी लंका का दहन करना, सागर में पूंछ में लगी आग बुझाकर वापस सीता के पास अशोक वाटिका में आना, उनसे चूड़ामणि लेकर सागर के पार आना, वानर साथियों से मिलना। मधुबन के फल खाना ओर उसे उजाड़ना, रामजी के पास सीता का संदेश सुनाना, राम द्वारा हनुमान को गले लगाना सुदरकाण्ड की ये सारी कथाएँ बड़ी ही सुंदरतम हैं।
हनुमान जन्मोत्सव हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण उत्सव है। हनुमान गुणवत्ता और जीवन शक्ति की छवि है। कहा जाता है कि हनुमान स्वेच्छा से किसी भी रूप को धारण करने की क्षमता रखते हैं, चट्टानों का उपयोग करते हैं, पहाड़ों को हिला सकते हैं, हवा में छलांग लगा सकते हैं,और उड़ान में गरुड़ के समान वेगवान हैं। वे सामाजिक मान्यताओं में अलौकिक शक्तियों के साथ दिव्यता प्रदान करने वाले और दुर्भावनापूर्ण आत्माओं को जीतने वाले के रूप में पूजनीय हैं। जहां एक ओर हनुमान जन्मोत्सव के दिन हनुमान जी की विधिवत पूजा की जाती है तो वहीं एक धार्मिक मत यह कहता है कि हनुमान जन्मोत्सव मनाने से हनुमान जी का अपमान होता है।
जयंती और जन्मोत्सव का क्या अर्थ है?
जयंती और जन्मोत्सव का अर्थ भले ही जन्मदिन से होता है। लेकिन जयंती का प्रयोग ऐसे व्यक्ति के लिए किया जाता है, जो संसार में जीवित नहीं है और किसी विशेष तिथि में उसका जन्मदिन है। लेकिन जब बात हो भगवान हनुमान की तो इन्हें कलयुग संसार का जीवित या जागृत देवता माना गया है |
इसी अंतर को सरल शब्दों में समझाएं तो जयंती उनकी मनाई जाती है जो इस पृथ्वी पर आए और फिर शरीर त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हो गए। वहीं, जन्मदिन उनका मनाया जाता है जो पृथ्वी पर जन्में और अभी भी जीवित हैं। यह सामान्य रूप से आपके और हमारे घरों में मनाया जाने वाला पर्व है तो हम अपने या अपने बच्चों की खुशी में मनाते हैं।
अब आती है बारी जन्मोत्सव की, तो बता दें कि जन्मोत्सव उनका मनाया जाता है जो अवतरित हुए और अपने अवतरण का कार्य पूर्ण कर अपने धाम लौट गए लेकिन इनका पृथ्वी पर आना और पृथ्वी से जाना दोनों ही ईश्वरीय घटना हो। इसी कारण से श्री कृष्ण के जन्म दिवस को जन्माष्टमी और राम जी के जन्म दिवस को राम नवमी के रूप में जाना जाता है नाकि जयंती के तौर पर क्योंकि यह दोनों भगवान विष्णु के अवतार हैं। ठीक इसी प्रकार हनुमान जी भी भगवान शिव के 11वें अवतार माने जाते हैं। साथ ही, वह अजर और अमर हैं। उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हनुमान जी आज भी पृथ्वी पर मौजूद हैं। एस एमें ईश्वर तत्व होने और आज भी पृथ्वी पर वास करने के कारण उनका जन्मोत्सव मनाया जाना चाहिए न कि जयंती।
हनुमान जन्मोत्सव क्यों मनाई जाती है-
भगवान श्री हनुमान को भक्ति प्रेम के लिए भी जाना जाता है भगवान राम के प्रति हनुमान की भक्ति तो सर्वविदित है।
हनुमान जी को इनके अथाह बल और साहसिक कार्यों के लिए जाना जाता है, कहते है कि उनकी भुजाओं में असीमित बल था परंतु इतने शक्तिशाली होने के बाद भी वह बेहद ही शांत स्वभाव के थे। इनकी विचारधारा के मूल में केवल भक्ति, इमानदारी, और सच्चाई ही है।
श्री हनुमान को संकट मोचन भी कहा जाता है जिसका अर्थ यह है कि वह अपने भक्तों के सभी संकट, कष्ट को दूर कर देते हैं। वे अपने भक्तों को शक्ति और साहस का आशी्वाद देते है।
श्री बजरंग बलि की पूजा से भक्तों को आध्यात्मिक तौर पर शक्ति प्राप्त होती है जिनसे वे कठिन समय में भी खुद को शांत रखकर उस कठिन समय को पार कर लेते है। वैसे तो इनके भक्तों का जीवन सुख भरा ही होता है, और हनुमान जयंती का यह दिन भक्तों को आध्यात्मिक तौर पर अपने ईष्ट से जुड़ने का मौका देता है, इस दिन भक्त अपने सुखी जीवन व सभी बाधाओं से मुक्त रहने की कामना करते है।
हनुमान जी के 12 नाम -
1. हनुमान
2. वायुपुत्र
3. महाबल
4. रामेष्ट
5. अंजनीसुत
6. उदधिक्रमण
7. सीताशोकविनाशन
8. लक्षमणप्राणदाता
9. दशग्रीवदर्पहा
10. फाल्गुनसखा
11. पिंगाक्ष
12. अमितविक्रम
एक अर्थव्यवस्था की लगभग हर गतिविधि की बुनियाद तैयार करने वाली एक राह के रूप में डिजिटलीकरण की अनिवार्य जरूरत को व्यापक तौर पर स्वीकार किया गया है। इंटरनेट का बढ़ता प्रसार, किफायती डेटा, तकनीकी नवाचार और इन सबसे भी बढ़कर, डिजिटल बुनियादी ढांचे के निर्माण पर सरकार का जोर सेवाओं की त्वरित आपूर्ति, बेहतर पहुंच और जवाबदेही में सुधार सुनिश्चित कर रहा है।
डिजिटल बदलावों का असर
वर्ष 2014-2019 की अवधि के दौरान, भारत की मुख्य डिजिटल अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी सकल मूल्य संवर्धन के 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई। इसी अवधि के दौरान समग्र अर्थव्यवस्था की तुलना में डिजिटल अर्थव्यवस्था 2.4 गुना तेजी से बढ़ी। हाल ही में प्रकाशित भारतीय रिजर्व बैंक के एक बुलेटिन के अनुसार, 2019 में कुल अर्थव्यवस्था में डिजिटल आधारित अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी लगभग 22 प्रतिशत थी।
