ऋचा सिंह
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे कई महानायक हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजों और अंग्रेजी सत्ता को सीधी चुनौती देकर स्वतंत्रता सेनानियों के लिए नया आदर्श स्थापित किया। भारतीय संस्कृति को आत्मसात करने वाले ऐसे कई महापुरुष का जीवन प्रेरणा प्रद होने के साथ ही देश और समाज को राष्ट्रीयता का बोध कराता है। अपने जीवन की चिंता ना करते हुए समाज के लिए सब कुछ अर्पण करने वाले नायक निश्चित ही पूजनीय हो जाते हैं।
देश की संस्कृति, परंपरा एवं धरोहर की रक्षा की बात की जाए तो जनजातीय समाज का स्थान अग्रिम पंक्ति में आता है। भारत की आजादी की लड़ाई में सैकड़ों जनजातीय बलिदानियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतंत्रता दिलाई। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम कोई क्षेत्र ऐसा नही जहां जनजातियों ने अंग्रेजों से लोहा नहीं लिया हो। धरती आबा कहे जाने वाले बिरसा मुंडा ऐसे ही एक नायक थे जिन्होंने देश और समाज के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। जनजातीय समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के साथ बिरसा मुंडा ने भारत पर राज करने वाली ब्रिटिश सरकार के विरोध मे ऐसा जन आंदोलन खड़ा किया जिसने समाज को जागरूक करने के साथ अंग्रेजो को भारत की भूमि छोड़ने पर विवश कर दिया।
भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी एवं मुंडा जनजाति के लोक नायक बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी में हुए आदिवासी धार्मिक संस्कृति आंदोलन का नेतृत्व किया जिससे वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने के साथ अपने अनुयायियों के बीच 'धरती आबा 'के तौर पर पूजे जाने लगे। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजी सरकार के दमनकारी नीतियों के खिलाफ संघर्ष के ध्वजवाहक बिरसा मुंडा छोटा नागपुर के क्षेत्र में अंग्रेजी राज के खिलाफ हुए संघर्ष में भारतीय जनमानस को शोषण मुक्त शासन के खिलाफ एकजुट कर जन, जंगल, जमीन,आजादी और अस्मिता के लिए आवाज उठाने (उलगुलान) हेतु आवाहन किया। स्वाधीनता की लड़ाई में जनजातीय समाज के द्वारा किए गए बलिदान , शौर्य पूर्ण संघर्ष तथा उनके गौरवशाली परंपरा एवं वीरता के विषय में लोग जान सके, इसके लिए भारत सरकार द्वारा स्वाधीनता के 75 वर्ष पर बिरसा मुंडा की जयंती को "जनजातीय गौरव दिवस " के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखण्ड के खुटी जिले उलीहातू , रांची जिला, बंगाल प्रेसीडेंसी में हुआ था जिसे वर्तमान में खूंटी जिला झारखंड के नाम से जाना जाता है ।
बिरसा मुंडा का जन्म गरीब जनजाति दंपति सुगना एवं कुरमी मुंडा के पुत्र के रूप में हुआ। अपनी प्रारंभिक पढ़ाई सल्गा ग्राम में करने के बाद बिरसा ने चाई बास जी ई इन चार्च स्कूल से आगे की शिक्षा ग्रहण की। बिरसा के संघर्ष का प्रारंभ बचपन में शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही प्रारंभ होगया। बिरसा पढ़ने में बहुत अच्छे थे। प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उनको ईसाई धर्म अपना कर शिक्षार्जन के लिए विवश किया गया । बिरसा बचपन से ही प्रखर बुद्धि के बालक थे, किसी अन्य धर्म को अपना कर अपने संस्कृति और धर्म की आलोचना सुनना उन्हे गवारा नहीं हुआ। इस कारण उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर अपने धर्म में गहरी आस्था रखने के साथ लोगों को ईसाई मिशनरियों के खिलाफ़ संगठित भी करने लगे। धीरे-धीरे इनके प्रभाव से ही मुंडा समाज के लोगों में संगठित होने की चेतना जागी। अपने समुदाय के लोगों के उत्पीड़न, उनकी जमीन पर बाहरी लोगों ( दीकू) के कब्जे , जंगल के उत्पादों पर अंग्रेजो के आधिपत्य, खेती हेतु अंग्रेज़ी सरकार को कर प्रदान करने से लेकर अंग्रेजी अधिनियम के खिलाफ जो वनवासियों को जंगल के अधिकार से दूर कर रहा था, जैसे विभिन्न मुद्दों को लेकर बिरसा मुंडा ने लोगों को जागरूक किया और आंदोलन कर अंग्रेजों को इतना छका दिया जिससे परेशान होकर अंग्रेज़ी सरकार ने बिरसा को पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम भी रखा था।
इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 पारित कर अंग्रेजों ने वनवासियों एवं आदिवासियों के गांव जहां वह खेती करते थे उसमें नई राजस्व व्यवस्था प्रारंभ कर दी थी। इसके पहले मुंडा जनजाति में भूमि कोई विक्रय की वस्तु नहीं थी न ही भूमि पर खेती के लिए कर देय था । मुंडाओं में भूमि समतावादी व्यवस्था के अनुसार सभी को समान रूप से मिली थी। बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया 1899 में बिरसा ने अंग्रेजो के खिलाफ बिगुल फूंक दिया इस प्रकार मुंडा उलगुलान शुरू हुआ। बिरसा ने अंग्रेजी सरकार के शोषण के खिलाफ आंदोलन की चिंगारी फूकी। अपने शिष्यों को एकत्र कर मुंडा ने उन्हें गुलामी से आजादी दिलाने के लिए 1894 में उलगुलान की घोषणा से अपने जन जंगल जमीन पर अधिकार के लिए संघर्ष प्रारंभ कर दिया। मुंडा समुदाय ने अंग्रेजी राज को समाप्त करने और मुंडा की स्थापना करने का निर्णय लिया वे सभी ब्रिटिश अधिकारियों को अपने क्षेत्र से बाहर निकाल देना चाहते थे।
बिरसा ने 'अबुआ दिशुम अबुआ राज 'जिसका अर्थ है 'हमारा देश, हमारा राज ' का नारा देकर अपने समुदाय के लोगों को इस आवाहन से जागरूक किया। मुंडा के इस आवाहन से सभी आदिवासी अपने जमीन एवं जंगल पर दावेदारी के लिए संगठित हो गए जिससे अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ ने लगे। अंग्रेजी सरकार ने मुंडा उलगुलान को दबाने और दमन करने का हर संभव प्रयास किया लेकिन मुंडा समाज के एकजुट संघर्ष एवं शौर्य के आगे वह असफल रहे। 1897 से 1900 के बीच आदिवासी मुंडाओं ने संगठित होकर अंग्रेजों से कई युद्ध किए और अंग्रेजों को वहां से उखड़ने पर मजबूर कर दिया। मुंडा आंदोलन संगठित एवं उग्र था अपनी अस्मिता के लिए प्रखर था परिणामतः हर बार अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। बिरसा को मुंडाओ ने अपना भगवान 'धरती आबा 'मान लिया था। जिसके एक आवाहन पर मुंडा अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध अपना प्राण भी देने को तैयार थे।
19वीं सदी के विभिन्न आंदोलनों के बीच आदिवासियों का मुंडा आन्दोलन महत्वपूर्ण रहा । बिरसा ने इस मुंडा संघर्ष के साथ अपना धर्म 'विरसाइत ' भी प्रारंभ किया। अंग्रेजी सरकार ने इस विद्रोह और संघर्ष के बीच विरसा को 1895 में गिरफ्तार कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में 2 वर्ष की सजा दी। उस समय क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता के लिए बिरसा के संघर्ष और प्रयासों ने ही उन्हे अपने जीवन काल में ही महापुरुष एवं भगवान का दर्जा दिला दिया। सन 1897 में मुंडा ने सशस्त्र संघर्ष पुनः प्रारंभ कर दिया, बिरसा और उनके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमान से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडा सेना की भिड़ंत अंग्रेजी सेना से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गई लेकिन बाद में उसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारी हुई। ब्रिटिश साम्राज्य बहुत शक्तिशाली था, उससे संघर्ष करते रहना आसान भी नहीं था। अंग्रेजों ने बिरसा को 1900 में जामकोपाई जंगल में गिरफ्तार कर लिया। बिरसा का 9 जून 1900 में रांची जेल में 25 वर्ष की छोटी उम्र में निधन हो गया। अधिकारियों ने बिरसा की मृत्यु का कारण हैजा बीमारी बताया लेकिन इस पर संदेह है।
मुंडा के संघर्ष का ही परिणाम रहा कि 1960 में 'छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम' पास हुआ जिसके तहत आदिवासी जमीन को किसी गैर आदिवासी को देने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आज भी बिहार , उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा भगवान के समान पूजनीय हैं। बिरसा मुंडा की समाधि रांची में स्थित है, वहीं उनका स्टेचू भी लगा है। उनकी याद में रांची में बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट भी बनाया गया है। 15 नवंबर 2000 को बिरसा मुंडा की जयंती पर ही झारखंड राज्य का निर्माण हुआ।
बिरसा पहले ऐसे आदिवासी नेता हैं जिनका चित्र भारतीय संसद में लगा हुआ है। यह न केवल सम्मान का प्रतीक है बल्कि जन प्रेरणा भी है। बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस 'के रूप में मनायी जाती है। जिसके माध्यम से लोगों को जनजातीय समाज की गौरवशाली इतिहास, वीरता और शौर्य को जानने का शुभ अवसर प्राप्त हो सके। स्वाधीनता की लड़ाई में उनके द्वारा किए गए बलिदान, शौर्य और संघर्ष को समाज सदैव याद रखेगा। मुंडा समाज के दिलों में सदैव सदैव के लिए अपना नाम अंकित कर के बिरसा ने वो हासिल किया जो हासिल करने में एक लम्बी उम्र भी कम पड़ जाती है, उससे अधिक बिरसा मुंडा ने अपनी छोटी सी 25 वर्ष की उम्र में कर लिया और छोटी उम्र में बड़ी जिन्दगी जीकर 'धरती आबा 'बन कर इतिहास में अमर हो गए।
(लेखिका, शिक्षिका हैं।)
