“क़दम-क़दम पर चौराहे मिलते हैं, बाँहे फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ।”
यह पंक्तियाँ आधुनिक हिन्दी कविता के महान कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की हैं। इनका अर्थ है कि जीवन में चौराहे मिलना एक शुभ अवसर है। ये रास्ते संकट बनकर नहीं, बल्कि विकल्प बनकर हमारे सामने आते हैं। हर विकल्प अपने आप में अनेक अन्य विकल्प समेटे होते हैं। इसलिए जीवन के अनुभवों को व्यर्थ नहीं समझना चाहिए, क्योंकि हर अनुभव का अपना महत्व और उपयोग होता है।
मुक्तिबोध का नाम ही “मुक्त व्यक्ति का ज्ञान” दर्शाता है। यह प्राचीन भारत के शास्त्रों और दार्शनिक ग्रंथों में वर्णित सर्वोच्च स्वतंत्रता की अनुभवात्मक अवस्था को संदर्भित करता है।
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। प्रारंभ से ही उन्हें साहित्य में गहरी रुचि थी और उन्होंने प्रेमचंद एवं हरनारायण आप्टे के उपन्यासों का अध्ययन किया।
मुक्तिबोध ने आधुनिक हिन्दी काव्य और समीक्षा में क्रांति ला दी। वर्ष 1943 में ‘तार सप्तक’ के प्रथम संस्करण के प्रकाशन के साथ ही उनके लेखन को व्यापक प्रशंसा मिली। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘ब्रह्मराक्षस’ हिन्दी कविता का एक महत्वपूर्ण मोड़ है।
मुक्तिबोध की रचनाएँ तीक्ष्ण एवं प्रखर विचारधारा की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं में शामिल हैं:
चाँद का मुंह टेढ़ा, भूरी-भूरी खाक धूल
साथ से उठता आदमी
कठ का सपना
विपरीत
कामायनी: एक पुनर्विचार
भारत: इतिहास और संस्कृति
समीक्षा के इतिहास
नए साहित्य का सौंदर्य शास्त्र
आखिर रचना क्यों
नई कविता का आत्मसंघर्ष
साहित्यिक डेयरी
मुक्तिबोध की पुस्तक चिदंबरा के लिए उन्हें 1964 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा, हिन्दी के विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार ने उनके जीवन और व्यक्तित्व पर आधारित “मुक्तिबोध” नामक उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें 1966 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मुक्तिबोध की संपूर्ण रचनाएँ 1980 में छह खंडों में प्रकाशित हुईं। उनकी पहली कविता संग्रह और क्लासिक रचनाएँ मरणोपरांत 1964 में प्रकाशित हुईं।
उनके नाम पर छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में मुक्तिबोध स्मारक परिसर स्थापित है। यह परिसर राज्य की साहित्यिक धरोहर और आधुनिक हिन्दी साहित्य के योगदान को प्रदर्शित करता है।