सरकार का मुख्य जोर डिजिटल क्षेत्र से संबंधित सार्वजनिक बुनियादी ढांचा (डीपीआई) विकसित करने पर रहा है, जोकि
-अधिक सहभागी सेवा वितरण प्रणालियों के लिए डिजिटल घटकों की सार्वजनिक उपलब्धता सुनिश्चित करता है,
- बाजार की अगुवाई में होने वाले नवाचारों को प्रेरित करता है,
- सेवाओं के अधिक किफायती एवं त्वरित समावेशन को सुविधाजनक बनाता है, और
- अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शी प्रणालियों का विकास सुनिश्चित करके उपयोगकर्ता का भरोसा बढ़ाता है।
पहुंच, सामर्थ्य, कनेक्टिविटी और समावेशिता में सुधार लाने की दिशा में आगे बढ़ रहे डिजिटल इंडिया का व्यापक प्रभाव अब पूरे देश में दिखाई दे रहा है। डिजिटल बुनियादी ढांचे का एक प्रमुख घटक माना जाने वाला ‘आधार’ अपनी अनूठी विशिष्टता की वजह से इस देश के डिजिटल शासन का एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है। केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा प्रदान की जाने वाली लगभग 1700 कल्याणकारी व सुशासन से जुड़ी योजनाएं इसका प्रमाण हैं। इन योजनाओं का लाभ आधार का उपयोग करके हासिल किया जाता है। आधार के उपयोग ने बिना किसी गड़बड़ी के लक्षित लाभार्थियों तक विभिन्न योजनाओं का लाभ पहुंचना सुनिश्चित किया है। उदाहरण के लिए, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में कम्प्यूटरीकृत आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, 750 मिलियन पीडीएस लाभार्थियों के डेटा को आधार से जोड़ने के उपरांत लगभग 47 मिलियन फर्जी/नकली राशन कार्डों को हटाने और उचित मूल्य की दुकानों के स्वचालन के कारण अनाज प्राप्त करने की पात्रता नहीं रखने वाले लोगों के हाथों में पहुंचने के मामलों में उल्लेखनीय कमी आई है। इसके परिणामस्वरूप 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बचत हुई है। इसी तरह, रसोई गैस सब्सिडी योजना (पहल) में 8.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बचत और किसान सहायता योजना के तहत खुदरा विक्रेताओं को उर्वरक की बिक्री में 12 मिलियन मीट्रिक टन की कमी के परिणामस्वरूप 1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बचत हुई है।
डिजिटल सुविधाओं का प्रसार
देश में इस समय 1.17 बिलियन से अधिक मोबाइल टेलीकॉम उपभोक्ता, स्मार्ट-फोन का उपयोग करने वाले 600 मिलियन से अधिक लोग और 840 मिलियन इंटरनेट कनेक्शन हैं। वर्ष 2015 से 2021 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की सुविधा लेने के मामले में 200 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि शहरी क्षेत्रों में इसमें 158 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इंटरनेट के दायरे में शामिल होने वाले इन सभी गांवों को कम से कम 4जी मोबाइल सेवाओं से लैस किया गया है। इससे ग्रामीण और शहरी इलाकों के बीच के डिजिटल सुविधाओं के मामले में अंतर में और कमी आएगी। कम लागत वाले फीचर मोबाइल फोन को क्षमता की दृष्टि से और अधिक शक्तिशाली बनाने के प्रयास भी चल रहे हैं। इस प्रकार, डिजिटल अर्थव्यवस्था को और अधिक समावेशी बनाना संभव हो पाएगा।
हाल ही में शुरू की गई ‘डिजिटल इंडिया भाषिणी’ परियोजना क्षेत्रीय भाषाओं में इंटरनेट और डिजिटल सेवाओं तक पहुंच को आसान बनाने का प्रयास करती है। इस परियोजना में आवाज-आधारित पहुंच की सुविधा भी शामिल है। यह परियोजना भाषाओं की विविधता का ध्यान रखती है और इसका उद्देश्य उस भाषा में समाधान प्रदान करना है जिसमें लोग सहजता से जुड़ सकें।
औपचारिकीकरण को प्रेरित करने वाला डिजिटल समावेशन
डिजिटलीकरण अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय समावेशन, व्यापक औपचारिकीकरण, उन्नत दक्षता और बेहतर अवसरों के जरिए आर्थिक विकास को गति प्रदान करता है। इस प्रयास में सहायक भूमिका निभाने वाले कुछ सफल डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में आधार, यूपीआई, को-विन, डिजिलॉकर, दीक्षा आदि शामिल हैं। पैमाने के संदर्भ में अगर बात करें तो, देश की 94.5 प्रतिशत से अधिक आबादी के पास अब आधार उपलब्ध है और हर महीने 2.2 बिलियन से अधिक आधार संबंधित प्रमाणीकरण हो रहे हैं। इसी प्रकार, पिछले पांच वर्षों की अवधि में 75 गुना वृद्धि के साथ 5.5 बिलियन यूपीआई-आधारित भुगतान संबंधी लेनदेन हर महीने किए जाते हैं। कुल 1.1 अरब कोविन पंजीकरण हुए हैं। कुल 140 मिलियन लोगों ने डिजीलॉकर में अपने अकाउंट बनाए हैं और डिजिलॉकर रिपॉजिटरी में 5.6 बिलियन आधिकारिक डिजिटल दस्तावेज़ उपलब्ध हैं। ई-श्रम पोर्टल पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 286.5 मिलियन श्रमिकों का पंजीकरण हुआ है। पीएम-स्वनिधि पर 4.4 मिलियन स्ट्रीट वेंडर और उद्यम पोर्टल पर 12.7 मिलियन उद्यमों का पंजीकरण हुआ है। वर्ष 2017 से 2022 के दौरान जीएसटी भुगतान करने वालों की संख्या 7 मिलियन से बढ़कर 14 मिलियन हो गई है। ये सारे तथ्य इस बात के संकेत हैं कि चीजें किस तरह आकार ले रही हैं।
