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व्हाइट कॉलर टेरर: लैब कोट में छिपा आतंक

Date : 22-Nov-2025

 भारत को अब जिस नए तरह के आतंक का सामना करना पड़ रहा है, वह सीमा-पार से नहीं बल्कि क्लासरूम, लैब और अस्पतालों के भीतर से जन्म ले रहा है। आतंकवाद का रूप अब बदल चुका है। वह अब सीमापार की घुसपैठ, जंगलों में छिपे गिरोहों या हथियारबंद टुकड़ियों तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी जड़ें उन सफेदपोश और शिक्षित लोगों तक पहुंच चुकी हैं, जिन्हें समाज सम्मान की दृष्टि से देखता था। आतंक का नया चेहरा वह है, जो लैब कोट पहनता है, रिसर्च पेपर लिखता है, अस्पताल में ड्यूटी करता है, मेडिकल कॉलेज में पढ़ता है और आईटी कंपनियों में काम करता है। यही है ‘व्हाइट कॉलर टेरर’, जो भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी और सबसे खतरनाक चुनौती बन गया है। ‘व्हाइट कॉलर टेरर’ यानी शिक्षित, तकनीकी दक्ष और समाज में सम्मानित वे लोग, जो कट्टरपंथ की डिजिटल फैक्ट्रियों में वाहक बनते जा रहे हैं।

दिल्ली के लाल किले के पास विस्फोट और डॉक्टरों के बड़े मॉड्यूल का पकड़ा जाना इस नई साजिश का सबसे भयानक संकेत है। ये न आतंकी दिखते हैं, न किसी पर संदेह होता है। लाल किले के पास कार में हुए विस्फोट में 11 लोग मारे गए और कई घायल हुए। विस्फोटक कार के चालक की पहचान जब सामने आई तो देश स्तब्ध रह गया क्योंकि वह कोई अपराधी, कोई पुराना संदिग्ध या किसी गिरोह का सदस्य नहीं बल्कि डॉक्टर था। पुलवामा का रहने वाला युवक उमर मोहम्मद उन तीन डॉक्टरों का साथी निकला, जिनके पास से फरीदाबाद में लगभग 3000 किलो विस्फोटक और हथियार बरामद हुए थे। यह कोई साधारण संयोग नहीं बल्कि एक बेहद गहरी और सुनियोजित आतंकवादी साजिश की परतें खोलने वाला तथ्य है।

डॉक्टर मुजम्मिल, डॉक्टर आदिल और डॉक्टर शाहीन, ये तीनों उस गिरोह के केंद्र में थे, जो देश की राजधानी में बड़े पैमाने पर जनसंहार की योजना बना रहा था। इन सभी की प्रोफैशनल पहचान ने इतना मजबूत आवरण तैयार कर दिया था कि कोई इन्हें शक की निगाह से देख ही नहीं सकता था। इसी मॉडल का चौथा सदस्य डॉक्टर मोहिउद्दीन गुजरात पुलिस के आतंकवाद-निरोधक दस्ते की गिरफ्त में आया। चीन से मेडिसिन की पढ़ाई कर लौटे इस युवक को राइसिन जैसा घातक जहर तैयार करते हुए पकड़ा गया, जो एक ही बार में सैंकड़ों लोगों की जान ले सकता था। यह घटनाएं पहली नहीं हैं लेकिन निश्चित रूप से सबसे खतरनाक हैं। पुणे का डॉक्टर अदनान अली सरकार हो या बेंगलुरु की बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत इंजीनियर अथवा आईटी प्रोफेशनल्स, पिछले एक दशक में कई उच्च शिक्षित लोग आतंकी संगठनों के लिए काम करते हुए पकड़े जा चुके हैं। ऑनलाइन पहचान छिपाने के लिए फर्जी नाम, छद्म प्रोफाइल, एन्क्रिप्टेड चैट और डार्क वेब समूहों का इस्तेमाल अब इनका सामान्य हथियार बन चुका है। आइएस, अल-कायदा या छोटे स्थानीय मॉड्यूल, ये सभी इस नए वर्ग को अपनी ‘बौद्धिक सेना’ बनाने में सक्रिय हो चुके हैं।

यह धारणा अब पूरी तरह मिथ्या साबित हो चुकी है कि केवल गरीब, वंचित या अशिक्षित लोग ही मजहबी उन्माद या सामाजिक उत्पीड़न के कारण कट्टरपंथी बनते हैं। हाल के वर्षों में आतंक के रास्ते पर चलने वाले लोगों की सूची देखें तो स्पष्ट होता है कि उनमें बड़ी संख्या में डॉक्टर, इंजीनियर, तकनीकी विशेषज्ञ और डिग्रीधारी युवा शामिल हैं। उनकी समस्या न तो आर्थिक है, न सामाजिक बल्कि वैचारिक है। वे इंटरनेट पर उपलब्ध कट्टरपंथी सामग्री, डार्क वेब चैट रूम, टेलीग्राम चैनलों और गहरे धार्मिक उन्माद से प्रेरित वीडियो के माध्यम से धीरे-धीरे विचलित होते हैं और फिर एक ऐसे जाल में फंस जाते हैं, जिसे वे खुद भी कभी समझ नहीं पाते। भारत में केरल, कश्मीर, दिल्ली, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं, जहां प्रोफैशनल डिग्री वाले व्यक्ति आइएस, जैश, लश्कर या अल-कायदा के लिए काम करते हुए पकड़े गए। कुछ ने तो खुद के ‘जिहादी मॉड्यूल’ भी बना लिए, जिनके नाम मजहबी संदर्भों से प्रेरित थे, जैसे गजवा-ए-हिंद के नाम पर सक्रिय कई छोटे समूह। ये संगठन मजहबी मान्यताओं की मनचाही व्याख्याएं करके, उसे ‘धर्मयुद्ध’ का रूप देकर अत्याचार, जनसंहार और हिंसा को जायज ठहराते हैं। समय-समय पर इन पर फतवे भी जारी हुए, लेकिन कट्टरपंथियों पर उनका कोई असर नहीं पड़ा।

