हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य शेख उस्मान खैराबादी बड़े ही धर्मनिष्ठ और विद्वान् थे। वे जीविकोपार्जन के लिए सब्जी बनाकर बेचा करते। यदि बदले में कोई खोट सिक्का भी दे जाता तो वे चुपचाप जान-बूझकर उसे रख लेते और सब्जी दे देते। इससे लोगों की यह आम धारणा हो गयी कि उन्हें खरे-खोटे की परख नहीं है और यह जान-कर लोग उन्हें जान-बूझकर खोटे सिक्के दे जाया करते।
अन्त समय में शेख आसमान की ओर मुँह कर बोले, "ऐ परवरदिगार ! तू भलीभाँति जानता है कि लोग मुझे खोटे सिक्के दे दिया करते थे और मैं उन्हें रख लेता था। एक बार भी मैंने खोटा सिक्का किसी को वापस नहीं किया। अगर अनजाने में मुझसे कोई खोटा काम हो गया हो, तो तू भी इस खोटे बन्दे को दूर न फेंक, अपनी रहमत में रख लेना। मेरे रहीम ! तेरे यहाँ तो कितने ही खरे बन्दे होंगे, वहाँ मुझ जैसा एक खोटा बन्दा भी कहीं न कहीं पड़ा रहेगा।"