ओपन सोर्स और भागीदारी वाले डिजिटल नवाचार
भारत में, सरकार और निजी पक्षों द्वारा नवाचार के अनुकूल वातावरण बनाया जा रहा है। यह देश के भीतर डिजिटल क्षेत्र में नए- नए नवाचारों को प्रेरित कर रहा है। एआई/एमएल जैसे नए युग की प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, भारत ओपन-सोर्स वाली एआई परियोजनाओं के मामले में योगदान करने वाला एक अग्रणी देश है। उदाहरण के लिए, भारत से निकलने वाले एआई आधारित प्रकाशन 18 प्रतिशत दर से बढ़ रहे हैं। यह दर अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन की तुलना में कहीं अधिक तेज है। किसी भी अन्य जी-20 देश की तुलना में भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत कर्मी बेहतर एआई संबंधी कौशल से लैस हैं।
जहां तक सरकार का प्रश्न है, वह भी अपने खुद के कैप्टिव सैंडबॉक्स और टेस्ट-बेड की एक श्रृंखला के जरिए नए अनुप्रयोगों/उपयोग आधारित मामलों का डिजाइन तैयार करने और उनका परीक्षण करने हेतु उद्योग जगत के साथ सक्रिय रूप से सहयोग कर रही है। इंडियास्टैक ओपन पब्लिक प्लेटफॉर्म के लिए आईस्पिरिट की भूमिका, तेज डिजिटल भुगतान के लिए एनपीसीआई, ओपन डिजिटल कॉमर्स के लिए ओएनडीसी, यूआईडीएआई इकोसिस्टम में मौजूद विभिन्न उपयोगकर्ता प्रतिष्ठान पीपीपी मॉडल के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को गति दे रहे हैं।
भारत ने उन मानकों, प्रौद्योगिकियों और उपकरणों के यथासंभव उपयोग की अनिवार्यता को पहचान लिया है जो अनिवार्य रूप से ओपन-सोर्स वाले हैं। इस प्रकार वह वेंडर लॉक-इन एवं स्वामित्व वाले प्रौद्योगिकियों के उपयोग से जुड़ी उच्च लागत से बचता है। साथ ही, यह रणनीति किफायत को संभव बनाते हुए ओपन टूल के बूते तैयार किए गए विभिन्न उपायों के पारस्परिक संचालन और उनकी व्यापकता को भी प्रोत्साहित कर रही है।
‘अहिंसा परमो धर्म’ का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले भगवान महावीर का अहिंसा दर्शन आज सर्वाधिक प्रासंगिक और जरूरी प्रतीत होता है, मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत कोई भी अनुचित कार्य करने और अपने फायदे के लिए हिंसा के लिए भी तत्पर दिखाई देता है। प्रतिवर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाया जाता है। जैन धर्म के जानकारों के अनुसार भगवान महावीर का जन्म 599 ईसा पूर्व बिहार के कुंडलपुर के राजघराने में हुआ था। हिन्दू पंचांग के अनुसार इस साल चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी 03 अप्रैल की प्रातः 6ः24 बजे शुरू होगी, जिसका समापन 04 अप्रैल की प्रातः 8ः05 बजे होगा। ऐसे में महावीर जयंती 04 अप्रैल को है।
भगवान महावीर ने जीवन पर्यन्त अपने अमृत वचनों से समस्त मानव जाति को ऐसी अनुपम सौगात दी, जिन पर अमल करके मानव चाहे तो इस धरती को स्वर्ग बना सकता है। आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। भगवान महावीर कहा करते थे कि जिस जन्म में कोई भी जीव जैसा कर्म करेगा, भविष्य में उसे वैसा ही फल मिलेगा। वह कर्मानुसार ही देव, मनुष्य, नारक व पशु-पक्षी की योनि में भ्रमण करेगा। कर्म स्वयं प्रेरित होकर आत्मा को नहीं लगते बल्कि आत्मा कर्मों को आकृष्ट करती है। वह कहते थे कि रुग्णजनों की सेवा-सुश्रुषा करने का कार्य प्रभु की परिचर्या से भी बढ़कर है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश और अमृत वचन दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अमल में लाकर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
भगवान महावीर का कहना था कि जो मनुष्य स्वयं प्राणियों की हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वालों का समर्थन करता है, वह जगत में अपने लिए बैर बढ़ाता है। अहिंसा की तुलना संसार के सबसे महान व्रत से करते हुए उनका कहना था कि संसार के सभी प्राणी बराबर हैं, अतः हिंसा को त्यागिए और ‘जीओ व जीने दो’ का सिद्धांत अपनाइए। वे कहते थे कि संसार में प्रत्येक जीव अवध्य है, अतः आवश्यक बताकर की जाने वाली हिंसा भी हिंसा ही है और वह जीवन की कमजोरी है। उनके अनुसार छोटे-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी गई वस्तु स्वयं न लेना, विश्वासघाती असत्य न बोलना, यह आत्मा निग्रह सद्पुरुषों का धर्म है। जो लोग कष्ट में धैर्य को स्थिर नहीं रख पाते, वे अहिंसा की साधना नहीं कर सकते। अहिंसक व्यक्ति तो अपने से शत्रुता रखने वालों को भी अपना प्रिय मानता है।
