एक बार सिक्ख-शिरोमणि गुरु गोविन्दसिंह यमुना नदी के किनारे बैठे थे। उनका एक धनिक भक्त वहाँ आया और उन्हें प्रणाम कर उसने श्रद्धावश उनके सम्मुख स्वर्ण के दो कंगन रखकर उन्हें स्वीकार करने की प्रार्थना की। गुरु ने एक कंगन उठाकर उस पर उँगली फेरनी शुरू की। धनिक ने देखा कि हाथ फेरते-फेरते वह कंगन छूटकर नदी में गिर गया। वह फौरन वहाँ गया और उसे निकालने के लिए नदी में हाथ डाला, किन्तु काफी खोजने पर भी वह न मिला। यह देख गुरु ने दूसरा कंगन भी फेंकते हुए कहा, “अरे, तुम तो दूसरी जगह ढूँढ़ रहे थे। वह कंगन इस स्थान पर गिरा है।" अब तो वह धनिक आश्चर्यचकित हो उनका मुँह ताकने लगा। तब गुरु बोले, "याद रखो, सोना, चाँदी, रुपये-पैसे इत्यादि का मोह कभी नहीं करना चाहिए। ये मनुष्य को रसातल की ओर ले जाते हैं। तुमने मुझे भले ही प्रेमवश ये कंगन भेंट करने चाहे, किन्तु ये मेरे लिए मिट्टी के समान थे। इसीलिए मैंने इन्हें नदी की मिट्टी में मिला देना चाहा।" यह सुन उस धनिक को ग्लानि हुई कि व्यर्थ ही वह एक महात्मा को स्वर्ण प्रलोभन दे रहा था।