हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ प्रगतिशील कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध' | The Voice TV

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हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ प्रगतिशील कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

Date : 11-Sep-2023

 आधुनिक हिंदी कविता एवं समीक्षा के सर्वाधिक चर्चित व्यक्तित्व गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को श्योपुर, ग्वालियर, मध्यप्रदेश में हुआ था। उनके पिता माधव राव जी एक निर्भीक एवं दबंग व्यक्तित्व के पुलिस अधिकारी थे। माता जी श्रीमति पार्वती मुक्तिबोध हिंदी वातावरण में पलीं एक समृद्ध परिवार की धार्मिक, स्वभिमानी एवं भावुक महिला थीं । प्रेमचंद व हरिनारायण आप्टे के उपन्यासों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी, 1939 में शांता जी से उन्होंने विवाह किया । नागपुर विश्वविद्यालय से 1953 में एम. ए. (हिंदी) की उपाधि प्राप्त की ।

मुक्तिबोध 20 वर्ष की उम्र से बड़नगर मिडिल स्कूल में मास्टरी प्रारंभ कर दौलतगंज (उज्जैन), शुजालपुर, इंदौर, कलकत्ता, बम्बई, बंगलौर, वाराणसी, जबलपुर, नागपुर आदि स्थानों में कार्यरत रहे । अंततः दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में प्राध्यापक नियुक्त होकर अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं का उपहार हिंदी जगत को दिया । अध्ययन-अध्यापन, लेखन व पत्रकारिता के साथ -साथ आकाशवाणी व राजनीति की व्यस्तता के बीच सतत संघर्ष व जुझारू व्यक्तित्व का परिचय देते हुए मुक्तिबोध ने आधुनिक हिंदी कविता व समीक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी युग का सूत्रपात किया ।

चाँद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल (कविता संग्रह), सतह से उठता आदमी, काठ का सपना, विपात्र (कथा साहित्य), कामायनी एक पुनर्विचार, भारत : इतिहास और संस्कृति, समीक्षा की समस्याएँ, नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, आखिर रचना क्यों, नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा एक साहित्यिक की डायरी के अतिरिक्त छह खंडो में प्रकाशित मुक्तिबोध रचनावली, मुक्तिबोध की लेखनी के तेज व प्रखर विचारधारा के जीवंत साक्ष्य है। लंबी बीमारी के बाद 11 सितम्बर 1964 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ ।

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा
तेरी प्रत्यंचा का कम्पन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पन्द हृदय के अन्धकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण बाण की नोकों पर जीवन-सँचार करेगा।
 “नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपने युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा को चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।” 

 

 
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