महाराजा रणजीत सिंह, जिन्हें “शेर-ए-पंजाब” (पंजाब का शेर) के नाम से जाना जाता है, ने अपनी प्रजा पर शासन करते समय विविधता और समानता के आदर्शों को अपनाया। उनके शासनकाल से पहले पंजाब क्षेत्र कई युद्धरत मिसलों (संघों) में बंटा हुआ था। रणजीत सिंह की सेना सिर्फ सिख समुदाय तक सीमित नहीं थी; उनके सैन्य अधिकारी और सैनिक सभी धर्मों और वर्गों से आते थे।
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने कम उम्र में ही जीवन के कई कठिन अनुभवों का सामना किया। बचपन में ही चेचक की बीमारी के कारण उनकी बायीं आंख की रोशनी कम हो गई थी। जब वे 12 साल के थे, उनके पिता का निधन हो गया और युवा रणजीत सिंह पर सुकरचकिया मिसल के प्रशासन का भार आ गया। उस समय पंजाब में प्रशासनिक दृष्टि से विभिन्न मिसलें शासन कर रही थीं।
रणजीत सिंह ने अपने जीवन के शुरुआती वर्षों में अनेक संघर्षों का सामना किया। उन्होंने अपने सैन्य अभियान की शुरुआत अन्य मिसलों के सरदारों को हराकर की और 7 जुलाई 1799 को लाहौर पर कब्जा किया। 12 अप्रैल 1801 को मात्र 20 वर्ष की आयु में उन्हें पंजाब का महाराजा घोषित किया गया। उनके शासनकाल में उन्होंने मुल्तान (1818) और कश्मीर (1819) पर विजय प्राप्त की। इसके अलावा, उन्होंने हजारा (1820), पेशावर और खैबर पख्तूनख्वा (1834) पर भी अपना अधिकार स्थापित किया।
महाराजा रणजीत सिंह की सेना और प्रशासनिक दरबार विविध धर्मों और जातियों के लोगों से भरा रहता था। उनके दरबार में हिंदू, मुस्लिम और यूरोपीय अधिकारी भी शामिल थे। सेना में पोलिश, रूसी, स्पेनिश, प्रशिया और फ्रांसीसी अधिकारी भी सेवा करते थे। वे अपने अधीनस्थों और प्रजा को समान दृष्टि से देखते थे और सभी धर्मों का समान सम्मान करते थे। उन्होंने कभी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए मजबूर नहीं किया। स्वयं उनका कथन था, "भगवान ने मुझे एक आंख दी है, इसलिए मैं सभी को एक समान देखता हूँ।"
रणजीत सिंह की उपलब्धियों में प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा और तैमूर रूबी का अधिग्रहण भी शामिल है। उनके राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में खैबर दर्रे से लेकर पूर्व में सतलुज नदी तक और कश्मीर से लेकर दक्षिण में थार रेगिस्तान तक फैला हुआ था। उन्होंने पंजाब की सीमाओं को सुदृढ़ किया और अफगानों को पराजित किया।
महाराजा रणजीत सिंह का निधन 27 जून 1839 को लाहौर किले में हुआ। उनकी राख लाहौर की बादशाही मस्जिद के बगल में ‘महाराजा रणजीत सिंह की समाधि’ में रखी गई। उनके निधन के बाद सिख साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कश्मीर अलग रियासत बन गया।
महाराजा रणजीत सिंह की वीरता, दूरदर्शिता और धार्मिक सहिष्णुता ने उन्हें केवल एक महान योद्धा ही नहीं, बल्कि एक आदर्श शासक भी बना दिया।
