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बस्तर के प्राचीन मंदिर वनवासियों के हिन्दू होने के देते हैं प्रमाण

Date : 15-Apr-2024
  • छत्तीसगढ़ के बस्तर को आदिकाल से ही कहा जाता है शिवधाम 
  • यहां के वनवासी "बूढ़ा देव "व "लिंगो देव" भगवान शिव की सैकड़ों सालों से कर रहे हैं उपासना

  • ईसाई मिशनरीज़ ने भोले भाले वनवासियों का किया शोषण

  • नक्सलियों के सरंक्षण में ईसाई मिशनरीज़ कर रहीं धर्मांतरण

इस हफ्ते छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने अपने गृहक्षेत्र जशपुर में बहुत महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि लोग कहते हैं कि वनवासी हिन्दू नहीं हैं, तो ऐसे विधर्मियों से हमें सावधान रहना है। हम वनवासी लोग शिव-पार्वती की पूजा करते हैं, वनवासियों से बड़ा हिन्दू कोई नहीं हो सकता है। इसलिए मैं वनवासी भाई-बंधुओं से आग्रह करता हूँ कि बस्तर से लेकर सरगुजा, जशपुर तक वनवासियों की एकता को तोड़ने का प्रयास जो विधर्मी कर रहे हैं, उनके बहकावे में नहीं आना है, उनको करारा जवाब देना है। आज आपका आदिवासी बेटा प्रदेश का मुखिया है इसलिए डरने की कोई जरूरत नहीं है, आप सभी आराम से अपना खेती-बाड़ी और रोजगार का काम करें। आप सभी के हित के लिए हमारी भारतीय जनता पार्टी की सरकार खड़ी है। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय जशपुर के वनवासी कल्याण आश्रम में आदिवासियों के सबसे बड़े त्यौहार सरहुल सरना पूजा महोत्सव में ये बातें कही। 
मुख्यमंत्री ने कहा कि सरहुल खद्दी पूजा में हम वनवासी प्रकृति की, पेड़-पौधे, सरई पेड़ की पूजा करते हैं। हम वनवासी साल भर जो करते हैं और जो गलती करते हैं उसके लिए धरती माता, महादेव-पार्वती से क्षमा मांगते हैं। आने वाले साल में हम सबका जीवन मंगलमय हो, सुखमय हो, परिवार अच्छे से रहे, खेती अच्छा हो, बरसात अच्छा हो इसके लिए हम आज के दिन धरती माता और महादेव-पार्वती की पूजा करते हैं, उनसे आशीर्वाद मांगते हैं। छत्तीसगढ़ में सदैव सुख-समृद्धि हो, सबका जीवन मंगलमय हो इसकी कामना मैं धरती माता और महादेव-पार्वती से करता हूँ। 

