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10 मार्च 1670 :- लाहौर के किलेदार ने मतान्तरण न करने पर पूरे परिवार का एक एक अंग काटा था

Date : 11-Mar-2024
वे चन्द्रवंशी राजपूत परिवार से थे । समय के साथ पंजाब गये और वहीं बस गये । राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिये जब सिक्ख पंथ अस्तित्व में तो परिवार सिक्ख पंथ से जुड़ घया । भाई मणिसिंह की गणना प्रमुख सिख विद्वानों में और पंथ प्रचारकों में होती है । गुरु तेग बहादुर के साथ बलिदान हुये भाई दयालदास इनके बड़े भाई थे। भाई मणिसिंह उनका जन्म 10 मार्च 1670 को मुल्तान प्राँत के अलीपुर गाँव में हुआ था । यह क्षेत्र अब पाकिस्तान में है । कहीं कहीं यह जन्म तिथि अप्रैल 1744 तो कहीं 1764 लिखी है । कुछ शोधकर्ताओं ने जन्तिथि पर शोध भी किये पर तिथि पर मतैक्य न हो सका । उनके के बचपन का नाम 'मणि राम' था। सिक्ख पंथ से जुड़े तो नाम मणिसिंह हुआ । पिता माई दास भी गुरुसेवा में लग गये थे । माता मधरी देवी गृहणीं थीं।15 वर्ष की उम्र में मणि सिंह का विवाह खैरपुर के यादववंशी लखी राय जी की बेटी सीतो बाई से हुआ। शादी के बाद मणि सिंह ने कुछ समय परिवार के साथ गांव अलीपुर में रहे फिर पत्नि के साथ अमृतसर आ गये । यहाँ रहकर उन्होने सिक्ख साहित्य की रचना की । वे प्रतिदिन प्रवचन करते थे और क्षेत्र में भ्रमण करके समाज से अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का संदेश देते । उनके प्रवचनों में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का आव्हान होता । कुछ दिनों आद उन्होने एक विवाह और खेमी बाई से किया ।
1699 में जब गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी तो वे पंथ के प्रचार और विस्तार अभियान से जुड़ गये । उन्हें अमृतसर हरमंदिर साहब की व्यवस्था देखने का दायित्व मिला । आज यदि हरमिन्दर साहब की ख्याति है तो इसमें बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका भाई मणिसिंह की रही है । समय के साथ उनके कुल नौ पुत्र हुये। सात पुत्र पहली पत्नि सीतो बाई से और दो पुत्र दूसरी पत्नि खेमी बाई से । ये सभी सभी स्वत्व, स्वाभिमान और स्वधर्म के लिये बलिदान हुये । कोई युद्ध में तो कोई राष्ट्र रक्षा अभियान में ।
भाई मणिसिंह सिक्ख पंथ प्रचार के साथ समाज को संगठित करने और अपनी रक्षा स्वयं करने के अभियान में जुटे थे । उनकी गतिविधियों की सूचना लाहौर के मुगल किलेदार जकारिया खान के पास पहुँच रही थी । वह मौके की  तलाश में था । उसे मौका मिला 1734 में । भाई मणि सिंह ने हरमिन्दर साहिब में एक उत्सव का आयोजन किया । यद्यपि समागम की सूचना किलेदार को दे दी गई थी और सहमति भी मिल गई थी । पर यह किलेदार जकारिया खान की चाल थी । समागम की तिथि जैसे ही समीप आई तो किलेदार ने सेना तैनात कर दी और इस आयोजन को विद्रोह माना । भाई मणिसिंह को जब इसका संकेत मिला तो उन्होने आने वाले अतिथियों को न आने का संदेश भी भेज दिया । मुगल सेना हरमिन्दर साहिब और उसे जोड़ने वाले सभी रास्तों पर तैनात हो गई। भाई मणिसिंह परिवार सहित बंदी बना लिये गये । भाई मणि सिंह को जंजीरों में बांधकर लाहौर ले जाया गया। उनपर पाँच हजार की राशि का जुर्माना लगा । जो उस समय के अनुसार बहुत बड़ी रकम थी । जुर्माने की रकम माफ करने केलिये इस्लाम धर्म अपनाने की शर्त रखी गई। जिसे भाई मणिसिंह ने इंकार कर दिया । तब उनके सामने उनके दो पुत्रों छीतर सिंह और गुरुबख्श सिंह को प्रताड़ना दी गई । एक एक अंग काटा गया । दोनों का बलिदान हुआ । फिर भी भाई मणिसिंह अडिग रहे । तब किलेदार ने उनक अंग-भंग करके मौत का आदेश दिया गया। यह नौ जुलाई 1734 की तिथि थी जब भाई मणिसिंह अपने पुत्र और परिवार सहित बलिदान हुये । 
बलिदानों की यह गाथा सिक्ख साहित्य और अरदास में तो है पर इतिहास से नदारत । ऐसे बलिदानों के कारण ही भारतीय संस्कृति पुष्पित और पल्लवित हो रही है । 
कोटिशः नमन ऐसे बलिदानियों को |
 
लेखक - रमेश शर्मा 
 
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