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पंच प्रण का महत्वपूर्ण मुद्दाः साम्राज्यवादी मानसिकता से छुटकारा

Date : 22-Nov-2025



भारतीय स्वाधीनता को मिले आज 78 वर्ष हो गए। देश ने विकास के नए अंतरिक्ष स्पर्श किए हैं, लेकिन अंग्रेजीराज के और उसके बाद भी साम्राज्यवादी परंपराएं विद्यमान हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि अगले 20 वर्षों में गुलामी के प्रतीक समाप्त करेंगे। भारत का मन बदल रहा है। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। संप्रभु राष्ट्र राज्य किसी दूसरे देश की सभ्यता का अनुकरण नहीं करते। साम्राज्यवादी मानसिकता से छुटकारा पाना पंच प्रण में एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। प्रधानमंत्री ने उचित ही इस मामले को फिर से दोहराया है।

स्वाधीनता संग्राम के समय गांधीजी का जोर भी इस बात पर था। ब्रिटिश संसद में लॉर्ड मैकाले ने भी भारतीय संस्कृति को नष्ट करने वाले विचार व्यक्त किए थे। कहा था, ”उच्चतर जीवन मूल्य और उत्कृष्ट क्षमताओं को देखते हुए भारतवासियों पर तब तक विजय नहीं प्राप्त हो सकती जब तक भारत की सांस्कृतिक परंपरा की सशक्त रीढ़ नहीं तोड़ी जाती।” मैकाले जानता था कि सांस्कृतिक परंपरा में ही राष्ट्र का वैभव अंतर्निहित है। गांधीजी अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे। यह आंदोलन राष्ट्रव्यापी था। राष्ट्रीय आन्दोलनकारी अंग्रेजी सरकार के साथ ही अंग्रेजी सभ्यता से भी टकरा रहे थे। गांधीजी ने मैकाले के ज्ञान को अधम बताकर सत्याग्रही आक्रामकता का मार्ग चुना था। उन्होंने ’हिन्द स्वराज’ में लिखा था, ”मैकाले हिन्दुस्तानियों को कमजोर मानता है। वह उसकी अज्ञान दशा है।” गाँधीजी ने कहा, ”हिन्दुस्तानी कभी कमजोर नहीं रहे। खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं, जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे।”

भारतीय इतिहास का विरूपण किया गया। यूरोपीय विद्वानों ने इतिहास के साथ छल किया। आर्य भारत के मूल निवासी हैं। उन्हें योजनाबद्ध तरीके से विदेशी हमलावर बताया गया। कहा गया कि आर्य बाहर से आए और उन्होंने यहां की सभ्यता नष्ट कर दी। साम्राज्यवादी शक्तियों का तर्क था कि भारत में शक और हूण आए थे। सातवीं शताब्दी में इस्लाम आया। हमलावरों ने देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में लूटपाट की। उन्होंने देश पर कब्जा कर लिया, फिर यहां मुगलों का शासन हो गया। उन्होंने भारतीय संस्कृति और परंपरा के अनुसार जीवन यापन को कष्टप्रद बनाया। उसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी आई। कंपनी यहां व्यापार करने आई थी और सत्ताधीश हो गई। लगभग 200 साल तक ब्रिटिश सत्ता ने भारत की धन संपदा को लूटने का काम किया। उन्होंने स्कूली पाठ्यक्रम को भी विदेशी रंग में रंग दिया। साम्राज्यवादी शक्तियों का तर्क था कि वह भारत के लोगों को शिक्षित कर रहे हैं। अंग्रेजीराज का विरोध करने वाले लोगों का तर्क था कि भारत विदेशी सत्ता के अधीन ही रहता है। कभी इस्लामी शासको के रूप में और कभी अंग्रेजों के रूप में। उनकी माने तो भारत एक होटल जैसा है। यहां विदेशी आते हैं। लूटपाट करते हैं। आर्यों को हमलावर बताना भी इसी रणनीति का हिस्सा था।

अंग्रेजों द्वारा प्रचारित आर्य आक्रमण का कोई साक्ष्य इतिहास में नहीं मिलता। डॉक्टर अम्बेडकर ने भी ’हू वेयर शूद्राज’ में आर्यों आक्रमण की बात को गलत बताया है। उन्होंने कहा कि आर्यों का सबसे बड़ा ग्रंथ ऋग्वेद है। ऋग्वेद में कहीं भी आर्य आक्रमण नहीं मिलता। डॉ. अम्बेडकर ने भारत में बहने वाली नदियों का उल्लेख किया है। ऋग्वेद के ऋषि यहां की नदियों के गीत गाते हैं। अगर आर्य दूसरे देश से आए थे, तो उनके साहित्य में वहां की नदियों के उल्लेख क्यों नहीं है? ऋग्वेद की सबसे प्रिय दो नदियां हैं। सरस्वती और सिन्धु। सिन्धु प्रत्यक्ष हैं और सरस्वती किसी प्राकृतिक घटना के कारण विलुप्त हो गईं थीं। सरस्वती की शोध जारी है। वैदिक संस्कृति को इतिहास से बाहर करना, साम्राज्यवादी साजिश का ही हिस्सा है। इस मनोग्रंथि से शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा पाने की आवश्यकता है।

