हर साल 9 जुलाई को हम एक असाधारण फिल्मकार, अभिनेता और निर्माता गुरु दत्त को याद करते हैं, जिनका जन्म 9 जुलाई 1925 को बेंगलुरु में हुआ था और दुखद निधन 10 अक्टूबर 1964 को हो गया। बेशक उनका जीवन छोटा था, लेकिन उन्होंने हिंदी सिनेमा पर एक अमिट छाप छोड़ी।
बेंगलुरु में वसंतकुमार शिवशंकर पाडुकोण के रूप में जन्मे, जो बाद में गुरु दत्त के नाम से मशहूर हुए। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक नर्तक और कोरियोग्राफर के तौर पर की, लेकिन जल्द ही निर्देशन और अभिनय में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
1951 में, उन्होंने देव आनंद की फिल्म 'बाज़ी' का निर्देशन किया, जिसने हिंदी सिनेमा में एक नया 'नोयर' अंदाज़ पेश किया। उनकी कुछ सबसे प्रतिष्ठित फिल्में हैं:
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'प्यासा' (1957): विषाद और मानवीय व्यथा से भरी यह फिल्म रिलीज़ के बाद धीरे-धीरे एक क्लासिक बन गई और इसे टाइम पत्रिका की "ऑल टाइम 100" फिल्मों में भी जगह मिली।
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'कागज़ के फूल' (1959): यह भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी और तकनीकी रूप से बेहद आधुनिक थी, लेकिन रिलीज़ के समय यह असफल रही। बाद में इसे 'कल्ट क्लासिक' का दर्जा दिया गया।
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'साहिब बीबी और गुलाम' (1962): अबरार अल्वी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में गुरु दत्त ने निर्माण और अभिनय दोनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मीना कुमारी के साथ उनकी केमिस्ट्री को सराहा गया और फिल्म को राष्ट्रीय तथा ऑस्कर सम्मानों के लिए नामांकित किया गया।
उनकी अन्य हिट फिल्मों में 'आर-पार' (1954), 'मिस्टर एंड मिसेज '55' (1955), और 'चौदहवीं का चाँद' (1960) शामिल हैं, जिन्हें दर्शकों और आलोचकों दोनों ने खूब सराहा।
गुरु दत्त की फिल्में पीड़ा और मोहब्बत दोनों को अद्भुत कथा-शैली और गीतों के साथ प्रस्तुत करती थीं, जिसमें हर शॉट गहरी भावना लिए होता था। उन्होंने प्रकाश और छाया का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया, खासकर फिल्म 'प्यासा' में, जहाँ कवि विजय की आंतरिक यातनाएं कैमरे में बखूबी कैद होती हैं। उनकी फिल्मों में महिला चरित्रों को मजबूत और जटिल व्यक्तित्व दिया गया, जैसे 'कागज़ के फूल' में आभा, 'मिस्टर एंड मिसेज '55' में मधुबाला, और 'साहिब बीबी और गुलाम' में मीना कुमारी।
गुरु दत्त का जीवन कई चुनौतियों से भरा था – 'कागज़ के फूल' की असफलता, वित्तीय संकट, पारिवारिक संबंधों की उलझनें और अवसाद ने उन्हें काफी प्रभावित किया। 1964 में उनकी संदिग्ध मौत (नींद की गोलियों और शराब के सेवन से) ने एक रहस्य को जन्म दिया – आत्महत्या या दुर्घटना, जो आज भी चर्चा का विषय है।
गुरु दत्त की निर्माण शैलियों ने युवा निर्देशकों को औपचारिक बाधाओं से परे जाकर फिल्में बनाने की प्रेरणा दी। 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया, उनकी भावनात्मक गहराई और सिनेमाई सुंदरता ने उन्हें भारतीय और विश्व सिनेमा में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।
गुरु दत्त केवल एक निर्देशक या अभिनेता नहीं थे; उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक भावनात्मक, कलात्मक और तकनीकी क्रांति दी। उनकी फिल्में आज भी उसी तीव्र भावनात्मक ज्वार के साथ दिलों को छू रही हैं। उनकी जयंती हमें उनकी उत्कृष्टता, संवेदनशीलता और साहसिकता को याद करने और सम्मानित करने का अवसर देती है। उनकी कला हमें सिखाती है कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं है – वह जीवन, दुःख, प्रेम और आत्मा की गहराइयों का दर्पण भी है।