उनका कहना था कि संसार में रहने वाले चल और स्थावर जीवों पर मन, वचन एवं शरीर से किसी भी तरह के दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भगवान महावीर के अनुसार किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का एकमात्र सार है और यही अहिंसा का विज्ञान है। जिस प्रकार अणु से छोटी कोई वस्तु नहीं और आकाश से बड़ा कोई पदार्थ नहीं, उसी प्रकार अहिंसा के समान संसार में कोई महान् व्रत नहीं। महावीर के शब्दों में कहें तो ज्ञानी होने का यही एक सार है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे और यही अहिंसा का विज्ञान है।
धर्म को लेकर भगवान महावीर का मत था कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है और अहिंसा, तप व संयम उसके प्रमुख लक्षण हैं। जिन व्यक्तियों का मन सदैव धर्म में रहता है, उन्हें देव भी नमस्कार करते हैं। अपने प्रवचनों में वह कहते थे कि ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद यदि कर्म श्रेष्ठ हैं तो वही व्यक्ति ब्राह्मण है किन्तु ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी यदि वह हिंसाजन्य कार्य करता है तो वह ब्राह्मण नहीं है जबकि नीच कुल में पैदा होने वाला व्यक्ति अगर सुआचरण, सुविचार एवं सुकृत्य करता है तो वह बाह्मण है।
आत्मा के बारे में भगवान महावीर का तर्क था कि आत्मा शरीर से भिन्न है, आत्मा चेतन है, आत्मा नित्य है, आत्मा अविनाशी है। उनका कहना था कि मानव और पशुओं के समान पेड़-पौधों, अग्नि, वायु में भी आत्मा वास करती है और पेड़ पौधों में भी मनुष्य के समान दुख अनुभव करने की शक्ति होती है। महावीर कहते थे कि क्रोध प्रेम का नाश करता है, मान विषय का, माया मित्रता का नाश करती है और लालच सभी गुणों का। जो व्यक्ति अपना कल्याण चाहता है, उसे पाप को बढ़ाने वाले इन चारों दोषों क्रोध, मान, माया और लालच का त्याग कर देना चाहिए।(लेखक -योगेश कुमार गोयल)
विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। भगवान शिव का यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में गंगा नदी के किनारे स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर को विश्वेश्वर नाम से भी जाना है। विश्वेश्वर शब्द का अर्थ होता है ‘ब्रह्मांड का शासक’। यह मंदिर पिछले कई हजार वर्षों से वाराणसी में स्थित है। मुगल शासकों द्वारा कई बार ध्वस्त किये गए काशी विश्वनाथ मंदिर हिंदू धर्म का प्रतीक और पावन मंदिरो में से एक माना जाता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर
माना जाता है कि काशी में महादेव साक्षात् रूप में वास करते है इसलिए इसे शिव की नगरी भी कहा जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर पवित्र नदी गंगा के पश्चिमी तट पर बना हुआ है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहाँ पर भगवान शिव वाम रूप में माँ भगवती के साथ विराजमान है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर के दर्शन और गंगा में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। काशी तीनों लोकों में सबसे सुंदर नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इसे आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र और काशी आदि नामों से स्मरण किया जाता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण
विश्वनाथ मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना माना जाता है। ये मंदिर गंगा नदी के पश्चिमी तट पर है. कहा जाता है कि इस मंदिर का दोबारा निर्माण 11 वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने करवाया था। 1194 ईसवी में मुहम्मद गौरी ने इसे ध्वस्त कर दिया था। परंतु मंदिर का पुन निर्माण करवाया गया लेकिन 1447 ईसवी में इसे एक बार फिर जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। इतिहास के पन्नों में झांकने पर यह ज्ञात होता है कि काशी मंदिर के निर्माण और तोड़ने की घटनाएं 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही।
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण है।
सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।
इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
विश्वनाथ मंदिर का आकार
विश्वनाथ मंदिर का प्रमुख शिवलिंग 60 सेंटीमीटर लंबा और 90 सेंटीमीटर की परिधि में है। मुख्य मंदिर के आसपास काल-भैरव, कार्तिकेय, विष्णु, गणेश, पार्वती और शनि के छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर में 3 सोने के गुंबद हैं, जिन्हें 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने लगवाया था। मंदिर-मस्जिद के बीच एक कुआं है, जिसे ज्ञानवापी कुआं कहा जाता है। ज्ञानवापी कुएं का जिक्र स्कंद पुराण में भी मिलता है। कहा जाता है कि मुगलों के आक्रमण के दौरान शिवलिंग को ज्ञानवापी कुएं में छिपा दिया गया था।
काशी विश्वनाथ मंदिर नगर से जुड़े रहस्य
.शिव के त्रिशुल पर बसी काशी
