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विश्व मार्बल डे पर बचपन के झरोखे से "कंचों (चिरंगा /चिड़ंगा) की कहानी"

Date : 29-Mar-2024

 हमारे समय में सबसे सहज, सुलभ और सस्ते देशी खेलों में बालकों के लिए कंचा और गिल्ली डंडा,बालिकाओं के चिटी धप्प(गिप्पा तो खपरों से बन जाता था फिर ठीक तरह से घिस कर गोल कर लिया जाता था बस इस खेल शुरु हो जाता था ) और पिट्-टुक(बालिकाएं तो पुराने कपड़े से ही गेंद बना लेती थीं) होता था और इन खेलों में शारीरिक और मानसिक संतुलन के गज़ब के सामंजस्य की आवश्यकता पड़ती थी, साथ ही प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती थी। इन खेलों में अद्भुत एकता और अनुशासन देखने को मिलता था और जुगलबंदी भी!!! कंचों में जिस बालक का निशाना लल्लन टाॅप होता था, उसे हमारी दीदीयाँ अपनी धुर विरोधी को पिट्-टुक गेंद से पिटवाने के लिए सम्मिलित करने में न चूकतीं थीं, मज़ाल है कि पिट्-टुक के 7 गिप्पा जम जाएं फिर क्या है रोंठाई (धांधली) प्रारंभ हो जाती और ऐंसे बालकों को लंगी मार गिराया जाता और कई बार तो पकड़ लिया जाता ताकि पिट् - टुक जम जाए छुट्टियों और खासकर गर्मियों की छुट्टियों में सुबह से कब शाम हो जाती पता ही नहीं चलता था। न जात-पांत की बात न अमीरी - गरीबी का भेद बस फकीरी में ही मौज!!! अब बहुत याद आते हैं बचपन के खेल, वो मित्र, सहेलियाँ और दीदीयाँ - मन करता है कि फिर एक बार बचपन में लौट आए फिर मिलकर खेलें? लेकिन ये हो नहीं सकता परंतु खेल अभी खेला जा सकता है। 

वैंसे तो कंचों के खेल का इतिहास बहुत पुराना है और नई दुनिया समाचार पत्र के वरेण्य पत्रकार श्रीयुत तरुण मिश्रा एवं उदीयमान पत्रकार श्रीयुत दीपक जैन से कल इस संबंध में विस्तृत चर्चा हुई फिर यह कहानी बनी।सिंधु घाटी सभ्यता में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। विभिन्न अंचलों में इसके नाम भी पृथक - पृथक हैं जैंसे महाकौशल ग्रामीण क्षेत्रों में में बुंदेली वर्जन चिरंगा /चिड़ंगा बहुत प्रचलित है और नगरों में कंचा!!! खेल भी निराले हैं बदा (एक छोटा गोल गड्ढा बनाकर) का खेल, जिल्ला (चौकोर आकृति) का खेल, पचंगाऔर छक्का आदि। इसमें पैसे कमाने का भी स्कोप रहता था, कंचे फेंके जाते फिर बोला जाता कि किस कंचे पर निशाना लगाना है और दांव पर लगती पंजी (पांच पैसे) दस्सी (दस पैसे)  चवन्नी और अठन्नी और इस से ज्यादा लगाने की क्षमता भी नहीं होती थी फिर निशाना लगा तो पैसे आपके होते थे। जीतने वाला दिलदार होता था इसलिए वह धारीदार मीठी गोलियां खिलाता था। ऐंसे निशांची का बड़ा रुतबा होता था। निशांची के पास एक काला कंचा होता था जो ब्रम्हांस्त्र के रुप में प्रयोग किया जाता था जब उसका अन्य कंचों से निशाना नहीं लगता तो फिर वो काला कंचा निकलता था और देवयोग से निशाना लग भी जाता था। कंचों का खेल एक संपूर्ण व्यायाम होता था इसमें पदाने शब्द का प्रयोग बहुत होता था बालकों की जुगलबंदी भी हो जाती थी फिर जो पदता था उसे चुकारा देना पड़ता था जैंसे टिहुनी घिट्ट (याने टिहुनी से कंचे को बदा तक पहुंचाना) बिट्ठक (मेंढक जैंसे उछल कर लक्ष्य तक पहुंचना, लंगड़ी दौड़ और तूऽऽऽऽ.... के स्वर का उच्चारण करते हुए फर्राटा दौड़ लगाना आदि। सच में कंचों का अद्भुत एवं अद्वितीय था। तो अब समय आ गया है कि जब सोशल मीडिया नौनिहालों को अवसाद और विक्षिप्तता की ओर ले जा रहा है तब इन खेलों की प्रासंगिकता बढ़ गई है। आईये अपने देशी खेलों को जाने और खेलें ताकि विकसित भारत में खेलों में स्व की भावना फलीभूत हो।मैंने बहुत संक्षेप में लिखा है परंतु मेरे वरेण्य बंधु और मित्र गण अपने अनुभव और सुझाव देकर इसे आगे बढ़ाने में सहायता करेंगे तो अति उत्तम होगा।
 
लेखक - डॉ. आनंद सिंह राणा
 
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