एक बार बस्तर यात्रा के दौरान ईसाई धर्म अपनाने के बाद घर वापसी कर चुके एक वनवासी भाई से मैंने इसका कारण पूछा तो उन्होंने बहुत चौंकाने वाली बात बताई। उन्होंने कहा मुझे एक पादरी ने झांसे में लाकर धर्म परिवर्तन करवाया था। पादरी में मुझे अपनी गाड़ी को धक्का लगाने को कहा। मैंने धक्का लगाया पर गाड़ी नहीं चालू हुई। उसने कहा कि अपने भगवान को याद करके धक्का लगाओ। मैंने वैसा ही किया, लेकिन गाड़ी चालू नहीं हुई। फिर वो बोला ईसा मसीह को याद करके धक्का लगाओ। मैंने फिर वैसा ही किया और गाड़ी चालू हो गई। पादरी बोला कि देखो जो तुम्हारे भगवान में ताकत महीन, लेकिन यीशु में बहुत शक्ति है। तुम यीशु को मानों वह तुम्हारी सारी तकलीफ दूर कर देगा। उसने कुछ धनराशि भी मुझे दी। मैं बहुत प्रभावित हो गया और मुझे पता भी नहीं चला कि कब मैं हिन्दू से ईसाई बन गया। ऐसे ही हजारों वनवासी कब हिन्दू से ईसाई बन गए, वे खुद भी जानते। एक पीढ़ी गुजर जाने के अगली पीढ़ी तो ये समझने को भी तैयार नहीं होती कि उनका परिवार किसी लालच में आकर या यूं ही छलपूर्वक धर्मांतरित कर दिया गया। 
वर्ष 2013 में मैं तहलका के लिए मानव तस्करी पर स्टोरी बनाने के लिए नारायणपुर जिले में अबूझमाड़ से सटे एक गांव बड़े जम्हरी पहुंची। उस वक़्त इस गांव तक आने के लिए कच्चे रास्ते पर चलकर आना पड़ा था। यहाँ मुझे पांच लड़कियों से मिलना था, जो मानव तस्करों के चंगुल से छूटकर लौटी थीं। पर आश्चर्य कि जिस गांव में आने के लिए सड़क नहीं थी, जो घोर नक्सल प्रभावित इलाका था। जहां सामान्यतः कोई भी आने में डरता था। वहां चर्च बना हुआ था और वहां का पादरी हमें लड़कियों से मिलने की अनुमति नहीं दे रहा था। चूंकि लड़कियां उस वक़्त चर्च में थीं, और हमारे आने की सूचना मिलने पर पादरी ने उन्हें वहीं रोक लिया था। बड़ी मशक्कत के बाद उस गांव की महिला सरपंच ने पादरी को मनाया और हम उन लड़कियों से मिल पाए। दूसरे दिन हम कोंडागांव तक लौट चुके थे तो समाचार पत्रों से पता चला कि उस गांव में नक्सली भी अपना इलाज करवा रहे थे, हमारे निकलते ही वहां नक्सली-पुलिस मुठभेड़ हुई। हमने भगवान को धन्यवाद दिया कि हमारी जान भी बाल-बाल बची। लेकिन फिर मुझे वह चर्च और पादरी का व्यवहार याद आया। जो बहुत कुछ स्पष्ट कर रहा था।