कहते हैं कि गंगा किनारे बसी काशी नगरी भगवान शिव के त्रिशुल की नोक पर बसी है जहां बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक काशी विश्वनाथ विराजमान हैं। पतित पावनी भागीरथी गंगा के तट पर धनुषाकारी बसी हुई यह काशी नगरी वास्तव में पाप-नाशिनी है। भगवान शंकर को यह गद्दी अत्यन्त प्रिय है इसीलिए उन्होंने इसे अपनी राजधानी एवं अपना नाम काशीनाथ रखा है।
. विष्णु की पुरी
पुराणों के अनुसार पहले यह भगवान विष्णु की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदु सरोवर बन गया और प्रभु यहां 'बिंधुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास स्थान बन गई। काशी में हिन्दुओं का पवित्र स्थान है 'काशी विश्वनाथ'। कहते हैं कि विष्णु ने अपने चिन्तन से यहां एक पुष्कर्णी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहां घोर तपस्या करते रहे।
.काशी के कोतवाल
भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। काशी विश्वनाथ में दर्शन से पहले भैरव के दर्शन करना होते हैं तभी दर्शन का महत्व माना जाता है। उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। मुख्यत: दो भैरवों की पूजा का प्रचलन है, एक काल भैरव और दूसरे बटुक भैरव।
काशी में मिलता है मोक्ष
ऐसी मान्यता है कि वाराणसी या काशी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं। इसीलिए अधिकतर लोग यहां काशी में अपने जीवन का अंतिम वक्त बीताने के लिए आते हैं और मृत्यु तक यहीं रहते हैं। इसके काशी में पर्याप्त व्यव्था की गई है। वाराणसी कई शताब्दियों से हिन्दू मोक्ष तीर्थस्थल माना जाता है। शास्त्र मतानुसार जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो मोक्ष हेतु मृतक की अस्थियां यहीं पर गंगा में विसर्जित की जाती हैं। यह शहर सप्तमोक्षदायिनी नगरी में एक है।
.भारत का सबसे प्राचीन शहर काशी
इजिप्ट (मिस्र), बगदाद, देहरान, मक्का, रोम, एथेंस, येरुशलम, बाइब्लोस, जेरिको, मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा, लोनान, मोसुल आदि नगरों की दुनिया के प्राचीन नगरों में गिनती की जाती है, लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार दुनिया का सबसे प्राचीन शहर वाराणसी है। दुनिया न भी माने, तो यह भारत का सबसे प्राचीन शहर है।
शहरों और नगरों में बसाहट के अब तक प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर एशिया का सबसे प्राचीन शहर वाराणसी को ही माना जाता है। इसमें लोगों के निवास के प्रमाण 3,000 साल से अधिक पुराने हैं। हालांकि कुछ विद्वान इसे करीब 5,000 साल पुराना मानते हैं, लेकिन हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख के अनुसार यह और भी पुराना शहर है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है। इसका उल्लेख उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।
.महात्मा और संतों की नगरी
भगवान बुद्ध ने बोध गया में ज्ञान प्राप्त कर यहीं पर अपना पहला प्रवचन दिया और जैनियों के तीन तीर्थंकरो का जन्म यहीं हुआ इसीलिए यह तीनों धर्मों के लिए पवित्र स्थल है। कबीर ने यहीं पर बैठकर अपने संदेश को दुनिया में फैलाया। तुलसीदास जी ने यहीं बैठकर रामचरित मानस की रचना की। इस तरह काशी कई महात्मा और संतों की पुण्य स्थली है।
भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आए। एक काल में यह हिन्दू धर्म का प्रमुख सत्संग और शास्त्रार्थ का स्थान बन गया था। संस्कृत पढ़ने के लिए प्राचीनकाल से ही लोग वाराणसी आया करते थे।
संगीत घरानों की नगरी
वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है। सन् 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुंचाई। मुगलकाल में इसका नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया।
उत्तरकाशी भी काशी
उत्तरकाशी को भी छोटा काशी कहा जाता है। ऋषिकेश उत्तरकाशी जिले का मुख्य स्थान है। उत्तरकाशी जिले का एक भाग बड़कोट एक समय पर गढ़वाल राज्य का हिस्सा था। बड़कोट आज उत्तरकाशी का काफी महत्वपूर्ण शहर है। उत्तरकाशी की भूमि सदियों से भारतीय साधु-संतों के लिए आध्यात्मिक अनुभूति की और तपस्या स्थली रही है। दुनियाभर से लोग यहां वैदिक भाषा सीखने के लिए आते रहे हैं। महाभारत के अनुसार उत्तरकाशी में ही एक महान साधु जड़ भारत ने यहां घोर तपस्या की थी। स्कंद पुराण के केदारखंड में उत्तरकाशी और भागीरथी, जाह्नवी व भीलगंगा के बारे में वर्णन है।
