जब मैं आठवीं कक्षा में पहुंचा तब शरीर के साथ-साथ मेरे दिमाग का विकास होता भी मुझे प्रतीत हुआ। शरीर का विकास ऊपर की तरफ और दिमाग का विकास शरारतों की तरफ होने लगा।
फिल्म के पर्दे पर देखे गए स्टंट मेरे लिए चुनौती बनने लगे। मेरा मन एक साथ चार-चार, पांच-पांच लड़कों से लड़ने का करता।
"मम्मी"
"इसकी इजाजत तो पापा ही दे सकते हैं।"
"मुझे तो अपनी नाक नहीं तुड़वानी, तुम्हें तुड़वानी हो तो इजाजत दे दो।"
पापा के अंतिम वाक्य से मैं समझ गया कि मुझे इजाजत नहीं मिलेगी। उस समय मुझे निराशा हुई। मुझे लगा मेरे सपनों का महल टूट गया।
अब मैं अपने आप हवा में अकेले कमरे में अभ्यास करने लगा। यहां न किसी की नाक थी तोड़ने के लिए और न दांत । दीवारें थीं, जो मेरी लात-घूंसों के निशानों से भर गई थीं।
एक स्कूल ही ऐसा था, जहां कभी-कभी अवसर मिल जाता है।
कोई कमजोर-सा मुझसे छोटी क्लास का दिखाई देता तो घूंसा तान देता और यदि कोई बड़ा दिखाई पड़ता तो उसका तना हुआ घूंसा देखने लगता।
आज मैं जब कक्षा में पहुंचा तो तीन-चार विद्यार्थी बैठे थे। यह अच्छा अवसर था अभ्यास का। आज मम्मी ने मुझे सुबह-सुबह दूध भी बहकाकर पिलाया था और पिछली रात को मैंने ब्रूस ली की एक फिल्म भी देखी थी। फिर क्या था, लगा भूमिका बांधने ।
"ओ मुर्गी के चूजो! यहां हमारे रूम में क्या कर रहे हो?"
उनमें से कोई इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाया, वे एक दूसरे का मुंह देखने के बाद अपना-अपना बस्ता संभालने लगे। मैंने अपना बस्ता पटका और उनकी ओर बढ़ा। वह अपने-अपने बस्ते उठाकर चलने लगे। मेरा जोश उबाल लेने लगा।
“रुको, हमारी क्लास में क्यों आए?"
“भैया, भैया!"
"शटअप । मुझे भैया मत कहो । भैया तो मेरी मम्मी सब्जी बेचने वाले और दूधवाले को कहती है।"
एक-दूसरे को देखते हुए सोचने लगे कि मुझे किस संबोधन से पुकारा जाए। जब उन्हें डर और विस्मय से संबोधन नहीं मिला तो मैंने ही दिया।
"हमें बड़े भैया कहो।"
"बड़े भैया, हमें तो क्लास टीचर ने यहां बैठने को कहा था।"
टीचर शब्द सुनते ही मुझे टीचर के आने का डर लगने लगा। मैं उस डर को छिपाकर पुनः फिल्मी अंदाज में बोला- "ठीक है, ठीक है, जाओ यहां से, यह हमारी क्लास है, आठवीं की।"
वे जाने लगे, परंतु मेरी तृप्ति नहीं हुई थी। मैंने फिर ललकारा - "रुको, हमारे पैर छूकर जाओ। हम बड़े भैया हैं, आठवीं क्लास में हैं। चलो... जल्दी करो।"
वे पुनः एक-दूसरे की ओर देखने लगे। जब उन्होंने आदेश का पालन नहीं किया तो मेरा नकली क्रोध बढ़ने लगा।
"चूजो! जल्दी करो नहीं तो एक ही घूंसे में बत्तीसी बाहर कर दूंगा।"
वे आगे नहीं बढ़े, मैं आगे बढ़ा। वे एक-दूसरे के पीछे छिपने लगे। मैंने फिल्मी अंदाज में घूंसा ताना । उनमें से एक चिल्लाया।
