भारत में एकात्म मानववाद के सिद्धांत को अपनाकर हो आर्थिक विकास
Date : 22-Nov-2024
भारतीय संस्कृति के अनुसार ही भारतीय आर्थिक दर्शन में भी सृष्टि की समस्त इकाईयों, अर्थात व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समष्टि को एक माला की कड़ी के रूप में देखा गया है। एकता की इस कड़ी को ही पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ बताया है। एकात्म मानववाद वैदिक काल से चले आ रहे सनातन प्रवाह का ही युगानुरूप प्रकटीकरण है। सनातन हिंदू दर्शन आत्मवादी है। आत्मा ही परम चेतन का अंश है। पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने समाज और राष्ट्र में भी चित्त, आत्मा, मन, बुद्धि एवं शरीर आदि का समुच्चय देखा है। अतः इस एकात्म मानववादी दर्शन के उतने ही आयाम एवं विस्तार है, जितनी मनुष्य की आवश्यकताएं हैं। इन विभिन्न आवश्यकताओं का केंद्र बिंदु अर्थ को ही माना गया है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की परिभाषा में लिखा है कि अर्थशास्त्र का मुख्य अभिप्राय, अप्राप्ति की प्राप्ति; प्राप्ति का संरक्षण तथा संरक्षित का उपभोग है। एकात्म मानववाद में भी आर्थिक व्यवहार उक्त आधारों पर ही टिके होते हैं। इस प्रकार, अर्थशास्त्र की दिशा स्वतः ही विकासवादी हो जाती है।
पश्चिम के विकासवादी दर्शन का केंद्र मुनाफा, स्वार्थ एवं लाभ है। परंतु, हिंदू आर्थिक चिंतन के आधार पर खड़े एकात्म मानववाद का आधार अथवा केंद्र परमार्थ है। इसलिए एकात्म मानववादी आर्थिक विकास में विकास केवल अर्थ के लिए नहीं वरन परमार्थ के लिए है। हिंदू आर्थिक दर्शन परम्परा में विकास की अवधारणा को समग्रता में व्यक्त किया गया है। यह विकास त्रिगुण आधारित है। इस त्रिगुण में - सत, रज एवं तम सम्मिलित है। प्राचीन भारतीय चिंतन में सत्तवादी विकास श्रेष्ठ माना गया है। इस सत्तवादी विकास के तत्व हैं ज्ञान, तपस्या, सदकर्म, प्रेम एवं समत्वभाव तथा इसकी उपस्थिति सतयुग में मानी गई है। विकास का दूसरा स्वरूप रजस को माना गया। इस रजसवादी विकास के तत्व हैं अहंबुद्धि, प्रतिष्ठा, मानबढ़ाई, लौकिक, पारलौकिक सुखा मत्सर, दम्भ एवं लोभ तथा इसकी उपस्थिति त्रेतायुग में मानी गई है। इसे मानवीय और मध्यम माना गया है। इसी प्रकार, विकास का तीसरा स्वरूप तमस को माना गया है। इस तमसवादी विकास के तत्व हैं असत्य, माया, कपट, आलस्य, निंदा, हिंसा, विषाद, शोक, मोह, भय तथा इसकी उपस्थिति कलयुग में मानी गई है। इस प्रकार सत, रज एवं तम गुणों के आधार पर उक्त विकास के तीन रूपों के साथ एक मिश्रित विकास का भी मॉडल माना गया है, जिसमें रजस एवं तमस गुण मिले होते हैं और इस मॉडल की उपस्थिति द्वापर युग में मानी गई है।
भारत के प्राचीन ग्रंथों में यह माना गया है कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी भी है एवं ‘आहार, निद्रा, भय, मैथुन, आर्थिक आवश्यकताओं, आदि’ की तृप्ति की बात भारत में भी कही गई है। इन जरूरतों की पूर्ति होना चाहिए, इस तथ्य को भी स्वीकार किया गया है। किंतु भारत में मनुष्य को आर्थिक प्राणी से कुछ ऊपर भी माना गया है। मनुष्य आर्थिक प्राणी के साथ साथ वह एक शरीरधारी, मनोवौज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है। भारतीय मनुष्य के व्यक्तित्व के अनेकानेक पहलू है। अतः यदि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार नहीं हुआ तो उसको सुख समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए भारत में इस दृष्टि से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है। मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इन आवश्यकताओं पर कुछ वांछनीय मर्यादा होना भी आवश्यक है। गीता के तृतीय अध्याय के 42वें श्लोक में कहा गया है कि इंद्रियां (विषयों से) ऊपर स्थित हैं, इंद्रियों से मन उत्कृष्ट है। बुद्धि मन से भी ऊपर अवस्थित है, जो बुद्धि की अपेक्षा भी उत्कृष्ट है और उससे भी अगम्य है - वही आत्मा है। अतः काम को स्वीकार करने के उपरांत भी उसे अनियत्रिंत नहीं रहने दिया गया है। काम की पूर्ति धर्म के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए, ऐसा भारतीय शास्त्रों में कहा गया है।
प्राचीन भारत में अर्थ के महत्व को भी स्वीकार किया गया है एवं अर्थशास्त्र की रचना भी हुई है। यह माना जाता रहा है कि राज्य के समस्त नागरिकों की भौतिक आवश्यकताओं की पर्याप्त पूर्ति होनी चाहिए ताकि इसके अभाव में अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को 24 घंटे चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़े। राज्य के नागरिकों को पर्याप्त अवकाश मिल सके, जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य और भगवान आदि के बारे में चिन्तनशील हो सके। इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर साथ ही यह भी कहा गया है कि एक व्यक्ति का अर्थ और काम उसके विनाश का अथवा समाज के विघटन का कारण न बने। इस दृष्टि से भारत के प्राचीन दृष्टाओं ने विशिष्ट दर्शन दिया था। उसमें विश्व की धारणा के लिए शाश्वत नियम और सार्वजनिक नियम देखे थे, उनका दर्शन किया था। व्यक्ति को विनाश से बचाने के लिए, समाज को विघटन से बचाने के लिए एवं व्यक्ति के परम उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक नियमों के प्रकाश में जो अवस्था उन्होंने बनायी उसके समुच्चय को धर्म कहा गया। इस धर्म के अंतर्गत अर्थ और काम की पूर्ति का भी विचार हुआ। साथ ही, प्रत्येक व्यक्ति परम सुख यानी मोक्ष प्राप्त कर सके, इसका चिंतन भी हुआ। इस प्रकार धर्म और मोक्ष के मध्य अर्थ और काम को रखते हुए चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना भारत में ही की गई है। इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्मवादी कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त्त नहीं हुआ। यह आत्मविहीन एवं मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ प्राणी न बन सका। इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्शन चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा।