भारत के भीतर आधुनिक अधोसंरचना के निर्माण का कार्य युद्ध स्तर पर चल रहा हैं। भारत के सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में भी सड़क से लेकर बड़े पुल और बड़े हाईवे से लेकर पहाड़ो के भीतर से बड़ी बड़ी सुरंगे बनायीं जा रही हैं। किन्तु परिस्थितियों के बदलने में एक क्षण भी अधिक माना जाता हैं। ऐसा ही कुछ हुआ उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यांरा और बड़कोट के बीच बन रही सुरंग के भीतर 12 नवंबर को सुबह 5 बजकर 30 मिनट के करीब सुरंग खुदाई के समय माल ढ़ोने वाले ट्रक से सपोर्ट के लिए लगी गर्डर पर टक्कर लगी और एकाएक सुरंग धंस गयी, बाहर के लोग बाहर रह गए तो, सुरंग के भीतर काम कर रहे लगभग 41 मजदूर सहित अधिकारी 60 मीटर मलवे के पीछे सुरंग में ही फंस गए। उनके राहत और बचाव का काम आज भी जारी हैं। लगभग 10 दिनों से अधिक हो गए हैं और अब जाकर उनसे सीधा संपर्क स्थापित हो पाया हैं। सभी फंसे लोगो को सुरक्षित निकलने में अभी और भी समय लग सकता हैं।
उत्तरकाशी सुरंग हादसा और तकनीक का आभाव
जब कोई छोटा बच्चा किसी बोरबेल में गिर जाता हैं, तब उसकी जानकारी लगने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उसकी पीड़ा महसूस होती हैं। तो फिर यह कैसे कहा जा सकता हैं कि अपने परिवार का पेट पालने और विकास के महत्वपूर्ण काम में लगे 41 लोग एक सुरंग में जीवन और मृत्यु की लड़ाई लड़ रहे हो और देश उनके साथ ना खड़ा हो। सुरंग धंसने की घटना वाले दिन से लेकर तो आज के दिन तक भारत के सभी क्षेत्रों में सुरंग में फंसे मजदूरों और अधिकारियो के लिए प्रार्थना की जा रही हैं। और विश्वास भी हैं कि वे सभी सकुशल बाहर आ जायेगे। सभी को धैर्य रखने की आवश्यकता है।
सुरंग में फंसे मजदूरों के बचाव के लिए अभियान में छह योजनाओ पर काम किया जा रहा है। सुरंग के मुहाने से ऑगर मशीन से ड्रिलिंग, बड़कोट छोर से ड्रिलिंग, सुरंग के ऊपर और दाएं व बाएं तरफ से ड्रिलिंग, सुरंग के ऊपर से ड्रिलिंग की योजना तैयार की गई। बचाव अभियान में भारतीय सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, बीआरओ, एनएचआईडीसीएल, उत्तराखंड पुलिस, एसजेवीएनएल, आरवीएनएल, लार्सन एंड टूब्रो, टीएचडीसी, आपदा प्रबंधन विभाग, जिला प्रशासन, ओएनजीसी, आईटीबीपी, राज्य लोनिवि, डीआरडीओ, परिवहन मंत्रालय, होमगार्ड्स जुटे हैं। विशेषज्ञों की टीम ने अत्याधुनिक तकनीकों का भी इस्तेमाल किया। डीआरडीओ के 70 किलो के दो रोबोट यहां पहुंचे थे, लेकिन रेतीली मिट्टी होने के कारण वह चल नहीं सके। यहां ड्रोन से भी तस्वीरें लेने की कोशिश की गई, लेकिन कामयाब नहीं हुई। इंटरनेशनल टनलिंग और अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रो. अर्नोल्ड डिक्स को भी बुलाया गया। साथ ही हिमाचल में सुरंग हादसे में मजदूरों को बचाने वाली टीम को भी यहां बुलाया गया।
नौवें दिन देर शाम टीम को सफलता मिली और छह इंच का दूसरा फूड पाइप मजदूरों तक पहुंचा दिया गया। देर शाम इसी पाइप से उन्हें खाने के लिए खिचड़ी और मोबाइल चार्ज करने के लिए चार्जर भेजे गए थे। 10वें दिन एंडोस्कोपिक फ्लेक्सी कैमरा सुरंग में फंसे मजदूरों तक पहुंचाया गया। बचावकर्मी वॉकी-टॉकी के माध्यम से फंसे हुए श्रमिकों से संपर्क करने की कोशिश करते रहे।
किन्तु भी ध्यान देने वाली बात हैं कि भारत में कोई पहली बार किसी सुरंग का काम हो नहीं रहा हैं या फिर ऐसा भी नहीं कि आगे कभी नहीं होगा। या फिर हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि भारत में या विश्व में कही भी इस तरह के हादसे पहले नहीं हुए हैं। इन् सभी बातों के आधार पर एक सामान्य समझ का व्यक्ति भी किसी भी काम को करने के पहले सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए पूर्व तैयारी कर सकता हैं। तब दुर्गम पहाड़ो के बीच ऐसे महत्वपूर्ण कामो को लेकर सुरक्षा के प्रति लापरवाही कैसे की जा सकती हैं। जब अधोसंरचना के निर्माण के लिए उन्नत से उन्नत तकनीक का प्रयोग किया जा रहा हैं। तब सुरक्षा को लेकर परंपरागत साधनो का उपयोग क्यों किया जा रहा हैं। इसी के साथ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जब भारत में ही वन्दे भारत जैसी ट्रैन से लेकर चन्द्रमा तक पहुंचने की तकनीक विकसित हो चुकी हैं। तब तकनीक के अभाव में एक सुरंग में फंसे मजदूरों को खाना पहुंचाने में 9 दिन लग गए।