आधुकिता के इस दौर में बहुत की परपंराएं अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं, पर कुछ रीति-रिवाज ऐसे हैं, जो बड़े-बड़े झंझावातों के बीच भी अपने को बचाकर रखने में सफल रही हैं। उन्ही परंपराओं में एक है फाग या फगुआ काटना जिसे संवत काटना भी कहते हैं।
आम तौर पर रंगों के त्योहार होली के पूर्व फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन किया जाता है, जिसमें लकड़ियों को जमाकर उसे जलाया जाता है, लेकिन जनजातीय समाज और दक्षिणी छोटानागपुर के खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, सिंहभूम आदि जिले में गैर आदिवासियों द्वारा होलिका दहन की नहीं, फाग काटने की परंपरा है।
फाल्गुन पूर्णिमा की रात को शुभ मुहूर्त में गांव के पाहन द्वारा सेमल या एरंड की डालियों पर खेर घास या पुआल लपेटकर उसे जलाया जाता है और जलती हुई डालियों को गांव के लोग तलवार या दूसरे धारदार हथियारों से काटते हैं। पूजा के दौरान पाहन द्वारा पूजा-अर्चना के बाद मुर्गे की बलि दी जाती है। फाग जलने से उठने वाले धुएं की दिशा देखकर पाहन भविष्यवाणि करता है कि उस वर्ष वर्षा कैसी होगी और खेती-किसानी की स्थिति क्या होगी। फाग काटने के पूर्व रात को गांव के पुरुष और बच्चे सामूहिक रूप से नाचते-गाते फाग काटने वाले स्थान जिसे फगुवा टांड़ कहा जाता है।
वहां पहुंचते हैं और पाहन द्वारा पूजा-अर्चना के बाद फाग या संवत काटते है। पहला फाग काटने का अधिकार गांव के पाहन को ही है। पाहन के बाद ही गांव के लोग संवत काटते हैं। दूसरे दिन अर्थात होली के दिन गांव के लोग ढोल-मांदर की थाप पर नाचते-गाते फगुवा टांड़ पहुंचते हैं और वहां की राख का लगाते हैं और दूसरे को भी भस्म का टीका लगाकर एक दूसरे को होली और नव वर्ष की शुभकामनाएं देते हैं।
फाग काटने को लेकर प्रचलित हैं कई किंवदंतियां
आमतौर पर होलिका दहन की कहानी राजा हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका से जुड़ी हुई है, पर छोटानागपुर के जनजातीय समाज इस धार्मिक मान्यता के अनुसार होलिका दहन नहीं करते हैं। आदिवासी बहुल ग्रामीण क्षेत्रों में होलिका दहन के लिए सेमल की डाली में खैर घास या पुआल लपेटकर पूजा-अर्चना और मुर्गे या भेड़, बकरे की बलि देने के बाद पाहन द्वारा पूजा के दीप से ही उसमें आग लगाई जाती है। जब डाली जलने लगती है, तब पाहन सहित गांव के सभी लोग डाली को धारदार हथियार से काटते हैं। इसे ही फाग काटना कहा जाता है। कर्रा प्रखंड के जोजोदाग गांव के हरि पाहन बताते हैं कि कबिला काल के समय जनजातीय समाज शिकार पर ही आश्रित था।
शिकार के दौरान एक बार रास्ते में बड़ा सांप मिला जिसे सांसूडी कहते हैं, जो सांस से ही जानवरों को खींचकर अपना निवाला बना रहा था। भविष्य में किसी प्रकार का नुकसान ना हो इसके लिए सभी ने उस विशालकाय सांप को मारने का निर्णय लिया। उसी समय एक महिला ने सुझाव दिया कि क्यों ना आग लगाकर धधकते आग को माथे पर लेकर उस रास्ते से गुजरा जाए। रास्ते से गुजरने पर सांप अपनी सांस से उसे अपनी ओर खिंचेगा और आग व राख से बुरी तरह घायल हो जाएगा। इसके बाद सभी मिलकर उसे मार देंगे। ऐसा ही किया गया।
महिला आग को माथे पर लेकर उस रास्ते से गुरजने लगा तो सांप उसे अपनी ओर खींचा। इसके बाद आग व राख से सांप अंधा हो गया और घायल हो गया। इसके बाद लोगों ने उसे मार दिया। सांप सेमल के पेड़ पर रहता था। आदिवासियों ने उस पेड़ में सूखे खैर बांधकर उसमें आग लगा दी, ताकि कोई दूसरा सांप अगर हो तो वह भी जिंदा न रहे। इसलिए फाग के दिन आदिवासियों में सेमल की डाली पर खैर बांधकर जलाने की परंपरा है।
तोरपा प्रखंड के उकड़ीमाड़ी गांव के ग्राम प्रधान हरखू मुंडा बताते हैं कि प्राचीन समय में सारू पहाड़ नाम का एक विशाल पर्वत था, जिस पर एक सेमल का पेड़ था। उस पेड़ पर दो राक्षस रूपी गिद्ध सोनो और रूपों रहते थे। दोनों गिद्धत मनुष्य के छोटे-छोटे बच्चों को अपना आहार बना लेते थे। इससे लोग परेशान होने लगे और बच्चों की जान की रक्षा के लिए भगवान शंकर से विनती करने लगे।
महादेव ने इन गिद्धों को मारने के लिए लोहार से 12 मन का धनुष और नौ मन का तीर बनाने के लिए कहा। ठीक फागू चंदो अर्थात फागुन पूर्णिमा के दिन एक मचान बनाकर भगवान महादेव वहां बैठ गए और पूर्णिमा की चांद की रोशनी से देखकर पेड़ पर बैठे दोनों गिद्धों को मार गिराया। उस सेमल के पेड़ पर और कोई राक्षस ना रह सके, इसके लिए गांव वालों ने सेमल के पेड़ को आग लगाकर जला दिया। राक्षसों के मारे जाने की खुशी में गांव वालों ने दूसरे दिन जमकर उत्सव मनाया। उसके बाद से ही फागुन पूर्णिमा दिन सेमल के पेड़ को जलाने की परंपरा और दूसरे दिन उत्सव मनाने की परंपरा की शुरुआत हुई, जो आज भी चल रही है।