लगभग 200 वर्ष के लंबे शासन में भारत पर अंग्रेजी सभ्यता के प्रभाव पड़ रहे थे। कुछ लोग अंग्रेजों को प्रशंसा की दृष्टि से देखते थे। कुछ लोग अंग्रेजों को भारतीय राष्ट्र निर्माण का श्रेय दे रहे थे। गांधीजी ने इस बात को गलत बताया और कहा कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, पूरी अंग्रेजी सभ्यता मानवता विरोधी है। उन्होंने ब्रिटिश सभ्यता को भारत के लिए खतरनाक बताया।

दरअसल, अंग्रेजों का ज्ञान उधार का है। प्राचीन रोम और यूनान यूरोप के प्रेरणास्रोत रहे हैं। भारत का दर्शन जब धरती आकाश नाप रहा था, तब तक अंग्रेजों की अपनी कोई दार्शनिक परंपरा विकसित नहीं हो पाई थी। आखिरकार भारत के लोग कालवाह्य सभ्यताओं के चक्कर में क्यों फंसे हुए हैं? उन्होंने लिखा, ”जो रोम और ग्रीस गिर चुके हैं, उनकी किताबों से यूरोप के लोग सीखते हैं।” उन्होंने लिखा, ”सभ्यता वह आचरण है, जिससे व्यक्ति अपना फर्ज अदा करता है।” भारत आदिकाल से ही सामूहिक जीवन में है, इसीलिए मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। पूर्वजों ने परस्पर मेल मिलाप का आचार शास्त्र विकसित किया था। सामाजिक संगठन की मजबूती के लिए अनेक स्तर पर प्रयास करने होते हैं। भारतीय ऋषियों ने, “सबके साथ-साथ चलने, परस्पर संवाद करने और सभा समितियों के माध्यम से कर्तव्य निर्धारित करने की व्यवस्था की है।“

ऋग्वेद के आखिरी सूक्त में ऋषि कहते हैं, ”हम साथ-साथ चलें-संगच्छध्वं-संवदध्वं-हम साथ-साथ वार्तालाप करें। हमारी समितियां समान हों। मन समान हों।” पूर्वज भी ऐसी ही उपासना करते रहे हैं, लेकिन ब्रिटिश सत्ता अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहती थी। गांधी जी ने लिखा, ”अंग्रेज हिंदुस्तानी बनकर रहे तो हम उनको यहां समावेश कर लेंगे।” भारत की सभ्यता की क्षति राष्ट्रवादियों के बर्दाश्त के बाहर थी। गांधीजी ने लिखा, ”अंग्रेज अगर अपनी सभ्यता के साथ रहना चाहें, तो उनके लिए हिंदुस्तान में जगह नहीं है।” यह गांधीजी ने बहुत बड़ी बात कह दी है।” उन्हें अपना भारतीयकरण करना चाहिए। ईसाईकरण भारतीय सभ्यता पर खतरा है। ईसाई मिशनरियां राष्ट्रीय चरित्र बिगाड़ रही हैं। अन्य भी कई वर्ग भारत में ऐसा ही कर रहे हैं।

स्वाधीनता आन्दोलन भारतीय संस्कृति, दर्शन और सभ्यता का ही प्रतिनिधि था। ब्रिटिश सत्ता व सभ्यता से सीधा संघर्ष करने के लिए गांधीजी ने अनेक विदेशी विद्वानों का उल्लेख किया। उन्होंने ’इंडियन एम्पायर’ पुस्तक से तमाम उद्धरण दिए। उन्होंने मैक्समूलर के लेखन से भारतीय दर्शन की श्रेष्ठता सिद्ध करने वाले अनेक उदाहरण दिए। उन्होंने एच. एस. मेन की पुस्तकों से पाणिनि के व्याकरण और भारतीय भाषा विज्ञान की प्राचीनता वाले हिस्से उद्धरत किए। यूरोप के पास विश्व मानवता को देने के लिए कुछ नहीं था। दर्शन यूनान की उधारी है। चिकित्सा विज्ञान भारत से अरब गया था और अरब से यूरोप। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार गणित के अंक भारत में खोजे गए। ऐसे अनेक उल्लेख संभव हैं। नाट्य शास्त्र का उद्भव भारत में हुआ। दुनिया का पहला अर्थशास्त्र कौटिल्य ने भारत में लिखा। प्राचीन भारत की बड़ी उपलब्धियां हैं। उन पर गर्व करना चाहिए। लेकिन साथ में यह भी देखना है कि जिस प्राचीन भारत की उपलब्धियां गौरवशाली हैं, यहां पिछले 500 वर्षों में वैज्ञानिक आविष्कार कम क्यों हुए हैं?

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

 
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