धनधान्य प्रयोगेषु विद्या संग्रहेषु च।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् ।।
यहां आचार्य चाणक्य व्यक्ति को लाज-संकोच करने के संदर्भ में बता रहे हैं कि धन 'और अनाज के लेन-देन, विद्या प्राप्त करते समय, भोजन तथा आपसी व्यवहार में लज्जा न करनेवाला सुखी रहता है।
भाव यह है कि निम्नलिखित बातों में लज्जा न करना ही लाभदायक है-किसी को धन उधार देते समय, किसी से लेते समय या किसी से अपना पैसा वापस लेते समय या अनाज आदि के लेन-देन में किसी प्रकार लज्जा-संकोच नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार विद्या ग्रहण करते समय यदि कोई बात समझ में न आए या किसी प्रकार का संदेह हो या भोजन करते समय अथवा किसी भी प्रकार के बात-व्यवहार में।
वस्तुतः मनुष्य के लिए उचित है कि वह लेन-देन में, लिखा-पढ़ी कर ले। विद्या के संग्रह में और खाने-पीने के मामले में भी यदि संकोच करेगा तो भी सम्बन्ध स्थिर नहीं रह पायेंगे। सम्बन्धियों से व्यवहार में भी मधुर, सत्य एवं स्पष्ट रहना चाहिए। अतः आवश्यक है कि व्यक्ति को संकोच छोड़कर सदा सच्ची बात करनी चाहिए और व्यावहारिक मार्ग अपनाना चाहिए। पैसे के लेन-देन में हिसाब-किताब जरूरी है।