"मैम।"
मैम को देखकर मैं अपने अपराध से बचने के मैं रुक गया और वे उस ओर भाग खड़े हुए जिधर से मैम वस्मय से लिए असेम्बली के लिए दूसरे रास्ते से भाग पड़ा। असेम्बली मैं पहुंचकर मैं पंक्ति में अपराधी की तरह खड़ा था।
उसी मैम को चोर आंखों से देख रहा था। चूजों ने मैम से कहा और मैम ने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी तो प्रिंसिपल आज मेरा ब्रूस ली बना देगा।
असेम्बली समाप्त होने लगी और जब कोई भी मुझे खोजने नहीं आया तो मेरा डर रफूचक्कर होने लगा और मैं फिर से क्लास में जाकर भीगी बिल्ली से शेर बनने लगा। लगता है, चूजों ने मेरे डर से मुर्गी से शिकायत नहीं की।
खून नहीं निकला था, इसलिए मुझ में घबराहट नहीं थी। सिर के इस हिस्से को दबाते हुए जब मैंने दीवार की तरफ देखा तो पूरी दीवार जूतों के तलवों के निशानों से भरी थी। मैं चोट को तुरन्त भूल गया। इससे पहले कि छुट्टी खत्म हो, मैं अपना बचाव ढूंढ़ने लगा।
मैं दौड़ा और खेल मैदान में मार-पीट करते हुए अपने साथियों में जा मिला। उनके साथ मार-पीट में इतना लीन हो गया कि इससे पहली बात भूल ही गया। छुट्टी समाप्त होने चली है |
छुट्टी होने से पहले एक साथी का सिर मेरी नाक पर जा लगा और मेरी नाक से खून बह निकला। कुछ लड़कों ने मुझे पकड़ा और कुछ ने उस अपराधी लड़के को। मुझे क्लीनिक ले जाया गया और उस लड़के को मैम के पास। मामला बहुत बढ़ गया। खून से लथपथ मेरी कमीज देखकर विद्यार्थियों, अध्यापिकाओं की
सहानुभूति मेरे साथ थी। उस लड़के को दोषी ठहराते हुए एक बड़ा दंड निर्धारित कर दिया गया।
मुझे हौसला देने प्रिंसिपल साहब क्लीनिक आए और मेरे सिर पर हाथ रखकर बोले "चोट कैसे लगी बेटा?"
इसका उत्तर मैम ने वह कहानी सुनाकर दिया, जो मैम को दूसरे लड़कों ने सुनाई थी। इस कहानी में मेरे प्रति सहानुभूति और अपराधी के प्रति कटु शब्द थे। मुझे अच्छा और होनहार लड़का सिद्ध कर दिया गया। प्रिंसिपल ने कहानी सुनकर अपना फैसला सुनाया।
"ठीक है, मैं अभी उस लड़के को स्कूल से निकाल देता हूं। उसके माता-पिता को बुलवाओ और उसे निकालने के लिए लैटर तैयार करवाओ।"
यह आदेश देकर उन्होंने मेरे सिर पर पुनः हाथ फेरा और मेरी पहली चोट को दबा दिया। मैं दर्द से कराहा। वे बोले-“क्या यहां भी चोट लगी है?"
मैंने 'हां' में सिर हिला दिया। अब तो प्रिंसिपल साहब का क्रोध और बढ़ गया।
"क्या नाम है उस लड़के का?"
मैम ने उत्तर दिया-"सर, सतीश ।”
उन्होंने एक कागज पर उसका नाम और क्लास लिखी और नर्स को बुलाकर कहा-"नर्स, इस बच्चे का खास ख्याल रखना। आज इसे पूरी छुट्टी तक क्लीनिक में ही रखो।"
प्रिंसिपल साहब फिर मेरी तरफ मुड़े।
"तुम तो बहादुर बाप के बहादुर बेटे हो। क्या करते हैं
तुम्हारे पापा?"
