कोई भी घटना अप्रत्याशित नहीं होती। सम्यक आकलन नहीं होता। हमारी नासमझी और व्यापक अनुभवों का उचित मूल्यांकन नहीं होता। हम अनुमान करते हैं। प्रमाणों की सहायता लेते हैं, लेकिन नियति प्रमाणों की परवाह नहीं करती। प्रमाणों के आकलन की छोटी-सी गलती परिणाम बदल देती है। कभी-कभी परिणाम बदलने की जिजीविषा पूरी शक्ति के साथ चुनौती देती है आकाश को, तब सितारों व ग्रह दशा भी बदल जाती है। बिहार चुनाव नतीजे ने सबको चौंकाया है। चुनाव में हार-जीत होती ही है। लेकिन बिहार की जनता ने कमाल किया है और भारतीय चुनाव के इतिहास में नया अध्याय जोड़ दिया है। संविधान निर्माताओं की भी इच्छा थी कि भारत का लोकतंत्र फले-फूले और जनता अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए स्वतंत्र हो। जनता अपने नेता चुनने के अलावा कोई हिंसक रास्ता न अपनाए। इसके लिए स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव आयोग बना। संविधान (अनुच्छेद 324) में मतदाता सूची बनाने से लेकर मतगणना तक की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग पर डाली गई। 1952 से लेकर विधानमण्डल व संसद के चुनाव कराए जा रहे हैं।
निष्पक्ष चुनाव का प्रयास देश में पहले से चल रहा है लेकिन जाति, धनबल, बाहुबल के प्रभाव ने संविधान निर्माताओं की अभिलाषा को पूरा नहीं होने दिया। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय राष्ट्र राज्य कमजोर है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में भारतीय जनता को ’हम भारत के लोग’ बनने और होने का आग्रह किया है। राजनीतिक जल्दबाजी में कभी-कभी भारत को हिंदू और मुसलमान का देश कहा जाता है। कोई सिख छोड़ देता है, कोई बुद्ध और महावीर। एक प्रधानमंत्री ने देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताया था, लेकिन संविधान निर्माताओं ने ’हम भारत के लोग’ कह कर हम सबके सामने एक आदर्श रखा है। हम किसी भी वर्ग या संप्रदाय से सम्बंधित हो सकते हैं। लेकिन प्रथमतः और अंततः भारतीय हैं। संविधान निर्माताओं ने नागरिकों को जाति, संप्रदाय, मत, पंथ मजहब के द्वारा अभिज्ञात नहीं किया है।
दुनिया 21वीं सदी में अंतरिक्ष में घर बनाने के सपने देख रही है, लेकिन राजनीति जातियों की गिनती में व्यस्त है। प्रसन्नता की बात है कि जिस बिहार को बम, पिस्तौल और हिंसा के लिए बदनाम किया गया था, उसी बिहार की जनता ने पुनर्जागरण का स्वप्न देखा है। इस देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बिहार के थे। उन्होंने देश को नई दिशा दी थी। सोमनाथ मंदिर का नवनिर्माण हुआ था। कार्यक्रम संयोजक राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से मिले थे। उन्हें सोमनाथ मंदिर कार्यक्रम में उपस्थित होने के लिए निमंत्रित किया गया था। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि भारतीय गणराज्य का राष्ट्रपति किसी धार्मिक आयोजन में हिस्सा ले, लेकिन राजेन्द्र प्रसाद वहां गए। प्रधानमंत्री की इच्छा न होने के बावजूद गए।
