विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। भगवान शिव का यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में गंगा नदी के किनारे स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर को विश्वेश्वर नाम से भी जाना है। विश्वेश्वर शब्द का अर्थ होता है ‘ब्रह्मांड का शासक’। यह मंदिर पिछले कई हजार वर्षों से वाराणसी में स्थित है। मुगल शासकों द्वारा कई बार ध्वस्त किये गए काशी विश्वनाथ मंदिर हिंदू धर्म का प्रतीक और पावन मंदिरो में से एक माना जाता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर
माना जाता है कि काशी में महादेव साक्षात् रूप में वास करते है इसलिए इसे शिव की नगरी भी कहा जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर पवित्र नदी गंगा के पश्चिमी तट पर बना हुआ है। यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहाँ पर भगवान शिव वाम रूप में माँ भगवती के साथ विराजमान है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर के दर्शन और गंगा में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। काशी तीनों लोकों में सबसे सुंदर नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इसे आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र और काशी आदि नामों से स्मरण किया जाता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण
विश्वनाथ मंदिर का इतिहास हजारों साल पुराना माना जाता है। ये मंदिर गंगा नदी के पश्चिमी तट पर है. कहा जाता है कि इस मंदिर का दोबारा निर्माण 11 वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने करवाया था। 1194 ईसवी में मुहम्मद गौरी ने इसे ध्वस्त कर दिया था। परंतु मंदिर का पुन निर्माण करवाया गया लेकिन 1447 ईसवी में इसे एक बार फिर जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया। इतिहास के पन्नों में झांकने पर यह ज्ञात होता है कि काशी मंदिर के निर्माण और तोड़ने की घटनाएं 11वीं सदी से लेकर 15वीं सदी तक चलती रही।
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था। आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज ब्राह्मण है।
सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।
अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।
इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं। मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
विश्वनाथ मंदिर का आकार
विश्वनाथ मंदिर का प्रमुख शिवलिंग 60 सेंटीमीटर लंबा और 90 सेंटीमीटर की परिधि में है। मुख्य मंदिर के आसपास काल-भैरव, कार्तिकेय, विष्णु, गणेश, पार्वती और शनि के छोटे-छोटे मंदिर हैं। मंदिर में 3 सोने के गुंबद हैं, जिन्हें 1839 में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने लगवाया था। मंदिर-मस्जिद के बीच एक कुआं है, जिसे ज्ञानवापी कुआं कहा जाता है। ज्ञानवापी कुएं का जिक्र स्कंद पुराण में भी मिलता है। कहा जाता है कि मुगलों के आक्रमण के दौरान शिवलिंग को ज्ञानवापी कुएं में छिपा दिया गया था।
काशी विश्वनाथ मंदिर नगर से जुड़े रहस्य
.शिव के त्रिशुल पर बसी काशी
कहते हैं कि गंगा किनारे बसी काशी नगरी भगवान शिव के त्रिशुल की नोक पर बसी है जहां बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक काशी विश्वनाथ विराजमान हैं। पतित पावनी भागीरथी गंगा के तट पर धनुषाकारी बसी हुई यह काशी नगरी वास्तव में पाप-नाशिनी है। भगवान शंकर को यह गद्दी अत्यन्त प्रिय है इसीलिए उन्होंने इसे अपनी राजधानी एवं अपना नाम काशीनाथ रखा है।
. विष्णु की पुरी
पुराणों के अनुसार पहले यह भगवान विष्णु की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदु सरोवर बन गया और प्रभु यहां 'बिंधुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास स्थान बन गई। काशी में हिन्दुओं का पवित्र स्थान है 'काशी विश्वनाथ'। कहते हैं कि विष्णु ने अपने चिन्तन से यहां एक पुष्कर्णी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहां घोर तपस्या करते रहे।