देश-दुनिया के इतिहास में 03 अप्रैल की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह ऐसी तारीख है जिसने भारतीय सेना को सैम मानेकशॉ के रूप में ऐसा फौलादी अफसर दिया, जिसने पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए। सैम का जन्म 03 अप्रैल, 1913 को अमृतसर में हुआ था। सैम के पिता डॉक्टर थे और सैम खुद भी डॉक्टर ही बनना चाहते थे। डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए वे इंग्लैंड जाना चाहते थे, पर पिता नहीं माने। इसके बाद उन्होंने पिता से नाराज होकर आर्मी भर्ती की परीक्षा दी। सैम ने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में जो कर दिखाया, उसे कोई भूल नहीं सकता। हालांकि इसके ठीक दो साल पहले चीन से मिली हार के बाद भारतीय सेना का मनोबल थोड़ा गिरा हुआ था, जनरल सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में इस युद्ध में भारतीय सेना ने जो कारनामा किया, वह इतिहास में दर्ज है। हुआ यह था कि इस साल 03 दिसंबर को पाकिस्तान की सेना ने भारत पर हमला कर दिया। भारत ने हमले का इतना करारा जवाब दिया कि 13 दिन में ही पाकिस्तान ती सेना ने हथियार डाल दिए। पाकिस्तान के 90 हजार से भी ज्यादा सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। कहा जाता है कि ये अकेला युद्ध था जिसमें एक साथ इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों ने हथियार डाले। युद्ध में पाकिस्तान को जान-माल के साथ ही जमीन से भी हाथ धोना पड़ा और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। भारतीय सेना की इस शौर्यगाथा का श्रेय सैम मानेकशॉ को जाता है। सैम मानेकशॉ को कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा गया। वह इस पद से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय जनरल थे। 1972 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया। 1973 में सेना प्रमुख के पद से रिटायर होने के बाद वे वेलिंगटन चले गए। वेलिंगटन में ही साल 2008 में उनकी मृत्यु हो गई।
हिन्दू राष्ट्र सम्प्रति चर्चा में है। भारत विश्व का पहला राष्ट्र है। यूरोप के देशों में ‘नेशन’ और नेशनेलिटी का जन्म 9वी-10वीं सदी में हुआ। भारत में राष्ट्रभाव का उदय ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन हो सकता है। ऋग्वेद में ‘राष्ट्र’ शब्द का कई बार उल्लेख हुआ है। राष्ट्र के लिए अंग्रेजी में कोई समानार्थी शब्द नहीं है। राष्ट्र की अवधारणा भिन्न है और नेशन की बिल्कुल भिन्न। राष्ट्र और नेशन एक नहीं हैं। इतिहास के मध्यकाल तक पश्चिम में नेशलिज्म या राष्ट्रवाद जैसा कोई विचार नहीं था।
ऋग्वेद (8.24.27) में मंत्र है कि “इन्द्र ने सप्तसिन्धुषु में जल प्रवाहित किया।” सप्त सिंधु 7 नदियों के प्रवाह वाला विशेष भूखण्ड है। इसकी पहचान 7 नदियों से होती है। वैदिक साहित्य के विवेचक मैक्डनल और कीथ ने लिखा है कि “यहां एक सुनिश्चित देश का नाम लिया गया है।” पुसाल्कर ने नदी नामों के आधार पर इस देश की रूपरेखा पर विचार किया है। इसमें अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, राजस्थान, पश्चिमोत्तर सीमांत, कश्मीर और सरयू तक का पूर्वी भारत सम्मिलित हैं। ऋग्वेद के ऋषियों के मन मस्तिष्क में तमाम नदियों वाले इस भूखण्ड के प्रति अतिरिक्त प्रीति थी। वे इसे बार-बार याद करते हैं। नदियों में जल प्रवाह हैं जल के बिना जीवन नहीं। वे एक अन्य मंत्र (1.32.12) में सात नदियों के जल प्रवाह का श्रेय इन्द्र को देते हैं। इन्द्र इन नदियों में जल प्रवाहित करते हैं तो सविता देव कैसे पीछे रह सकते हैं। ऋषि कहते हैं “सविता ने 7 नदियों को प्रकाश से भर दिया है।” (1.35.8)
सात नदियों की आराधना करने वाले इस भूखण्ड के निवासी सभी राष्ट्र है। मार्क्सवादी चिंतक डाॅ. रामविलास शर्मा ने सही लिखा है “जिस देश में ऋग्वेद की सात नदियां बहती हैं, वह लगभग वही देश है जिस में जल-प्रलय के बाद, भरत जन के विस्थापित होने के बाद, हड़प्पा सभ्यता का विकास हुआ। यह देश प्राचीन काल का, ऋग्वेद और हड़प्पा के पश्चात काल का भी, बहुत दिनों तक संसार का सबसे बड़ा राष्ट्र था। सरस्वती इसके जनपदों के पारस्परिक संपर्क का साधन थी। हड़प्पा नगरों की राष्ट्रीय एकता उनकी सामान्य वास्तुकला, मुद्राओं आदि की समानता से जानी जाती है। इस राष्ट्रीय एकता की नींव ऋग्वेद के कवियों ने डाली थी। इन कवियों के लिए राष्ट्र केवल भूमि नहीं है, उस पर बसने वाले जन राष्ट्र हैं।” (भारतीय नवजागरण और यूरोप पृष्ठ 87-88) भारत दुनिया का पहला राष्ट्र है। यह अनुभूति ऋग्वेद में है। दुनिया की अर्थशास्त्र की पहली पुस्तक कौटिल्य ने लिखी थी। इसकी तुलना मैक्यावलि की ‘प्रिंस‘ से की जाती है। दुनिया का पहला व्याकरण पाणिनि ने यहीं लिखा। गणित का अविष्कार भारत में हुआ। यह बात एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में है। संगीत के 7 सुरों की पहचान भारत में हुई। नाट्यशास्त्र पर पहली पुस्तक यहीं भरत मुनि ने लिखी। योग सूत्रों की खोज भी भरत में हुई। चिकित्सा विज्ञान का जन्म और विकास भारत में हुआ। ऋग्वेद में इसके साक्ष्य हैं। ऐसे सभी विषय हम सब को राष्ट्रीय गौरवबोध से भरते हैं।
