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गावों में छ्प्पर-बदलते समय के साथ लुप्त हो रही है देशी छांव की विरासत

Date : 20-Nov-2025

अब नहीं दिखते पर्यावरण के लिए प्रभावी 'वो छप्पर

सीतापुर कभी गांवों की पहचान रहे घास और पतावर से बने छप्पर अब इतिहास के पन्नों में दर्ज होते जा रहे हैं। मिट्टी की दीवारों पर टिकी यह देसी छत — जो गर्मी में ठंडी, सर्दी में गर्म और बारिश में सहज सुरक्षा देती थी , अब सीमेंट और लोहे की चकाचौंध में खोती जा रही है। गांवों में तेजी से पक्के मकान बनते जा रहे हैं और लगता है कि यही अमीरी का पैमाना हो गया है;

गांवों में एक वक्त था जब छप्पर बनाना महज ज़रूरत नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव होता था। गांव के कुछ कुशल कारीगर 'छप्परकार' कहलाते थे, जिनके हाथों से उगता था देसी वास्तुशिल्प का अनूठा सौंदर्य। लेकिन अब वो हुनरमंद हाथ थक चुके हैं, और नई पीढ़ी को इसका नाम भी शायद ही मालूम हो।

छप्पर बनाना : एक सामूहिक परंपरा, एक जीवंत विरासत

सच कहा जाय तो घास, सरपत, अरहर की खपच्चियाँ, बांस और रस्सियों से बनने वाले छप्पर सिर्फ छत नहीं होते थे बल्कि वो गांव की आत्मा का प्रतीक थे। जब घरों में छप्पर डाला जाता, तो पूरा गांव —मोहल्ला साथ आता। महिलाएं रस्सियाँ बुनतीं, बच्चे दौड़ते, और बुजुर्गों की निगरानी में पूरा काम उत्सव जैसा होता।

इन छप्परों की खास बात यह है कि ये पर्यावरण के अनुकूल होते और गांवों की जलवायु के अनुसार ढलते थे; इन्हें गर्मी में ठंडा और सर्दी में गर्म रहने के लिए विशेष तकनीक से बुनकर तैयार किया जाता था। इसका रखरखाव आसान था और समय-समय पर नया छप्पर डालना एक पारिवारिक आयोजन जैसा होता था।

बदलाव की मार : परंपरा से आधुनिकता की ओर

आज गांवों में ईंट, सीमेंट, सरिया और टीन की छतें विकास की पहचान बन चुकी हैं। सरकारी योजनाएं जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना ने पक्के मकानों का विस्तार तो किया, लेकिन छप्पर जैसी परंपराएं पीछे छूट गईं। अब नक्शे बनते हैं, मिस्त्री आते हैं, और घर बन जाते हैं – लेकिन उनमें न छप्पर की सादगी है, न वो ठंडक। जो कभी कुदरत से जुड़ा जीता-जागता स्थापत्य था, वह अब केवल तस्वीरों और बुजुर्गों की यादों में रह गया है।

हिन्दुस्थान समाचार से बातचीत में क्या कहते हैं बुजुर्ग!

बुजुर्गों की आंखों में नमी, यादों में छप्पर

आज के दौर में गांव से छप्पर के लुप्त होती जा रही हमारी संस्कृति एवं विरासत पर कमलापुर के किसान श्रवण बाजपेयी बताते हैं कि हमने अपने हाथ से घास बांधकर छप्पर तैयार किए हैं। बारिश में छप्पर से टपकती बूंदें लोरी जैसी लगती थीं। वो सुकून अब कहीं नहीं। अब तो घर में शोर है, लेकिन मन में खामोशी है।

कस्बे के ही ग्राम छरासी निवासी शिक्षक गिरीश मिश्रा कहते है कि छप्पर के नीचे पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाता था। बातों की गूंज से घर गूंजता था। अब सबके अपने कमरे हैं, अपने मोबाइल हैं, लेकिन न कोई साथ है न संवाद।

सुरेंचा प्रधान रामगोपाल गुप्ता बताते हैं कि गांव में छप्पर की संस्कृति अब बीते दौर की बात हो गई है हमारे समय छप्पर बनाना भी एक उत्सव होता था। गांव के लोग मिलकर बनाते थे, हंसी-ठिठोली करते। अब छप्परकार ही नहीं बचे, और जो हैं, उन्हें कोई पूछता भी नहीं।

कमलापुर निवासी विजय तिवारी बातचीत में कहते हैं अब घर तो पक्के हो गए, दीवारें रंगीन हो गईं, लेकिन दिल बेरंग। छप्पर में जो अपनापन और ठंडक थी, वो अब सीमेंट की दीवारों में नहीं बची।

जनपद के जाने-माने साहित्यकार एवं सिधौली कस्बा निवासी अनुराग आग्नेय कहते हैं कि

छप्पर अब सिर्फ यादों और पुरानी तस्वीरों तक सीमित रह गए हैं। यह सिर्फ एक स्थापत्य कला नहीं थी, बल्कि सामाजिक ताने-बाने का अहम हिस्सा थी।शायद अब वक्त है कि हम अपनी जड़ों की ओर लौटें और उन परंपराओं को सहेजें जो वक़्त की धूल में दबती जा रही हैं। ग्रामीण शिल्प, सामुदायिक सहयोग और प्रकृति से जुड़ाव की यह विरासत पुनः जीवंत की जा सकती है, बशर्ते हम चाहें।

ऐसे मे कहा जा सकता है कि अधिकांश गांवों, कस्बों से पर्यावरण के लिए अत्यंत प्रभावशाली छप्पर संस्कृति अब लुप्त होती जा रही है।

 
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