बन्दा बैरागी: साहस और बलिदान का प्रतिमान | The Voice TV

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बन्दा बैरागी: साहस और बलिदान का प्रतिमान

Date : 09-Jun-2025

बन्दा बैरागी का जन्म जम्मू कश्मीर के पुंछ में 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, में श्री रामदेव के घर हुआ। माता पिता ने उनका का नाम लक्ष्मणदास रखा था। युवावस्था में उनके हाथों अनजाने में एक ग़लती हो गयी । शिकार खेलते समय उन्होंने एक हिरणी पर तीर चलाया। हिरणी गर्भवती थी और तीर लगने से उसका पेट फट गया, पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका का मन खिन्न हो गया, उन्होंने अपना नाम लक्ष्मणदास से बदल कर माधोदास रख लिया और घर छोड़कर, अनजाने में ही सही, जो अपराध उनसे हुआ था उसका प्रायश्चित करने तीर्थयात्रा पर चल दिये। अपनी इस यात्रा में वे अनेक साधुओं मिले । उन्होंने से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।


संयोगवश माधोदास की कुटिया में गोविन्दसिंह जी आये। जब वे माधोदास से मिले तब तक गोविन्द सिंह जी के उनके चारों पुत्र मुग़लों से लड़ाई में शहीद हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुग़लों के आतंक से लड़ने की प्रेरणा दी। इस भेंट के बाद माधोदास का जीवन बदल गया। गुरु गोविन्द सिंह ने माधोदास को बन्दा बहादुर नाम दिया और उन्हें पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा दिया । उन्होंने बंदा बहादुर को अपने दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले, सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा।

कुछ कर गुज़रने को तत्पर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। बंदा बहादुर एक तूफ़ान बन गए जिसे रोकना किसी के बस में नहीं था । सबसे पहले उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर गुरु गोविन्द सिंह के दोनों पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब वजीर खान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बंदा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इन कारनामों से चारों ओर बंदा बहादुर प्रसिद्द हो गए और दूर दूर तक उनके नाम की चर्चा होने लगी ।

उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और धोखे से 17 दिसंबर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। मुग़ल इतने डरे हुए थे कि बंदा बहादुर को प्रताड़ित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी । बंदा बहादुर को अपमानित करने के लिए उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बंदी बनाकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। युद्ध में जिन सिख सैनिकों ने वीरगति पायी थी उनके सिर काटकर, उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया, ताकि रास्ते में सभी इस भयावह दृश्य को देखें । उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।

दिल्ली में काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा, पर सभी ने अपने धर्म छोड़ने से मना कर दिया। दिल्ली में आज जिस स्थान पर हॉर्डिंग लाइब्रेरी है, वहाँ 7 मार्च, 1716 से प्रतिदिन सौ सिख वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने बंदा बैरागी से पूछा - तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ? उत्तर में बन्दा ने गर्व से कहा कि - क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो भगवान मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है। मुझे ईश्वर ने प्रजा को प्रताड़ित करने वाले दुष्टों के दण्ड देने के लिए अपना शस्त्र बनाकर भेजा।

अत्याचारी मुग़लों ने बन्दा से पूछा कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं? तो बन्दा ने उत्तर दिया कि मैं अब मौत से नहीं डरता, क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। उन्हें भयभीत करने के लिए उनके 5 वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर, बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।

बन्दा ने अपने ही बेटे की हत्या करने से मना कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस पाँच साल के बच्चे के दो टुकड़े कर उसके दिल का माँस निकलकर बन्दा के मुँह में ठूँस दिया। पर वीर बंदा बैरागी तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ ही बची थीं। इतने निर्मम अत्याचार करने के बाद भी जब बंदा का मनोबल नहीं टूटा तो 9 जून, 1716 को दुश्मनों ने इस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा बैरागी वीरगति को प्राप्त हुए । अपनी कौम की रक्षा के लिए बंदा बैरागी का बलिदान विलक्षण है । ऐसे वीर बलिदानी को हमारा शत शत नमन ।
 
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