राम भक्ति से राष्ट्र दीक्षा
Date : 08-Jul-2025
भारत की सनातन परंपरा में गुरु-शिष्य परंपरा व्यक्तिगत ,आध्यात्मिक मार्गदर्शन के साथ राष्ट्रनिर्माण और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का माध्यम भी है। ऐसे ही एक ऐतिहासिक प्रसंग की स्मृति हमें वाराणसी के अस्सीघाट पर ले जाती है।अस्सीघाट की पुण्य भूमि, काशी की वह वंद्य धरा, जहाँ श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस की रचना की और रामकथा का अमृतरस बरसाया, वह अपने अंतिम समय में एक अद्भुत राष्ट्रचेतना का दीप प्रज्वलित कर गए। यह वह क्षण था जब राम भक्ति ने राष्ट्र जागरण का बीज बोया।
कहा जाता है कि 30 जुलाई,1623 को 111 वर्ष की आयु के तुलसी बाबा अस्सी घाट की 80 सीढ़ियाँ उतरकर, गंगा जी में स्नान करके गंगाजल कलश में भरकर अपनी कुटिया तक लेकर आए और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा —
"कोउ बालक आए मोरे द्वार,
आवत ही भीतर करिहौं संभार।"
एक बालक आएगा उसे कुटिया के अंदर भेज दीजिएगा।
कुटिया में जाकर गाय के गोबर से भूमि लीप कर वह बालक की प्रतीक्षा करते हुए राम नाम के जाप में तन्मय हो गये।
यह बालक कोई साधारण बालक न था, इसका नाम था 'नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी । कहते हैं, नारायण अपने विवाह के समय सुलग्न लगाते समय लगने वाले सावधान के उद्घोष को सुनकर "सावधान" हो गये।विवाह की वेदी को त्यागकर वह सुदूर महाराष्ट्र से काशी तुलसी बाबा की कुटिया के द्वार पर पहुँचे। सेवकों ने उन्हें अन्दर प्रवेश करने का संकेत दिया । तुलसी बाबा ने जैसे ही उन्हें देखा, उनकी थकी हुई दृष्टि में अपार संतोष छलक उठा। नारायण ने तुलसी बाबा के चरणों में प्रणाम किया । बालक को देखकर बाबा बोल उठे — "राम बिनु हित नाहीं जग माहीं।
सोइ जपहु जासु जगत प्रभुताहीं॥"
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने अंतिम समय उस तपस्वी, तेजस्वी साधक को रामनाम की दीक्षा दी । यह दीक्षा रामकार्य के लिए राष्ट्रशक्ति बनने हेतु प्रदान की गई थी , जिसका उद्देश्य था- भक्ति में शक्ति का सिंचन और शक्ति में भक्ति का अनुरंजन। तुलसीदास जी, जो रामभक्ति को केवल भाव नहीं, अपितु धर्म, न्याय और लोकमंगल की जीवनपद्धति मानते थे, उन्होंने इस तेजस्वी बालक को राम साधना के साथ राष्ट्र कर्तव्य का संकल्प भी सौंपा। यह दीक्षा एक युग परिवर्तन का संकेत बनी , जब भक्ति, शक्ति में रूपांतरित होती है और एक साधक, राष्ट्रचेतना का वाहक बनता है। बालक ने गुरु के वचनों को हृदय में आत्मसात कर लिया। तुलसी बाबा ने बालक की गोद में सिर रखकर, राम नाम स्मरण करते हुए अपनी देहलीला समाप्त की।
यह बालक रुपी साधक कोई और नहीं, मराठा स्वाभिमान के प्रणेता छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु — स्वामी समर्थ रामदास जी थे । जो आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज और महाराजा छत्रसाल जैसे राष्ट्रपुरुषों के प्रेरणास्रोत बने। स्वामी समर्थ रामदास जी ने इस गुरुकृपा को राष्ट्र जागरण का आधार बनाया। समर्थ रामदास जी के ओजस्वी वचनों में यह स्वर गुंजरित होता रहा —
"जय जय रघुवीर समर्था।
जय जय स्वराज्य अभिमत्था॥"
स्वामी समर्थ रामदास जी ने शिवाजी महाराज को अखंड हिंदवी साम्राज्य की स्थापना हेतु प्रेरित किया और पन्ना नरेश महाराजा छत्रसाल को भी राष्ट्र कार्य के लिए मार्गदर्शन दिया । महाराजा छत्रसाल ("छत्ता") ने बुंदेलखंड में स्वतंत्र राज की नींव रखी। यह एक अनोखा प्रसंग है जहाँ एक ही गुरु-दीक्षा दो महान राष्ट्रनायकों के माध्यम से भारत भूमि में धर्माधारित शासन व्यवस्था का बीज बोती है। इस पावन परंपरा को महाराष्ट्र के शिवाजी महाराज और बुंदेलखंड के वीर महाराज छत्रसाल ने आत्मसात किया।
तुलसीदास जी की वाणी में रामभक्ति केवल आत्मकल्याण नहीं थी – वह “परहित” और “राजधर्म” का पर्याय थी। यही भावना समर्थ रामदास जी की लेखनी में भी गूंजती है –
"राम भक्तिं द्यावी मनासी | रामकार्य करावे हाती ||"
(अर्थात - मन में रामभक्ति हो और हाथों में रामकार्य।)
इस प्रकार अस्सीघाट पर हुआ यह अलौकिक दीक्षा प्रसंग संत परंपरा का क्रम नहीं था, यह राम भक्ति से राष्ट्र भक्ति तक की अमर श्रृंखला थी। तुलसी बाबा ने जैसे राम नाम का बीज समर्थ रामदास जी में रोपा, उन्होंने उसी बीज को मराठा स्वराज्य की फुलवारी में पल्लवित किया। छत्रसाल ने बुंदेलखंड में उसे समर्थ रामदास जी से मार्गदर्शन लेने के पश्चात् अपने कवित्तों के माध्यम से बुंदेलखंड में राष्ट्र और जन जागरण के मंत्र के रुप में फूंका —
"छत्रसाल कहि ज्यों बजि उठी धरती धीर वीर जू।
जिन थिर धरम, करम अरु धरम, सदा गढ़त रणधीर जू॥"
गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर यह प्रसंग हमें स्मरण कराता है, कि भारत की संत परंपरा ने दीक्षा के माध्यम से आत्मा का मार्ग दिखाया और राष्ट्र की चेतना को भी दिशा दी। अस्सीघाट पर हुई यह दीक्षा, वास्तव में भारतवर्ष के हिंदवी स्वराज्य की सांस्कृतिक जन्मभूमि बन गई ,जहाँ रामभक्ति से राष्ट्रदीक्षा की यात्रा प्रारंभ हुई। यह प्रसंग आज भी गूंजता है —
राम भक्ति से राष्ट्र दीक्षा
जहाँ ,"तुलसी'' के शब्द, "समर्थ" के संकल्प और "छत्रसाल" के शौर्य की त्रिवेणी ने भारत भूमि को नव जीवन दिया।
लेखक - डॉ नुपूर निखिल देशकर