.काशी के कोतवाल
भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिंदू देवताओं में भैरव का बहुत ही महत्व है। इन्हें काशी का कोतवाल कहा जाता है। काशी विश्वनाथ में दर्शन से पहले भैरव के दर्शन करना होते हैं तभी दर्शन का महत्व माना जाता है। उल्लेख है कि शिव के रूधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई। बाद में उक्त रूधिर के दो भाग हो गए- पहला बटुक भैरव और दूसरा काल भैरव। मुख्यत: दो भैरवों की पूजा का प्रचलन है, एक काल भैरव और दूसरे बटुक भैरव।
काशी में मिलता है मोक्ष
ऐसी मान्यता है कि वाराणसी या काशी में मनुष्य के देहावसान पर स्वयं महादेव उसे मुक्तिदायक तारक मंत्र का उपदेश करते हैं। इसीलिए अधिकतर लोग यहां काशी में अपने जीवन का अंतिम वक्त बीताने के लिए आते हैं और मृत्यु तक यहीं रहते हैं। इसके काशी में पर्याप्त व्यव्था की गई है। वाराणसी कई शताब्दियों से हिन्दू मोक्ष तीर्थस्थल माना जाता है। शास्त्र मतानुसार जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो मोक्ष हेतु मृतक की अस्थियां यहीं पर गंगा में विसर्जित की जाती हैं। यह शहर सप्तमोक्षदायिनी नगरी में एक है।
.भारत का सबसे प्राचीन शहर काशी
इजिप्ट (मिस्र), बगदाद, देहरान, मक्का, रोम, एथेंस, येरुशलम, बाइब्लोस, जेरिको, मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा, लोनान, मोसुल आदि नगरों की दुनिया के प्राचीन नगरों में गिनती की जाती है, लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार दुनिया का सबसे प्राचीन शहर वाराणसी है। दुनिया न भी माने, तो यह भारत का सबसे प्राचीन शहर है।
शहरों और नगरों में बसाहट के अब तक प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर एशिया का सबसे प्राचीन शहर वाराणसी को ही माना जाता है। इसमें लोगों के निवास के प्रमाण 3,000 साल से अधिक पुराने हैं। हालांकि कुछ विद्वान इसे करीब 5,000 साल पुराना मानते हैं, लेकिन हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख के अनुसार यह और भी पुराना शहर है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है। इसका उल्लेख उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।
.महात्मा और संतों की नगरी
भगवान बुद्ध ने बोध गया में ज्ञान प्राप्त कर यहीं पर अपना पहला प्रवचन दिया और जैनियों के तीन तीर्थंकरो का जन्म यहीं हुआ इसीलिए यह तीनों धर्मों के लिए पवित्र स्थल है। कबीर ने यहीं पर बैठकर अपने संदेश को दुनिया में फैलाया। तुलसीदास जी ने यहीं बैठकर रामचरित मानस की रचना की। इस तरह काशी कई महात्मा और संतों की पुण्य स्थली है।
भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आए। एक काल में यह हिन्दू धर्म का प्रमुख सत्संग और शास्त्रार्थ का स्थान बन गया था। संस्कृत पढ़ने के लिए प्राचीनकाल से ही लोग वाराणसी आया करते थे।
संगीत घरानों की नगरी
वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है। सन् 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने इस नगर को लूटा और क्षति पहुंचाई। मुगलकाल में इसका नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रखा गया। बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया।
उत्तरकाशी भी काशी
उत्तरकाशी को भी छोटा काशी कहा जाता है। ऋषिकेश उत्तरकाशी जिले का मुख्य स्थान है। उत्तरकाशी जिले का एक भाग बड़कोट एक समय पर गढ़वाल राज्य का हिस्सा था। बड़कोट आज उत्तरकाशी का काफी महत्वपूर्ण शहर है। उत्तरकाशी की भूमि सदियों से भारतीय साधु-संतों के लिए आध्यात्मिक अनुभूति की और तपस्या स्थली रही है। दुनियाभर से लोग यहां वैदिक भाषा सीखने के लिए आते रहे हैं। महाभारत के अनुसार उत्तरकाशी में ही एक महान साधु जड़ भारत ने यहां घोर तपस्या की थी। स्कंद पुराण के केदारखंड में उत्तरकाशी और भागीरथी, जाह्नवी व भीलगंगा के बारे में वर्णन है।