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जयंती विशेष: जानें, भारत के प्रथम राष्ट्रपति का प्रेरणादायक जीवन

Date : 03-Dec-2024

3 दिसंबर 1884 को जन्मे भारत के प्रथम राष्ट्रपति, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की जयंती आज है। भारतीय राजनीति में त्याग, सादगी, और ईमानदारी का आदर्श प्रस्तुत करने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे। वे महात्मा गांधी के सबसे करीबी और प्रिय सहयोगी थे। गांधीजी ने उनके बारे में कहा था कि अगर उन्हें विष का प्याला भी दिया जाए, तो वे बिना संकोच उसे स्वीकार कर लेंगे।

चंपारण सत्याग्रह में उनकी भूमिका बेहद अहम रही, और इस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना "दायां हाथ" मानने लगे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म बिहार के जिरादेई गांव में 3 दिसंबर 1884 को हुआ। उनकी जयंती के अवसर पर, आइए उनके जीवन से जुड़े कुछ प्रेरक और रोचक तथ्यों को जानते हैं:

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

जीरादेई में जन्मे और वहीं से अपनी पढ़ाई शुरू की, छपरा जिला स्कूल के छात्र रहे.

18 वर्ष की आयु में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की

राजेंद्र बाबू ने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से लॉ में पीएचडी की

हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और बांग्ला पर समान नियंत्रण था

13 वर्ष की उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी से हुआ, वैवाहिक जीवन के दौरान उनकी पढ़ाई जारी रही

महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थे, कम से कम दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने और स्वतंत्रता-पूर्व सरकार में मंत्री रहे

देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के जिरादेई गांव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे और किसी भी जाति या धर्म के लोगों के साथ आसानी से घुल-मिल जाते थे। जब वे 13 वर्ष के थे, तो उनकी शादी राजवंशी देवी से कर दी गई थी।

राजेंद्र बाबू पढ़ाई में बहुत तेज थे। उन्होंने 18 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षा पास की और उसमें प्रथम स्थान प्राप्त किया, जिसके लिए उन्हें 30 रुपये की स्कॉलरशिप मिली थी। इसके बाद, 1902 में उन्होंने कलकत्ता प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया, जहां से उन्होंने लॉ में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की। एक बार, उनकी परीक्षा कॉपी को चेक करने वाले शिक्षक ने टिप्पणी की थी, "परीक्षा देने वाला परीक्षा लेने वाले से ज्यादा बेहतर है।"

सामाजिक कार्यों में भी उनकी भागीदारी थी। 1906 में उन्होंने बिहारियों के लिए एक स्टूडेंट कॉन्फ्रेंस की स्थापना की, जिससे श्री कृष्ण सिन्हा और डॉ. अनुग्रह नारायण जैसे कई महान नेता उभरे। इसके अलावा, डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1913 में डॉन सोसायटी और बिहार छात्र सम्मेलन के प्रमुख सदस्य थे।

राजेंद्र बाबू हमेशा लोगों की सेवा में अग्रसर रहते थे। 1914 में जब बंगाल और बिहार में भीषण बाढ़ आई, तो उन्होंने पीड़ितों की मदद की। 1934 के भूकंप और बाढ़ के बाद जब बिहार मलेरिया से ग्रसित था, तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने स्वयं पीड़ितों के बीच कपड़े और दवाइयां वितरित कीं।

नमक सत्याग्रह में निभाई अहम भूमिका

राजेंद्र प्रसाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर बिहार में एक प्रमुख नेता के रूप में पहचान बनाई। महात्मा गांधी से प्रेरित होकर, उन्होंने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका निभाई। इस आंदोलन के दौरान उन्हें बिहार का प्रमुख नेता नियुक्त किया गया था।

नमक सत्याग्रह में महत्वपूर्ण भूमिका:

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़कर बिहार में एक प्रमुख नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। महात्मा गांधी से प्रेरित होकर, उन्होंने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' में सक्रिय भूमिका निभाई और इस आंदोलन के दौरान बिहार के प्रमुख नेता के रूप में कार्य किया।

दो बार बने कांग्रेस के अध्यक्ष:

डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1934 से 1935 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। इसके बाद, उन्हें 1935 में कांग्रेस के बॉम्बे अधिवेशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 1939 में सुभाष चंद्र बोस के त्यागपत्र के बाद, उन्हें जबलपुर अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया और 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी उन्होंने भाग लिया।

12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहे:

राजेंद्र बाबू ने 2 दिसंबर 1946 को अंतरिम सरकार में खाद्य और कृषि मंत्री के रूप में कार्य शुरू किया। स्वतंत्रता के बाद, वह भारत के पहले राष्ट्रपति बने और वह देश के इकलौते राष्ट्रपति हैं जिन्हें दो बार लगातार चुना गया। वह 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहे।

बहन के निधन के अगले दिन गणतंत्र दिवस पर सलामी:

राष्ट्रपति पद के दौरान, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की बड़ी बहन भगवती देवी का 25 जनवरी 1960 को निधन हुआ। उनकी मृत्यु से गहरे दुखी होने के बावजूद, वह गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए पहुंचे। वह पूरी रात अपनी बहन के शव के पास बैठे रहे और सुबह परेड की सलामी लेने पहुंचे, जहां वह पूरी तरह शांत और समर्पित रहे।

1963 में निधन:

1962 में राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत्त होने के बाद, भारत सरकार ने उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। 28 फरवरी 1963 को उनका निधन हो गया। उनके चेहरे पर हमेशा एक मधुर मुस्कान रहती थी, जो सभी को आकर्षित करती थी।

 

 
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