शोलापुर के युद्ध में विजयी होकर राजा मानसिंह राजधानी को लौट रहा था कि रास्ते में उसने अपने आने का समाचार राणा प्रताप को भेजा। वे उस समय कमलमीर में थे और उन्होंने उदयगिरि में उससे मिलने और उसके भोजन का प्रबन्ध किया। जब मानसिंह को भोजन-स्थल पर प्रताप की जगह उनका पुत्र अमरसिंह दिखाई दिया, तो उसने प्रताप के सम्बन्ध में पृच्छा की। अमरसिंह ने उत्तर दिया, "मस्तकशूल के कारण वे आ नहीं सकते।" बात मानसिंह ने ताड़ ली। वह बोला, "मैं इस शूल को खूब जानता हूँ, मगर जान लो कि अब इसकी कोई औषधि नहीं।" तभी अन्दर से राणा ने आवेश-भरे शब्दों में कहा, "तो तुम भी जान लो कि मैं उस राजपूत के साथ कभी भोजन नहीं कर सकता, जो अपनी बहू-बेटियों का विवाह एक तुर्क के साथ कर सकता है।" यह सुन मानसिंह अपमानित मानकर बिना भोजन किये उठ खड़ा हुआ और बोला, "अगर आप अपनी बहू-बेटियाँ तुर्कों को नहीं दे सकते, तो इसका यह अर्थ हुआ कि आप स्वयं खतरा मोल ले रहे हैं। जान लो, मैं इस अपमान का बदला लूँगा। अब यह मेवाड़ आपका न रहेगा।"
यह सुन प्रताप ने भी उत्तर दिया, "मैं इसके लिए तैयार हूँ।" फिर प्रताप ने भोजनस्थल को खोदा और उसमें सारे भोजन-पात्र गाड़कर उन पर गंगाजल छिड़का। इतना ही नहीं, जिन्होंने मानसिंह को देखा था, उन्होंने स्नान कर नये वस्त्र पहने।