भारत के सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक उत्थान में दत्तोपंत ठेंगड़ी का योगदान अद्वितीय है। उन्होंने श्रमिक आंदोलन को नई दिशा देते हुए उद्योग, श्रम और राष्ट्र के बीच संतुलित संबंध स्थापित करने का कार्य किया। ठेंगड़ी जी का दर्शन केवल अर्थनीति या संगठन तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें भारतीयता, मानवीय मूल्यों और समरस समाज की व्यापक दृष्टि समाहित थी।
10 नवंबर 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के अरवी में जन्मे ठेंगड़ी जी बाल्यावस्था से ही राष्ट्रीय आंदोलनों से जुड़ गए थे। महज बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन में भाग लिया। आगे चलकर उन्होंने कई संगठन खड़े किए जो आज भी समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं — जैसे भारतीय मजदूर संघ (1955), भारतीय किसान संघ (1979), सामाजिक समरसता मंच (1983) और स्वदेशी जागरण मंच (1991)। इन संस्थाओं ने न केवल श्रमिक, किसान और समाज के वंचित वर्गों को सशक्त बनाया, बल्कि राष्ट्र की आत्मनिर्भरता की दिशा में भी कार्य किया।
ठेंगड़ी जी की वैचारिक दृष्टि भविष्यद्रष्टा थी। शीतयुद्ध के बाद उन्होंने विश्व राजनीति में साम्यवाद के पतन की भविष्यवाणी की थी, जो आगे चलकर सत्य सिद्ध हुई। वे वैश्वीकरण को केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानव केंद्रित रूप में देखने के पक्षधर थे। उनका मानना था कि विकास तभी सार्थक है जब वह समाज की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा हो। उपभोक्तावाद और असमानता के इस दौर में उन्होंने ‘स्वदेशी’ और ‘हिंदू जीवन मूल्य’ को एक वैकल्पिक आर्थिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
अर्थव्यवस्था पर उनके विचार संतुलित और राष्ट्रोन्मुखी थे। उन्होंने माना कि उद्योगों का स्वामित्व सरकारी, निजी, सहकारी या संयुक्त किसी भी रूप में हो सकता है, बशर्ते उसका उद्देश्य राष्ट्रीय हित की पूर्ति हो। उन्होंने श्रमिक आंदोलन को वर्ग संघर्ष की जगह सहयोग, समन्वय और सहकार की भावना से जोड़कर उसे नई ऊर्जा दी। उनके प्रयासों से श्रमिक आंदोलन में राष्ट्रभावना की प्रतिष्ठा हुई।
आज जब दुनिया आर्थिक असमानता, पर्यावरण संकट और उपभोक्तावाद जैसी चुनौतियों से जूझ रही है, तब ठेंगड़ी जी के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा, जिसे उन्होंने देशभक्ति का आधुनिक रूप कहा, वास्तव में उसी स्वदेशी चेतना की पुनर्स्थापना है जिसे वे जीवनभर प्रचारित करते रहे।
दत्तोपंत ठेंगड़ी केवल एक संगठनकर्ता या विचारक नहीं थे, वे भारतीय समाज के लिए मार्गदर्शक थे। उन्होंने बताया कि प्रगति का सही मार्ग वही है जो संस्कृति, श्रम और राष्ट्रहित के त्रिवेणी संगम से होकर गुजरता है। आज जब विश्व दिशाहीनता के संकट में है, तब ठेंगड़ी जी का एकात्म मानवतावादी दृष्टिकोण मानवता के लिए एक प्रकाशस्तंभ बन सकता है।