बिहार चुनाव ने किसी भी विभाजक आवाज को अनसुना कर दिया। राजनेता और टिप्पणीकार चुनाव के पहले से ही जीत हार का खाका बना रहे थे। जातियों के प्रतिशत निकाले जा रहे थे। कहा जाता था कि सरकार बनाने के लिए यादव और मुसलमान मिलकर पर्याप्त हैं, इसलिए चुनाव प्रचार की बहुत आवश्यकता नहीं है। इसी तरह सभी छोटी बड़ी पार्टियों में जाति का गणित फिट करने की होड़ थी। नतीजा आ जाने पर भी यह विश्लेषण थमा नहीं। एक बड़े चैनल ने कहा कि महिलाओं ने भारी संख्या में वोट दिया। कहा जाता है कि ज्यादातर महिलाओं ने राजग को वोट किया। चुनाव का यह विश्लेषण अधूरा है। चुनाव के समय की राजनीति का समग्र विश्लेषण नहीं हुआ। साथ ही चुनाव के संदेश पर भी चर्चा नहीं हो रही।
बिहार के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हीरो थे। उन्होंने 14 सभाएं की। राजग की तरफ से गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आदि वक्ताओं को जनता ने सुना। नीतीश कुमार का अपना प्रभाव है। आज से नहीं है, पहले से है। वह अनुभवी राजनेता हैं। स्वाभाविक है उनकी लोकप्रियता का लाभ गठबंधन को मिला है। चुनाव नतीजे राजग के पक्ष में एक तरफा हो गए। दल और उसके समर्थक स्वाभाविक ही खुश हैं। ढोल बाजे बज रहे हैं। खास बात यह है कि चुनाव नतीजे से खास तरह की उम्मीदें हैं। विशेष प्रकार की प्रसन्नता है। इन नतीजों की उम्मीद नहीं थी। जन सुराज पार्टी के अभियान चलाए जा रहे थे, लेकिन उन्हें कोई सीट नहीं मिली। ऐसी उम्मीद उन्हें भी नहीं थी। जो भारी बहुमत से जीते और हारे हैं, सब मिलकर विकास करें।
एक समय बिहार में जंगलराज था। अधिकारी पीटे जा रहे थे। अपहरण थे। गुण्डा टैक्स थे। राजनीति की प्रतिष्ठित कुर्सियों पर बाहुबली थे। लोग मारे जा रहे थे। हिंसा का जोर था। कोर्ट ने भी बिहार के जंगलराज पर टिप्पणी की थी। जंगलराज शब्द का उपयोग न्यायालय ने किया था। बाहुबलियों की भरमार थी। नीतीश की पिछली सरकार ने जंगलराज पर काबू पा लिया था लेकिन मध्य वर्ग और टिप्पणीकार चुनाव नतीजों को जाति के आधार पर ही जांच रहे थे। एक समय बिहार में जातियों की सेनाएं थीं। परस्पर युद्ध करती थीं। वह राजनीतिक दलों के ऊपर सवार थीं। जातिवाद से बिहार झुलसता रहा। लोगों में निराशा थी। लोग सोचते थे कि अब जाति के इस प्रेत का सामना करना कठिन हो गया है। जनता के एक वर्ग ने इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया था।
लोकतंत्र एक जीवनशैली है। विचार आधारित राजनीति लोकतांत्रिक अधिकारों व अवसर का सदुपयोग करती है। समाज को उसका हक मिलता है। बिहार में वैसा नहीं हो रहा था। इतिहास के विद्यार्थी कौटिल्य को बिहार से जोड़ते हैं। तब मगध राज्य था। छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे देश को राष्ट्र बनाने का काम कौटिल्य ने किया था। छोटे-छोटे दलों को मिलाकर एक सशक्त विकल्प देने का काम भाजपा, जदयू, लोजपा, हम आदि ने किया है। बिहार चुनाव को पूरे देश ने देखा है। चुनाव परिणामों ने किसी को भी निराश नहीं किया। चुनाव में इस बार कोई हिंसा नहीं हुई। बूथ नहीं लूटे गए। अपवाद छोड़कर व्यक्तिगत हमले नहीं हुए। वोट डालने की यह शैली पूरे देश द्वारा सराही गई है। जाति ने राष्ट्र को बड़ी क्षति पहुंचाई है। बिहार का संदेश सुस्पष्ट है। राजनीति में विचारधारा की महत्ता बढ़ सकती है, विकास की मांग बढ़ेगी। जाति की बातें नहीं चलेगी। सबका साथ-सबका विकास राजनीति का एजेण्डा है ही। उम्मीद है कि इससे भारतीय राजनीति में जाति का महत्व घटेगा। पश्चिम बंगाल के अनुभवी राजनेताओं को भी इससे प्रेरणा मिलेगी। बिहार की आदरणीय जनता को बधाई।
हृदयनारायण दीक्षित