“जी, बिजनैस ।”
"अरे बिजनैस करने वालों के बच्चे तो बहुत बहादुर होते हैं, वे छोटी-मोटी चोटों से नहीं घबराया करते। हमें स्कूल में ऐसे ही बहादुर और लायक बच्चों की जरूरत है। सतीश जैसे नालायकों की नहीं। अभी निकलवाता हूं, उस नालायक को स्कूल से।"
मेरी आंखों में आंसू आ गए।
"रोओ नहीं बेटे। घबराओ नहीं, हम उस सतीश को बिल्कुल भी नहीं छोड़ेंगे। नर्स, इसे कुछ खाने को भी दो।"
यह कहकर प्रिंसिपल साहब चले गए और मैं जोर-जोर से रोने लगा। सहानुभूति ने लायक को नालायक और नालायक को लायक बना दिया, जबकि सतीश जैसा लायक बच्चा क्लास में दूसरा नहीं था। उसी की कॉपी लेकर मैंने आधी छुट्टी में काम पूरा किया था। सतीश जैसा अच्छा दोस्त मुझे जीवन-भर नहीं मिल सकता था। मैं अपने रोने को रोक नहीं पा रहा था। नर्स मेरे रोने को दर्द समझ, दर्द दूर करने की दवा लिए खड़ी थी।
मुझे देखने के लिए एक के बाद एक अध्यापिकाएं आ रही थीं। सतीश के प्रति किसी की भी सहानुभूति न थी। मैं कैसे कहता कि सब कुछ गलत हो रहा है। अंदर-ही-अंदर मैं घुटन महसूस कर रहा था। मेरी कक्षा की अध्यापिका हाथ में एक लैटर लेकर मेरा हाल जानने आईं। उन्होंने मेरी आंखों में आंसू देखे।
आंसू पोंछते हुए वे बोलीं-"नितिन, घबराओ नहीं, तुम ठीक हो जाओगे। ये देखो, यह है वह लैटर जिसमें प्रिंसिपल साहब ने सतीश को स्कूल से निकाल दिया है। अब वह अपना बस्ता लेकर घर जा रहा है।"
मेरे मन में तूफान खड़ा हो गया। मैं और रोने लगा। मेरे होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ा रहे थे। मैंने उठते हुए मैम के सामने हाथ जोड़े।
मैम बोली -"बोलो नितिन बोलो। क्या कहना चाहते हो?"
मैम पूछती रहीं। मैं कुछ बोल नहीं पाया। रोते-रोते मेरी चीख जोर से निकली और मैं बिस्तर पर गिर पड़ा। जब मुझे होश आया तो मैंने अपने आपको अस्पताल में पाया। मेरे शरीर में ग्लूकोज चढ़ाया में जा रहा था। मेरे माथे पर पट्टियां रखी जा रही थीं, रात के दस बज चुके थे। कमरे में चार बिस्तर थे और बारह मरीज, पलंग पर जगह नहीं मिली, वे फर्श पर बिस्तर लगाए लेटे थे। पूरे कमरे में घूम कर मेरी निगाह मेरे अपने बिस्तर पर रुकी। मेरे पास अब अकेली मां थीं। मेरी खुली आंखें देखकर बोलीं-"पानी दूं बेटा।" नर्स मरीजों को दवा दे-देकर सोने का आदेश दे रही थी। आज के मरीजों के लिए यह अंतिम खुराक थी। मुझे जागते देख, नर्स ने मुझे भी दो गोलियां खाने को दीं।
मां बताने लगीं "अभी-अभी तेरे पिताजी और प्रिंसिपल साहब यहां से गए हैं।"
प्रिंसिपल शब्द सुनते ही मुझे स्कूल की याद आ गई। एक-एक चित्र मेरी आंखों के सामने घूमने लगा। सतीश की याद आते ही मेरी आंखें फिर भर आईं। मां लगातार मेरा चेहरा देख रही थीं। आंखों में आंसू देखकर बोल पड़ीं- “दर्द है बेटा, मैं नर्स को बुलाती हूं।"
मैंने हाथ से नहीं का इशारा किया और मां की तरफ पीठ करके लेट गया। मां ने सिर के स्थान से अब मेरी पीठ पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। मां का हाथ धीरे-धीरे रुक गया। मैंने पीछे घूमकर देखा मां बैठे-बैठे सो गई हैं। उन्हें सोते देख मेरे शरीर में बिजली दौड़ने लगी। मैंने बोतल को देखा। ग्लूकोज एक-एक बूंद निकल रहा था। मैंने अपने खाली हाथ से दूसरे हाथ में लगी सुई निकाल दी। कमरे में सभी को एक चोर नजर से देखा। मां को देखा। मैं चुपके से बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। जैसे ही मैं कमरे से बाहर आया मेरा उत्साह दुगना हो गया।