आप गौर कीजिए नक्सलियों ने कई मंदिरों को बंद कर दिया। कईंयों पर ताला लगा दिया। लेकिन किसी चर्च को नहीं तोड़ा। कोई चर्च बंद नहीं किया। यही कारण है कि बस्तर के अंदरूनी गांव में भी आपको चर्च मिल जाएंगे। इतना ही नहीं पिछले तीन चार दशकों में बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में चर्च व धर्मांतरण के आंकड़े तेजी से बढ़े हैं। नक्सलियों ने वनवासियों की घोटुल परम्परा को बंद कर दिया, ताकि वे घोटुल में नहीं चर्च में इकट्ठे होना शुरू करें। 
इस तथ्य की पुष्टि करने लिए सुकमा की घटना ही काफी है। नक्सल प्रभावित सुकमा जिले के लखापाल व केरलापेंदा गांव में स्थित श्री पहले राम मंदिर को नक्सलियों ने बंद करवा दिया था। मंदिर में प्रभु राम, सीता व लक्ष्मण की संगमरमर की मूर्तियां हैं। सीआरपीएफ ने इसी हफ्ते मंदिर को दोबारा खोला है। केरलापेंदा गांव में एरिया डॉमिनेशन के दौरान जवानों ने जीर्णशीर्ण अवस्था में मंदिर देखा था। गांव वालों ने पूछताछ में बताया कि काफी ऐतिहासिक मंदिर है, जहां पहले मेला भी लगता था। ग्रामीणों ने ये भी बताया कि नक्सलियों ने वर्ष 2003 में मंदिर को बंद करवा दिया था। गांव वालों ने सीआरपीएफ के जवानों से मंदिर खुलवाने का आग्रह किया। जिसके बाद जवान इस काम में लग गए। पिछले सोमवार को मंदिर के कपाट 21 साल बाद खोले गए।
अच्छा, अब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के बयान पर लौटकर आते हैं। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि वनवासी शिव, प्रकृति और शक्ति के उपासक हैं। अब हम केवल श्री विष्णुदेव साय के कहने भर से तो नहीं मान लेंगे। लेकिन बस्तर के पुरातात्विक-एतिहासिक मंदिरों, बस्तर के वनवासी समाज की परंपराओं, बस्तर की पूजा पध्दति, पर्व-त्यौहार इत्यादि की तो मानेंगे न। 
आइए एक दृष्टि बस्तर के प्राचीन मंदिरों पर डालते हैं। बस्तर के केंद्र में स्थित जगदलपुर में नारायणपाल मंदिर है, जो 1000 हजार वर्ष पूर्व बनाया गया था। 11 वीं शताब्दी में बना ये भगवान विष्णु का मंदिर छिन्दक राजवंश की रानी मुमुंद देवी द्वारा निर्मित करवाया गया था। नारायणपाल मंदिर के कारण इस गांव को नारायणपुर के नाम से जाना जाता है।
दंतेवाड़ा से बीजापुर जाने वाले क्षेत्र में सघन वनों से घिरा हुआ समलूर ग्राम पुरातात्विक वैभव का प्रतीक है। समलूर ग्राम छिंदक नागवंशीय राजाओं ने 11 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध शिव मंदिर का निर्माण बेसर शैली में करवाया था। बलुआ पत्थर से निर्मित यह मंदिर आयताकार ईंटनुमा पत्थरों को जोड़कर बनाया गया है। मंदिर अपने विशाल शिवलिंग आकार के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है। बताया जाता है कि शिवलिंग कि ऊंचाई लगभग सवा 2 फीट तथा व्यास लगभग 3 फीट है।

