सनातन परंपरा में एकादशी व्रत का खासा महत्व है| इस दिन व्रत रखने से भक्तो की सारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है| हर महीने दो एकादशी पड़ती हैं, एक कृष्ण पक्ष में और दूसरा शुक्ल पक्ष में| यह दिन हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार एक वर्ष में 24 बार आता है। कभी-कभी, दो अतिरिक्त एकादशी होती हैं जो एक अधिवर्ष में होती हैं। प्रत्येक एकादशी के दिन विशिष्ट लाभों और आशीर्वादों को प्राप्त किया जाता है जो विशिष्ट गतिविधियों के प्रदर्शन से प्राप्त होते हैं। भागवत् पुराण में भी एकादशी के बारे में बताया गया है।
हिन्दू धर्म और जैन धर्म में एकादशी को आध्यात्मिक दिन माना जाता है। वहीं, भाद्रपद की कृष्णा पक्ष की एकादशी का व्रत 10 सितंबर को रखा जाएगा|
व्रत का महत्व-
शास्त्रों में यह बताया गया है कि अजा एकादशी व्रत के दिन उपवास रखने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। साथ ही साधक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। इसके साथ व्यक्ति को भूत-प्रेत, ग्रह दोष इत्यादि के भय से मुक्ति प्राप्त हो जाती है और मृत्यु के उपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन एकादशी व्रत कथा का श्रवण करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है।अजा एकादशी का व्रत मनुष्य को धर्म के मार्ग पर चलकर मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलने की शिक्षा देता हैं।
मान्यताओं के अनुसार अजा एकदशी में दो पौराणिक कथा प्रचलित है -
1.धर्मराज युधिष्ठिर
2.सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की
विवरण-
1.धर्मराज युधिष्ठिर-
अजा एकादशी के महात्म्य के विषय में धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा तब श्री कृष्ण ने कहा- हे धर्मराज युधिष्ठिर! भाद्रपद (भादों) माह की कृष्णपक्ष की एकादशी को अजा एकादशी और अन्नदा एकादशी कहा जाता हैं। इसका व्रत महान पुण्य देने वाला और मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला हैं। इसका व्रत को करने वाला इस लोक में सुख भोग कर मृत्यु के बाद वैकुण्ठ धाम को चला जाता हैं।
अजा एकादशी का व्रत सत्यवादी राजा हरीशचंद्र के द्वारा किया गया था और उसके प्रभाव से उनके समस्त दुखों का अंत हुआ और उन्हे मोक्ष की प्राप्ति हुई।
2.सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र-
पौराणिक कथा के अनुसार अयोध्या नगरी पर भगवान श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र का राज था। उनकी सत्यप्रियता और सत्यवादिता सभी दिशाओं में फैली हुई थी। वो अपनी धर्मपरायणता और सत्यनिष्ठा के लिये सारे संसार मे प्रसिद्ध थे। उनकी पत्नी का नाम तारामति (उनका एक नाम शैव्या भी था) था। उनका एक पुत्र भी था उसका नाम था रोहिताश्व।
उनकी परीक्षा लेने कि इच्छा से देवताओं ने एक योजना बनाई। एक रात्रि सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को स्वप्न आया कि उन्होने अपना सारा राज्य ऋषि विश्वामित्र को दान में दिया हैं। अगले दिन ऋषि विश्वामित्र उनकी सभा मे उपस्थित हो गये और उनसे कहा कि, हे राजन! तुमने स्वप्न में अपना सारा राज्य मुझे दान कर दिया था। अब तुम इस राज्य को मुझे सौंप दो। राजा हरिश्चंद्र ने सत्य का पालन करते हुए अपना राज्य ऋषि विश्वामित्र को सौंप दिया। सारा राज्य लेने के बाद भी ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र से दक्षिणा में पांच सौ स्वर्ण मुद्राओं की मांग की। राजा हरिश्चंद्र अपना राज्य और सारा धन तो पहले ही उन्हे दे चुके थे। अब उनके पास देने के लिये कुछ भी नही था। तो ऋषि विश्वामित्र को पांच सौ स्वर्ण मुदायें देने के लिये उन्होने अपनी पत्नी तारामति, पुत्र रोहिताश्व और स्वयं को बेच दिया।
राजा हरिश्चंद्र को एक चाण्ड़ाल ने खरीदा था। उसने उन्हे शमशान में मृतकों के परिजनों से शवदाह के लिये कर लेने के कार्य पर लगा दिया। एक राजा से एक चाण्ड़ाल के दास के रूप में जीवन जीना बहुत दुष्कर कार्य था। परन्तु राजा हरिश्चंद्र बहुत ही सत्यनिष्ठ और दृढ़ संकल्प शक्ति वाले थे। उन्होने परिस्थितियों से हार नही मानी और संघर्ष करते करते बहुत समय बीत गया। सौभाग्यवश एक बार महर्षि गौतम से राजा हरिश्चंद्र की भेंट हुई, तब उन्होने महर्षि गौतम से अपनी सारी व्यथा कही और उनसे उस परेशानी से निकलने का उपाय पूछा। राजा हरिश्चंद्र की दुखद कहानी सुन कर महर्षि गौतम को बहुत दुख हुआ। तब उन्होने राजा हरिश्चंद्र को अजा एकादशी के व्रत का विधान बताया।
राजा हरिश्चंद्र ने अजा एकादशी का व्रत करना आरम्भ कर दिया। उधर राजा के पुत्र रोहिताश्व की सर्पदंश से मृत्यु हो गई। उसके दाह संस्कार के लिये रानी तारामति राजा हरिश्चंद्र के पास पहुँची, तो राजा हरिश्चंद्र ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुये अपनी पत्नी तारामति से मृतक पुत्र के शवदाह के लिये कर मांगा। तब तारामति ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर कर के रूप में राजा हरिश्चंद्र को दिया।ऐसे समय में भी राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य का मार्ग नही छोड़ा। यह देखकर आकाश में देवता प्रकट हो गये और उन्होंने राजा हरिश्चंद्र से कहा – हे राजन! आपने सत्यनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता का जो आदर्श प्रस्तुत किया हैं, वो अन्नत काल तक लोगो की स्मृति में रहेगा। तुम सत्यवादिता के प्रतीक के रूप मे जाने जाओगे। तुम्हारी ख्याति अमर रहेगी। फिर उन्होने उन्हे बताया कि यह सब आपकी परीक्षा थी। और तभी उनका पुत्र भी जीवित हो गया। अजा एकादशी व्रत के प्रभाव से ऋषि द्वारा रची गई सारी माया समाप्त हो गई और अन्त समय में हरिश्चन्द्र अपने परिवार सहित स्वर्ग लोक चले गए। जो मनुष्य इस उपवास को विधि पूर्वक करके रात्रि-जागरण करते हैं, उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में उन्हें स्वर्ग प्राप्त होता हैं।
अजा एकादशी व्रत पूजा विधि-
अजा एकादशी व्रत के दिन साधक को कुछ विशेष नियमों का पालन करना चाहिए। इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान-ध्यान करें और पूजा स्थल की साफ-सफाई करें। इसके बाद ईशान कोण में एक चौकी पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। ऐसा करने के बाद व्रत का संकल्प लें और भगवान विष्णु को धूप, दीप, पुष्प, पंचामृत, तुलसी, चंदन इत्यादि अर्पित करें। फिर भगवान को फल एवं मिठाई का भोग लगाएं और आरती के साथ पूजा संपन्न करें। इस बात का ध्यान रखें की आरती से पहले एकादशी व्रत कथा का पाठ जरूर करें।