कुछ विवेचक आर्थिक गतिविधियों व्यापार प्रसार आदि को राष्ट्रभाव के उदय का कारण मानते हैं। आर्थिक सम्बंधों के प्रभाव निस्संदेह सामूहिक जीवन पर भी पड़ते हैं लेकिन एक समान जीवन शैली, रीति प्रीति और संस्कृति के प्रभाव ज्यादा गहन होते हैं। ऋग्वेद के समाज में परस्पर प्रीति से गणों का विकास हुआ। जन और गण मिलकर ‘जनगणमन’ की एकता प्रकट हुई। यहां राष्ट्र का गठन और विकास जन गण के सामूहिक मन ने किया है। ऋग्वेद में ‘विश’ सामान्यजन हैं। वे अच्छे शासक की इच्छा करते हैं। शासक से कहते हैं, “सर्वाः विशः त्वा वांछनु - संपूर्ण समाज आपको चाहता है। (10.173.1) शासक का दायित्व है कि राष्ट्र को हर तरह से अविचल बनाए। इन्द्र, वरूण, अग्नि, वृहस्पति से स्तुति है कि वे राष्ट्र को स्थिर रूप में धारण करें। (10.173.5) हिन्दू भूमि के प्रति ऋग्वैदिक पूर्वजों की आत्मीयता है। इसी भूमि पर गण रहते हैं, गण से बड़े समूह जन रहते हैं। जन अनेक हैं लेकिन 5 जनों की प्रतिष्ठा है। नदियां इन्हें समृद्धि देती हैं। ऋग्वेद में स्तुति है कि ”सबके मन समान हों। समिति समान रहे। सबके मंत्र जीवन सूत्र भी समान हों।” यह अभिलाषा ऋग्वेद के अंतिम मंत्रों में प्रकट हुई है। भारतीय राष्ट्र प्राचीन संस्था है। यह भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी का एकात्म रूप है।
राष्ट्र असाधारण संस्था है। राष्ट्र गठन का मूल आधार दीर्घकालिक सांस्कृतिक निरंतरता है। ऋग्वेद में साथ साथ चलने, साथ साथ वार्तालाप करते हुए आनंदित रहने के संदेश हैं। संस्कृति में सामूहिकता है। साथ-साथ गति है। प्रीति रीति है। संस्कृति से मानव समूह की एकता सुदृढ़ होती है। सामूहिक प्रीति वाले समाज सृजन में भी रस लेते हैं। कृषि आवास आदि कारणों से मन में भूमि के प्रति लगाव पैदा होता है। भूमिजन और उदात्त संस्कृति के सुंदर मिलन से राष्ट्रभाव का जन्म और विकास होता है। हिन्दू राष्ट्रभाव का जन्म इसी दीर्घकालिक प्रक्रिया में हुआ। अथर्ववेद में बताते हैं कि वह विराट शक्ति थी। उसने ऊपर की ओर सोदक्रामत - अतिक्रमण या विकास किया। गृहस्थ बनीं।” (8.10) परिवार पहली संस्था है। आगे कहते हैं कि वह ‘आहवनीय’ हुई। परस्पर आवाहन से सामूहिकता का विकास हुआ। उसने इस स्थिति का भी अतिक्रमण -सोदक्रामत किया, वह सभा हो गई। (वही)”
सभा विचार विमर्श की प्राथमिक संस्था है। परिवार इसके पहले है। सभा के विचार-विमर्श वैदिक कालीन समाज गठन के मुख्य आधार हैं। ऋषि इस बात का ज्ञान जरूरी बताते हैं “जो यह बात जानते हैं, वे सभा के योग्य है - यन्तस्य सभां सभ्यों भवति। वे सभ्य हैं। सभा नाम की इस सामाजिक संस्था ने भी विकास किया। समिति का विकास हुआ। कहते हैं कि जो यह तथ्य तत्व जानते हैं, वे समित्य - सम्मानीय हैं। (वही 10 व 11) भारत में सामाजिक विकास यात्रा का आधार विचार विमर्श है। ऋग्वेद में इस विमर्श का प्राचीन इतिहास है। अथर्ववेद में विकास की अगली स्थिति के साथ सामाजिक विकास की निरंतरता है। सामाजिक विकास में विश्व अखण्ड इकाई नहीं है। यूरोप में सामाजिक विकास की एक मंजिल में घोर अंधकार था। मानवीय मूल्य नहीं थे। यूरोप में पुनर्जागरण हुआ। तब समाज और नेशन जैसी संस्थाओं के विकास की नींव पड़ी। भारत में इसके सहस्त्रों वर्ष पहले सभा, समिति, जन, गण, गण व्यवस्था व राष्ट्र जैसी संस्थाएं हैं।
ऋग्वेद में राष्ट्र है। यजुर्वेद में राष्ट्र की प्रतिष्ठा है। वैदिक ग्रंथों में राष्ट्र के साथ प्रजा द्वारा निर्वाचित, स्वीकृत राजा भी हैं। राजा प्रजा के प्रति उत्तरदायी शपथ से बंधा हुआ है। अथर्ववेद में राष्ट्र के जन्म का इतिहास है। अथर्ववेद (19.41) में कहते हैं कि ऋषियों ने लोककल्याण की कामना की थी - भद्रमिच्छन्तु ऋषयः।” ये ऋषि अथर्ववेद के रचनाकाल से प्राचीन है। ये ऋषि ऋग्वेद काल के हो सकते हैं। ऋषियों के चित्त में लोक कल्याण की भावना है। उन्होंने आत्मज्ञान का बोध पाया था। उन्होंने कठोर तप किया। दीक्षा का पालन किया।” दीक्षा ऋत, सत्य आदि आचार सूत्रों का ज्ञान है। (वही) बताते हैं कि ऋषियों के तप, दीक्षा और आत्मज्ञान से ‘राष्ट्र’ का जन्म हुआ - ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं अजायत। (लेखक-हृदयनारायण दीक्षित)
देश-दुनिया के इतिहास में 01 अप्रैल की तारीख तमाम अहम वजह से दर्ज है। यह तारीख मूर्ख दिवस के लिए प्रसिद्ध है। इसे दुनिया अप्रैल फूल दिवस भी कहती है। भारत में तो 1964 में अप्रैल फूल नाम से फिल्म तक बन चुकी है। इसका गाना अप्रैल फूल बनाया, उनको गुस्सा आया...आज भी पहली अप्रैल को खूब याद किया जाता है। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक अप्रैल फूल मनाने की शुरुआत 1582 में हुई।
इतिहासकार अप्रैल फूल को हिलेरिया (आनंद के लिए लैटिन शब्द) से भी जोड़ते हैं। इसे सिबेल समुदाय के लोग मार्च के अंत में प्राचीन रोम में मनाते थे। इसे इजिप्ट की प्राचीन कहानियों से भी जोड़ा जाता है। ब्रिटेन में अप्रैल फूल 18वीं सदी में पहुंचा। स्कॉटलैंड में यह दो दिन की परंपरा बना।
