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17 मार्च 1527 : खानवा के युद्ध में अज्जा झाला का बलिदान

Date : 17-Mar-2024

 पिछले डेढ़ हजार वर्षों दुनियाँ के दो सौ देशों स्वरूप और संस्कृति बदल गई। लेकिन विध्वंस की आँधी और विभाजन की त्रासदी के बीच भी भारत की संस्कृति अक्षुण्ण है । यह उन बलिदानियों के कारण संभव हो सका जिनकी पीढ़ियों ने स्वत्व, स्वाभिमान, संस्कृति और स्वराष्ट्र के लिये अपने प्राणों के बलिदान दिये । मेवाड़ के अज्जा झाला ऐसे ही बलिदानी हैं जिन्होंने खानवा के युद्ध में राणा सांगा को सुरक्षित निकालकर पूरे दिन युद्ध किया ।

उनका पूरा नाम अजय सिंह झाला था और इतिहास में अज्जा झाला एवं अजोजी झाला के नाम से प्रसिद्ध हैं । वे झाला वंश परंपरा की 25 वीं पीढ़ी में जन्में थे । यह क्षेत्र मेवाड़ राज्य के अंतर्गत आता था । झाला अजयसिंह ने जब झालावाड़ की कमान संभाली तब चित्तौड़ में राणा संग्रामसिंह का शासन था । वे इतिहास में "राणा सांगा" के रूप में प्रसिद्ध हैं । चित्तौड़ पर हुये हर हमले में झालाओं ने संघर्ष किया है । सात पीढ़ियों के नाम तो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं । झाला अजयसिंह ने राणा सांगा के साथ बयाना, धौलपुर के युद्ध में सहभागिता की और अपनी वीरता से हमलावर बाबर की सेनाओं के छक्के छुड़ाये थे ।खानवा की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
अजोजी का जन्म 1480 में हुआ था । वे अपने परिवार के सबसे बड़े पुत्र थे । पिता रायधरजी झाला का बलिदान दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी के साथ वयाना के युद्ध में बलिदान हो गया तब 1499 में अजोजी का राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में झालावाड़ की कमान संभाली। लेकिन उनकी सौतेली माँ अपने पुत्र  राणोजी को शासक बनाना चाहती थी । परिवार को एकजुट रखने के लिये अजोजी ने सालभर बाद ही 1500 में पद त्यागकर झालावाड का सिंहासन राणोजी को सौंप दिया । वे कुछ दिन झालावाड़ में ही रहे और 1506 में झालावाड़ छोड़कर मेवाड़ आ गये । उन दिनों राणा रायमल मेवाड़ के शासक थे । राणा रायमल झाला अजय सिंह के बहनोई भी लगते थे । राणा रायमल ने उन्हें "राज राणा" की उपाधि देकर अजमेर, बड़ी सदरी , झाड़ोल और गोगुंदा की जागीरें सौंप दीं।
पर ये जागीरें उनकी नाम से संचालित अवश्य रहीं पर झाला अजय सिंह का पूरा जीवन युद्धों में बीता । पहले राणा रायमल फिर राणा सांगा के नेतृत्व में हुये गुजरात, वयाना, कोटा, गागरौन आदि युद्ध में हिस्सा लिया । हमलावर बाबर और राणा सांगा के बीच हुये दो युद्धों में उनकी वीरता से ही विजय मिली थी लेकिन खानवा का युद्ध उनके जीवन का अंतिम युद्ध साबित हुआ । फरवरी 1527 में राणाजी की सेना ने बाबर की सेना को घेरा था । तब बाबर सेना के साथ न था । मुगल सेना को भारी नुकसान हुआ था । इससे चिढ़कर बाबर ने हमले की बड़ी तैयारी की थी । उसने मजहब का वास्ता देकर भारत के तमाम इस्लामिक शासकों को जोड़ा तथा लूट का लालच देकर पठानों को सेना में भर्ती किया । इसके साथ उसका तोपखाना भी था । तैयारी के बाबर ने हमला बोला । उन दिनों राणा सांगा की सीमा आगरा तक लगती थी । मुकाबला खानवा के मैदान में हुआ । एक तो तोपखाना और दूसरा विश्वासघात के चलते राणा जी घायल हो गये । झाला अजय सिंह ने तुरन्त राणाजी को पहले सुरक्षित किया और उनका अंगरखा पहना और उनके घोड़े और छत्र के साथ युद्ध करने लगे । राणाजी के घायल होने की तिथि 16 मार्च 1527 थी । झालाजी ने रात में राणाजी को युद्ध क्षेत्र से बाहर भेजा । और अगले दिन राणाजी के वेश में युद्ध आरंभ हुआ और 17 मार्च 1527 को झाला जी का बलिदान हुआ।
1540 में सिहाजी के पहले बेटे आसाजी झाला मरावली के युद्ध में बलिदान हुये । 1568 में सीहाजी के दूसरे बेटे सुरतान सिंह झाला मुगल बादशाह अकबर द्वारा चित्तौड़गढ़ पर हुये हमले में बलिदान हुये  । 1576 में सुरतान सिंह झाला के पुत्र मान सिंह झाला, महाराणा प्रताप की रक्षा करते हुए हल्दीघाटी के युद्ध में बलिदान हुये । 1609 में झाला मान सिंह के पुत्र देदाजी झाला का बलिदान रणकपुर युद्ध में हुआ । और 1622 में  देदाजी झाला के पुत्र हरदास झाला बलिदान हुरड़ा के युद्ध में हुआ ।
 
लेखक - रमेश शर्मा 
 
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