"माँ नर्मदा का पहला अवतरण ही पितरों (माताएँ पृथक नहीं )के तर्पण के लिए हुआ था"
"तर्पण और श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी हैं,माँ नर्मदा"
"पितृ पक्ष में तर्पण और श्राद्ध का माहात्म्य"
पितृ पक्ष में न जाने किस रुप में कितने पुराने हमारे ज्ञात और अज्ञात पूर्वज आकर मिलेंगे, यही तो सबसे पवित्र और पुनीत दिन हैं, जब तर्पण कर पूर्वजों से आशीर्वाद प्राप्त करने सौभाग्य प्राप्त होता है। वामियों, तथाकथित सेक्यूलरों, तथाकथित फादरों और मौलवियों को ये बताना है कि ईसाई और इस्लाम में तो परमोच्च सत्ता के साथ स्त्री का कोई अस्तित्व ही नहीं है,और जन्नत में स्त्रियों के लिए कुछ नहीं हैं केवल भोग्या हैं, इसलिए स्त्री के संबंध में कोई विमर्श ही नहीं है, इस संबंध में वामी और तथाकथित सेक्यूलरों के फेमिनिज्म की अवधारणा नपुंसक हो जाती है, कुछ बोलने पर हालत खराब होने लगती है। परंतु सनातन धर्म में स्त्रियों के विमर्श को लेकर पिल पड़ते हैं जबकि सनातन धर्म के मूल में शक्ति ही है।
परमोच्च सत्ता के साथ अर्द्धनारीश्वर के रुप में सदैव विद्यमान है। वहीं शिवपुत्री माँ नर्मदा प्रतिकल्पा के रुप पितरों की तारणहार हैं। माँ नर्मदा का प्रथम अवतरण ही पितरों के तर्पण के लिए हुआ था। मातृ नवमी को माताओं के लिए तर्पण का दिन नियत है।
संस्कारधानी के नर्मदा तट इंद्र गया तीर्थ पर हुआ था ब्रह्मांड का प्रथम श्राद्ध -
'यथा हि गया शिर: पुण्यं, पूर्व मेव पठयते तथा रेवा तटे पुण्यं शूल भेद न संशया:। "
इस श्लोक से स्पष्ट है कि माँ नर्मदा ही श्राद्ध की जननी हैं। जबलपुर शहर से 15 किमी दूर गया तीर्थ के बराबर ही नर्मदा के दक्षिण तट,चरगवां रोड पर त्रिशूलभेद तीर्थ है उसके पास इंद्र गया तीर्थ स्थान है, जहां पर सबसे पहला श्राद्ध हुआ था। जिस प्रकार गयाजी में पितरों का तर्पण करने से पितर संतुष्ट होते हैं, वैसे ही नर्मदा में श्राद्ध करने से पितरों को संतुष्टि मिलती है। यही है नर्मदा में श्राद्ध करने के महत्व का रहस्य।
स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार श्राद्ध क्या है। श्राद्ध क्यों करना चाहिए। इसका पता प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि, देवता और दानवों को भी नहीं था। सतयुग के आदिकल्प के प्रारंभ में जब नर्मदा पृथ्वी पर प्रकट हुईं, जब पितरों द्वारा ही श्राद्ध किया गया। सूर्य के कन्या राशि में भ्रमण के दौरान ही भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से श्राद्ध अर्थात महालय प्रारंभ हो जाता है।
पितरों ने पहला श्राद्ध नर्मदा में ही क्यों किया :
स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार राजा हिरण्यतेजा अपने पितरों का तर्पण करने के लिए पृथ्वी के सभी तीर्थों में गए, लेकिन उनके पितर कहीं संतुष्ट नहीं हुए। तब उन्होंने पितरों से पूछा कि आपको कहां संतुष्टि मिलेगी। तब पितरों ने कहा कि हमारा तर्पण मां नर्मदा में ही करें। राजा पुरूरवा ने भी नर्मदा तट पर आकर अपने पितरों का तर्पण और यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान किए। नर्मदा के त्रिपुरी तीर्थ (जबलपुर ) इंद्र गया में अयोध्या के चक्रवर्ती राजा मनु ने भी अपने पितरों का तर्पण किया है।
मां नर्मदा ही ब्रह्मांड में एकमात्र ऐसी नदी है, जो आदिकल्प सतयुग से इस धरा पर विद्यमान है और वे सभी को तारने में सक्षम हैं। इसी वजह से ऋषि वशिष्ठ के कहने पर राजा मनु ने नर्मदा तट पर आकर पितरों का तर्पण व यज्ञादि किया। परशुराम जी ने भी नेमावर के पास तुरनाल में अपने पितरों का तर्पण किया था । गुजरात के चांदोद , अमरकंटक के पास आरंडी संगम में भी इसका विशेष महत्व है। स्कंदपुराण में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि नर्मदा में श्राद्ध करने से पितरों को विशेष संतुष्टि प्राप्त होती है ।
पौराणिक मान्याओं के अनुसार नर्मदा नदी में पिंडदान एवं पितृ तर्पण करना गया (बिहार) के फल्गु नदी से 16 गुना ज्यादा फलदायक होना बताया गया है। स्कंद पुराण के रेवा खंड के अनुसार नर्मदा नदी में अनेक स्थानों का महत्व है। पितृपक्ष के अवसर पर जो अपने पितरों को इस स्थान पर आकर पिंडदान व तर्पण करता है उसे और कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं रहती और इसका कई गुना फल भी प्राप्त होता है। प्राचीन मान्यता के अनुसार इन 16 दिन हमारे पूर्वज पितृलोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं। ऐसे में श्राद्ध के 16 दिन में लोग अपने पितरों को जल देते हैं और उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करते हैं।
श्राद्ध विधि---