समय के साथ अप्रैल फूल मीडिया में भी पॉपुलर हो गया। 1957 में बीबीसी ने रिपोर्ट दी कि स्विस किसानों ने नूडल्स की फसल उगाई है। इस पर हजारों लोगों ने बीबीसी को फोन लगाकर किसानों और फसल के बारे में पूछताछ की थी। 1996 में फास्ट-फूड रेस्टोरेंट चेन टैको बेल ने यह कहकर लोगों को बेवकूफ बनाया कि उसने फिलाडेल्फिया की लिबर्टी बेल खरीद ली है गूगल भी पीछे नहीं रहा। गूगल टेलीपैथिक सर्च से लेकर गूगल मैप्स पर पैकमैन खेलने तक की घोषणा कर यूजर्स को बेवकूफ बना चुका है।
विश्वभर के लगभग सभी देशों में पहली अप्रैल का दिन ‘फूल्स डे’ अर्थात् ‘मूर्ख दिवस’ के रूप में ही मनाया जाता है। कोई छोटा हो या बड़ा, इस दिन हर किसी को जैसे हंसी-ठिठोली करने का बहाना मिल ही जाता है और हर कोई किसी न किसी को मूर्ख बनाने की चेष्टा करता नजर आता है। लोग एक-दूसरे को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए बिना ऐसी असत्य और मनगढंत कल्पनाओं को ही यथार्थ का रूप देकर, जिन पर कोई भी आसानी से विश्वास कर सके, एक-दूसरे को मूर्ख बनाने की चेष्टा करते हैं और अक्सर बहुत चतुर समझे जाने वाले व्यक्ति भी मूर्ख बन ही जाते हैं। शायद यही कारण है कि इस दिन चाहे कोई किसी का कितना ही विश्वासपात्र क्यों न हो, मस्तिष्क में यह बात विराजमान रहती है न कि कहीं यह हमें मूर्ख तो नहीं बना रहा! कई बार होता यह भी है कि लोग कोशिश तो करते हैं दूसरों को मूर्ख बनाने की लेकिन इस कोशिश में खुद ही मूर्ख बन जाते हैं और जब ऐसा होता है तो वाकई बड़ा मनोरंजक माहौल बन जाता है। कभी-कभी तो इस दिन सैंकड़ों-हजारों की संख्या में लोग एक साथ ‘मूर्ख’ बनते भी देखे गए हैं।
पहली अप्रैल को ‘मूर्ख दिवस’ के रूप में मनाए जाने का कारण यह माना जाता रहा है कि पुराने जमाने में चूंकि नए साल की शुरुआत 1 अप्रैल से ही होती थी, अतः लोग इस दिन को हंसी-खुशी गुजारना चाहते थे ताकि उनका पूरा साल हंसी-खुशी बीते। लोगों की इसी धारणा के चलते 1 अप्रैल को ‘हास्य दिवस’ के रूप में मनाने की परम्परा शुरू हुई थी लेकिन धीरे-धीरे लोगों का उत्साह इस दिवस के प्रति कम होने लगा तो कुछ लोगों ने इस दिन कृत्रिम हास्य के जरिये दूसरों को बेवकूफ बनाना शुरू कर दिया। लोगों को भी यह अंदाज इतना पसंद आया कि इस परम्परा ने धीरे-धीरे ‘मूर्ख दिवस’ का रूप ले लिया।
‘अप्रैल फूल’ बनाने की पश्चिमी देशों में शुरू हुई परम्परा भारतीय संस्कृति में कब और कैसे प्रवेश कर गई, यह पता भी न चला। भले ही इस परम्परा पर पाश्चात्य संस्कृति का रंग बहुत गहरा चढ़ा है पर यदि हम इस परम्परा में निहित उद्देश्यों को गहराई में जाकर देखें तो गौरवशाली भारतीय संस्कृति के आधार पर भी यह परम्परा गलत नहीं ठहराई जा सकती क्योंकि आज की भागदौड़ भरी अस्त-व्यस्त जिन्दगी में व्यक्ति के पास जहां चैन से सांस लेने के लिए दो पल की भी फुर्सत नहीं है, वहीं इस दिवस के बहाने साल में सिर्फ एक दिन ही सही, व्यक्ति को खिलखिलाकर हंसने का मौका तो मिलता है। संभवतः ‘मूर्ख दिवस’ मनाने की परम्परा की पृष्ठभूमि में व्यस्त जिंदगी में मानव मन को कुछ पल का सुकून प्रदान करने की प्रवृति ही समाई है लेकिन इसके साथ-साथ इस मौके पर इस बात का ध्यान रखा जाना भी अत्यंत आवश्यक है कि ‘मूर्ख दिवस’ सभ्य मजाक के जरिये किसी को कुछ समय के लिए मूर्ख बनाकर मनोरंजन करने का दिन है।
अप्रैल फूल के बहाने जानबूझकर किसी के साथ ऐसा कोई मजाक न करें, जिससे उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचे या उसका कोई अहित अथवा नुकसान हो। मूर्ख दिवस की आड़ में किसी से अपनी दुश्मनी निकालने या अपने अपने किसी अपमान का बदला लेने की चेष्टा भी नहीं होनी चाहिए। यदि आप विशुद्ध भावना से शुद्ध हास्य के जरिये इस दिन किसी को मूर्ख बनाने की कोशिश करते हैं तो सभवतः उस व्यक्ति को आपके मजाक का बुरा भी नहीं लगेगा। वैसे भी शुद्ध हास्य तनाव से मुक्ति प्रदान करने के साथ-साथ मन में आपसी प्रेम भाव तथा भाईचारे की भावना का संचार भी करता है और शुद्ध हास्य से सराबोर माहौल और भी खुशनुमा बन जाता है। ऐसे में मूर्ख दिवस मनाने की प्रासंगिकता आज के तनाव व घुटन भरे माहौल में बहुत बढ़ जाती है।
हमारे यहां गधे और उल्लू को हमेशा ‘मूर्ख’ की उपमा दी जाती रही है, इसलिए अपने दोस्तों, परिचितों अथवा संबंधियों को एक अप्रैल के दिन कुछ समय के लिए ही सही, मूर्ख बनाकर अपना व दूसरों का स्वस्थ मनोरंजन करने में कोई हर्ज नहीं है। यदि ऐसा करते समय शालीनता, शिष्टता व सभ्यता की उपेक्षा न की जाए तो कोई संदेह नहीं कि मूर्ख दिवस की महत्ता आज के दमघोंटू माहौल में कई गुना बढ़ जाती है और वर्ष भर में एक दिन के लिए ही सही, यह दिन हमें हंसी-खुशी के फव्वारे छोड़ने अर्थात् खिलखिलाकर हंसने-हंसाने तथा मनोरंजन करने का भरपूर अवसर प्रदान करता है।(लेखक -योगेश कुमार गोयल)