अर्थनाश मनस्तापं गृहिण्याश्चरितानि च।
नीचं वाक्यं चापमानं मतिमान्न प्रकाशयेत ॥
आचार्य चाणक्य कुछ व्यवहारों में गोपनीयता बरतने के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए बताते हैं कि धन का नाश हो जाने पर, मन में दुःख होने पर, पत्नी के चाल-चलन का पता लगने पर, नीच व्यक्ति से कुछ घटिया बातें सुन लेने पर तथा स्वयं कहीं से अपमानित होने पर अपने मन की बातों को किसी को नहीं बताना चाहिए। यही समझदारी है।
भाव यह है कि धन-हानि, गृहिणी के चरित्र, नीच के शब्द तथा अपने निरादर के विषय में किसी को भी बताने से अपनी ही हंसी होती है। अतः इन सब बातों पर चुप रहना ही अच्छा है। क्योंकि यह स्वाभाविक है कि व्यक्ति को धननाश पर मानसिक पीड़ा होती है। वह विपन्नता का अनुभव करता है। यदि पत्नी दुश्चरित्र हो, तो इस दशा में भी उसे मानसिक व्यथा सहन करनी पड़ती है। यदि कोई दुष्ट उसे ठग लेता है अथवा कोई व्यक्ति उसका अपमान कर देता है तो भी उसे दुःख होता है। परन्तु बुद्धिमत्ता इसी में है कि मनुष्य इन सब बातों को चुपचाप बिना किसी दूसरे पर प्रकट किए सहन कर ले, क्योंकि जो इन बातों को दूसरों पर प्रकट करता है, अपमान के साथ-साथ लोग उसकी हंसी भी उड़ाते हैं। इसलिए उचित यही है कि इस प्रकार के अपमान को विष समझकर चुपचाप पी जाए।