इन दिनों श्राद्ध करने वाले व्यक्ति देवी-देवताओं, ऋषियों और पितरों के नाम का उच्चारण करके श्राद्ध करने का संकल्प लेते हैं। इसमें जल में काले तिल मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया को तर्पण कहते हैं। इसे तीन बार किया जाता है। फिर चावल के बने पिंड बनाकर पितरों को अर्पित किए जाते हैं। यह प्रक्रिया महत्वपूर्ण मानी जाती है और इससे पितरों की आत्मा को तृप्ति मिलती है। श्राद्ध कर्म के अंत में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और उन्हें वस्त्र, भोजन, तिल, और अन्य दान दिए जाते हैं। इसे पिंडदान से भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि ब्राह्मणों को पितरों का प्रतिनिधि माना जाता है।
परिवार में कौन कर सकता है श्राद्ध : -
घर का वरिष्ठ पुरुष सदस्य नित्य तर्पण कर सकता है। उसके अभाव में घर को कोई भी पुरुष सदस्य कर सकता है. पौत्र और नाती को भी तर्पण और श्राद्ध का अधिकार होता है। वर्तमान में स्त्रियां भी तर्पण और श्राद्ध कर सकती हैं। इस अवधि में दोनों वेला स्नान करके पितरों को याद करना चाहिए. कुतप वेला में पितरों को तर्पण दें। इसी वेला में तर्पण का विशेष महत्व है। पितृ पक्ष में हम अपने पितरों को नियमित रूप से जल अर्पित करें. यह जल दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके दोपहर के समय दिया जाता है।जल में काला तिल मिलाया जाता है और हाथ में कुश रखा जाता है। जिस दिन पूर्वज की देहांत की तिथि होती है, उस दिन अन्न और वस्त्र का दान किया जाता है।उसी दिन किसी निर्धन को भोजन भी कराया जाता है। इसके बाद पितृपक्ष के कार्य समाप्त हो जाते हैं। हिंदू धर्म में पितृपक्ष के दिनों का बहुत ही खास महत्व है। हमारे परिवार के जिन पूर्वजों का देहांत हो चुका है, उन्हें हम पितृ मानते हैं. मृत्यु के बाद जब व्यक्ति का जन्म नहीं होता है तो वो सूक्ष्म लोक में रहता है. फिर, पितरों का आशीर्वाद सूक्ष्मलोक से परिवारवालों को मिलता है। पितृपक्ष में पितृ धरती पर आकर अपने लोगों पर ध्यान देते हैं और उन्हें आशीर्वाद देकर उनकी समस्याएं दूर करते हैं।
धर्म ग्रंथों में निहित है कि चिरकाल में गयासुर नामक एक असुर था। वह जगत के पालनहार भगवान विष्णु का परम भक्त था। गयासुर ने अपने तप से भगवान विष्णु को प्रसन्न कर देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान पा लिया। ऐसा कहा जाता है कि तत्कालीन समय में गयासुर के दर्शन मात्र से व्यक्ति के सभी पाप मिट जाते थे। साथ ही मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती थी। इससे स्वर्ग में अव्यवस्था फैल गई।
यह देख स्वर्ग के देवता चिंतित हो उठे। तब ब्रह्मा जी ने गयासुर से पवित्र स्थल पर यज्ञ करने की इच्छा जताई। यह सुन गयासुर स्वंय गया जी में भूमि पर लेट गए। इसी स्थान पर देवताओं ने गयासुर के शरीर पर यज्ञ किया। हालांकि, गयासुर का शरीर स्थिर रहा। यह जान सभी भगवान विष्णु के पास गए और गयासुर की भक्ति से मुक्ति दिलाने की इच्छा जताई। भगवान विष्णु जी गयासुर के शरीर पर विराजमान हो गए। उससे भी गयासुर विचलित नहीं हुए। उस समय भगवान विष्णु प्रसन्न होकर गयासुर से वर मांगने को कहा।
यह सुन गयासुर बोला-आप अनंत काल तक इस स्थान पर विराजमान रहें। यह सुन भगवान विष्णु भाव विभोर हो गए। गयासुर का शरीर पत्थर में परिवर्तित हो गया। उस समय भगवान विष्णु ने कहा- जो व्यक्ति श्रद्धा भाव से गया में अपने पितरों का पिंडदान करेगा। उसके मृत पूर्वज को मोक्ष की प्राप्ति होगी।
त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने फल्गु नदी के तट पर अपने पिता दशरथ जी का पिंडदान किया था। अतः कालांतर से गया में पितरों का पिंडदान किया जाता है। पितृ पक्ष के दौरान पूर्वज़ों का श्राद्ध किस तिथि पर किया जाए, इस प्रश्न का मान्यताओं अनुसार सही जवाब है कि अगर आपको पितर, पूर्वज़ या परिवार के मृत सदस्य के परलोक गमन की तिथि याद हो तो पितृ पक्ष में पड़ने वाली उक्त तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाना चाहिए। यदि देह त्यागने की तिथि के बारे में पता नहीं हो, तो इस स्थिति में आश्विन अमावस्या को श्राद्ध कर सकते है इसलिए ही इसे सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है। यदि किसी स्वजन की असमय मृत्यु अर्थात किसी दुर्घटना, आत्महत्या आदि से अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को करना चाहिए। पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का श्राद्ध नवमी तिथि को करना उपयुक्त माना गया है।
पंचांग के अनुसार, पितृ पक्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होता है और अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इसे महालय अमावस्या भी कहा जाता है। इस साल श्राद्ध पक्ष 7 सितंबर 2025 से शुरू हो रहे हैं और 21 सितंबर को श्राद्ध पक्ष समाप्त होंगे।
डॉ.आनंद सिंह राणा,