जगदलपुर में एक हजार पुराना शिवालय है। विशाल पिंड और जलहरी सहित इस शिवलिंग की लंबाई 08.04 फीट व चौड़ाई 07.09 फीट है। वहीं पिंडी की ऊंचाई साढ़े पांच फीट है। इतना बड़ा शिवलिंग संभाग में और कहीं नहीं है। इस स्थल को सिदईगुड़ी कहा जाता है। यह मंदिर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। 11वीं शताब्दी में चक्रकोट के छिंदक नागवंशी शासकों के शासनकाल में यह शिवालय बनाया गया था। इस मंदिर की पुरातात्विक महत्ता के चलते ही हर साल महाशिवरात्रि के अवसर पर यहां तीन दिवसीय चित्रकोट मेला लगता है। इसमें दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं।
बारसुर को तो तालाबों एवं मंदिरो का शहर कहा जाता था। बारसुर मे 11वीं और 12 वीं शताब्दी मे 147 मंदिर और तालाब थे। दक्षिण बस्तर की ऐतिहासिक नगरी बारसूर में स्थित प्राचीन बत्तीसा मंदिर न सिर्फ अपने 32 खंभों की वजह से मशहूर है, बल्कि दोहरे गर्भगृह वाले इस अनूठे शिवालय की दोनों जलहरियां भी इसे और खास बनाती हैं। पूरे बस्तर संभाग में दो गर्भगृह वाला यह इकलौता शिवालय है। एक ही छत के नीचे दो शिवालय वाला यह मंदिर 32 पाषाण स्तंभों पर खड़ा है, इसलिए यह बत्तीसा मंदिर कहलाता है। इस मंदिर का निर्माण 1030 ईस्वी में नागवंशीय नरेश सोमेश्वर देव की रानी ने करवाया था।
बस्तर संभाग के समस्त लोक-जीवन की लोकदेवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर दंतेवाड़ा में स्थित है। पूर्व का ग्राम तारलापाल जो शंकनी-डंकनी नदी के संगम पर स्थित था जो कि वर्तमान में दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। माई दंतेश्वरी को माँ दुर्गा का ही प्रतिरूप माना जाता है,माना जाता है कि माँ दुर्गा के जो 52 शक्तिपीठ सम्पूर्ण देश में प्रतिस्थापित है उनमें दंतेवाड़ा कि माई दंतेश्वरी मंदिर का प्रमुख स्थान है। माई दंतेश्वरी मंदिर में आशीर्वाद लेने हेतु न सिर्फ बस्तर परिक्षेत्र या छत्तीसगढ़ से बल्कि देश के कोने-कोने से लोगों का यहाँ आना लगा रहता है। दंतेवाड़ा में भैरव बाबा का एक प्रमुख मंदिर शंखिनी नदी के दूसरे तट पर स्थित है। संगम स्थल पर एक विशाल पत्थर में एक पदचिन्ह को भैरव बाबा का पदचिन्ह माना जाता है। आदिवासी समाज के प्रमुख देव भीमा देव जो अकाल और बाड़ से बचाने वाले देव माने जाते हैं,उनकी प्रतिमा भी यहाँ स्थित है।
जगदलपुर शहर से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रामपाल का शिव मंदिर भी प्रसिद्ध है और सैकड़ों साल पुराना है। इंद्रावती नदी के पास मौजूद मंदिर में खुदाई के दौरान शिवलिंग मिला था। इस शिवलिंग की गोलाई लगभग 3 से 4 फीट है और कुछ साल पहले की जांच में लगभग 30 फीट से अधिक गहराई पाई गई। ग्रामीण इस शिवलिंग को अटल शिवलिंग कहते हैं जो कि जमीन की नाभि से मिलता है। इस पुरातात्विक मंदिर की कहानी प्रभु श्रीराम से जुड़ी है। कहा जाता है कि अपने 14 साल के वनवास के दौरान जब भगवान राम दंडकारण्य से गुजर रहे थे तब उन्होंने यहां मौजूद शिवलिंग में पूजा-अर्चना की थी। इसलिए बस्तर के प्रसिद्ध शिवधाम में से एक रामपाल गांव को रामवनगमन पथ से भी जोड़ा गया है। मंदिर के आसपास खुदाई के दौरान ग्रामीणों को जो ईट मिली है। वह पांचवीं सदी की है, ऐसा पुरातत्व के जानकार कहते हैं, इस ईट के अवशेष आज भी मंदिर में मौजूद हैं। मान्यता है कि शिवलिंग प्रभु श्रीराम द्वारा स्थापित की गई है। इस मंदिर में करीब 200 साल पुरानी घंटी लगी हुई है। इस घंटी में 1806 लंदन लिखा हुआ है। जानकार बताते हैं कि तत्कालीन ब्रिटिश के राज्यपाल ने यह घंटी मंदिर में चढ़ाई थी। 
ये कुछ मंदिर तो बानगी भर है, पूरा बस्तर शिव और शक्ति के मंदिरों से भरा पड़ा है। ये मंदिर दस-बीस साल पहले नहीं बने हैं। बल्कि 5 वीं शताब्दी से 11 वीं शताब्दी में बनाये गए हैं। ये मंदिर प्रमाणित करते हैं कि वनवासी बन्धु सनातन धर्म के संवाहक रहे हैं। दैवीय संस्कृति के ध्वजवाहक रहे हैं। समस्त ब्रम्हांड और तीनों लोकों के स्वामी शिव के सबसे बड़े उपासक रहे हैं।
अब सोचिए शिव और शक्ति के उपासक कैसे और कब महिषासुर की पूजा करने लगे। क्यों नवरात्रि में दुर्गा पूजा और दशहरे में रावण दहन का विरोध होने लगा। ये कुछ मुठ्ठी भर लोग हैं, जिन्हें पहचानने की जरूरत हैं, जो मिशनरीज़ के इशारे पर वैमनस्य फैलाने का काम कर रहे हैं। वनवासी बंधुओं को आपस में लड़ाने का कुत्सित षड्यंत्र कर रहे हैं।


लेखक - प्रियंका कौशल
 
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