जिहादी आतंक कोई आत्मस्फूर्त हिंसा नहीं बल्कि एक घिनौनी विचारधारा का परिणाम है। यह विचारधारा मजहबी ग्रंथों की विकृत व्याख्याओं पर आधारित है। अब जब डॉक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक भी इस विचारधारा का शिकार होने लगें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्या कहीं गहरे छिपी है। सरकार, पुलिस और एजेंसियां अकेले इस विचारधारात्मक युद्ध को नहीं जीत सकती, यह समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है। परिवारों, शिक्षण संस्थानों, धार्मिक समूहों और सामाजिक नेतृत्व को मिलकर यह समझना होगा कि कट्टरपंथ कैसे जन्म लेता है और कैसे फैलता है। व्हाइट कॉलर टेरर की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह संदेह के दायरे से बाहर रहता है। समाज में सम्मानित होने के कारण डॉक्टर, इंजीनियर या आईटी विशेषज्ञ कोई हथियार लेकर नहीं घूमते। वे किसी सूची में नहीं होते। उनका कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं होता। वे तकनीक, बैंकिंग, डिजिटल कम्युनिकेशन, एन्क्रिप्शन और साइबर सुरक्षा के विशेषज्ञ होते हैं। यही कारण है कि वे निगरानी तंत्र को चकमा देने में सफल हो जाते हैं। वे वीपीएन, क्रिप्टो ट्रांजैक्शन, डार्क वेब चैट, प्रोटॉन मेल और ऑटो-डिलीट चैट का इस्तेमाल करते हैं। वे विस्फोटकों की खरीद-फरोख्त के लिए फर्जी पहचान बनाते हैं। उनके खाते, उनके लेन-देन और उनकी यात्राएं सामान्य नागरिक जैसे दिखते हैं। यही कारण है कि एजेंसियों के लिए इनके व्यवहार का पैटर्न पहचानना ही सबसे कठिन चुनौती बन जाता है।

आज आतंकवादी संगठनों की रणनीति बदल चुकी है। वे अब जंगलों या सीमाओं पर नहीं बल्कि विश्वविद्यालयों, अस्पतालों, लैब्स और तकनीकी संस्थानों में नए सदस्य खोजते हैं। टेलीग्राम और सिग्नल पर ‘भाईजान’, ‘शहीद’, ‘मुजाहिद’, ‘काफिरों के खिलाफ जंग’ जैसे भावनात्मक शब्दों में संदेश भेजे जाते हैं। ऐसे संदेश धार्मिक, सामाजिक या न्याय के नाम पर ‘कथित अन्याय’ का चित्र बनाते हैं और युवा धीरे-धीरे कट्टरपंथी बन जाते हैं। यह ‘ब्रेन वॉशिंग’ चुपचाप होती है, किसी को पता तक नहीं चलता। डॉक्टर और इंजीनियर आखिर आतंकी क्यों बन रहे हैं और आतंकवादी कौनसे नैरेटिव से प्रेरित हैं, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। हर जिहादी संगठन अपने हिंसक कृत्यों को मजहबी मान्यताओं की आड़ में सही ठहराता है। यही कारण है कि आतंक के खिलाफ होने वाले फतवों का कोई असर नहीं होता क्योंकि समस्या धार्मिक आस्थाओं की राजनीतिक और हिंसक व्याख्याओं में है। व्हाइट कॉलर आतंकी सबसे खतरनाक इसलिए हैं क्योंकि उन्हें रोकना सबसे मुश्किल है। इन पर समाज भरोसा करता है और ये विश्वास को ही हथियार बनाकर आतंक फैलाते हैं। यही कारण है कि अब भारत को सुरक्षा का एक ऐसा नया फ्रेमवर्क तैयार करना होगा, जो केवल निगरानी पर आधारित न हो बल्कि रैडिकलाइजेशन को रोकने के लिए शिक्षा, समाज और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स में व्यापक सुधार भी करे।

बहरहाल, एजेंसियों को अब व्यवहार आधारित एआई निगरानी, डिजिटल फुटप्रिंट विश्लेषण, क्रिप्टो-ट्रैकिंग और इंटरनेशनल डेटा-शेयरिंग की दिशा में और मजबूत कदम उठाने होंगे। शिक्षण संस्थानों में साइबर-रेडिकलाइजेशन पर जागरूकता अभियान चलाने होंगे। धार्मिक नेतृत्व को कट्टरपंथी व्याख्याओं के खिलाफ स्पष्ट और ठोस संदेश देने होंगे। लाल किले का धमाका और उससे जुड़ा व्हाइट कॉलर मॉड्यूल स्पष्ट चेतावनी है कि अगली लड़ाई जंगलों या सीमा पर नहीं होगी बल्कि क्लासरूम, लैब, अस्पताल, ऑफिस और वर्चुअल दुनिया में लड़ी जाएगी। यदि हमने इस खतरे को अभी नहीं समझा तो आतंक का यह नया चेहरा उतना ही विनाशकारी होगा, जितना हमने पहले कभी नहीं देखा। ऐसे में भारत की सुरक्षा केवल हथियारों पर नहीं बल्कि समाज के नैतिक ढ़ांचे, शिक्षण संस्थानों की जागरूकता और नागरिकों की सतर्कता पर निर्भर है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

 
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