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बिहार विस चुनाव : राम मंदिर ने उप्र में जाति की दीवारें तोड़ीं, अब बिहार में सीता की बारी

Date : 06-Nov-2025

 — 'राम-सीता' के भावनाओं की लहर तोड़ेगी चुनावी जातीय गणित

पटना/सीतामढ़ी, 06 नवम्बर। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में राम मंदिर का भव्य उद्घाटन देश की राजनीति का अध्याय बदल चुका है। अब वही लहर बिहार की धरती पर सीता मंदिर के शिलान्यास के रूप में उतर रही है। एक ओर भगवान राम की जन्मभूमि उत्तर प्रदेश की आस्था को जगाती है तो दूसरी ओर माता सीता की जन्मस्थली सीतामढ़ी बिहार की आत्मा को। यही संगम राम से सीता तक अब बिहार चुनाव 2025 की नई कहानी लिखने जा रहा है।

बीती आठ अगस्त को जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह एक साथ सीता मंदिर के शिलान्यास कार्यक्रम में मंच साझा करते दिखे,तब बहुतों ने कहा कि यह सिर्फ धार्मिक समारोह नहीं,बल्कि बिहार चुनाव 2025 की नई शुरुआत है।

हिंदुत्व की पुनर्स्थापना, बिहार में गढ़ा जा रहा धार्मिक गर्व का नया विमर्श

अयोध्या के राम मंदिर ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में हिंदुत्व की भावनाओं को नई धार दी । अब भाजपा और जेडीयू मिलकर उसी भावनात्मक लहर को बिहार की धरती पर फैलाने में जुटे हैं। जहां राम जन्मभूमि आंदोलन ने उत्तर भारत की राजनीति का रुख बदल दिया, वहीं अब सीता जन्मभूमि के नाम पर बिहार में 'धार्मिक गर्व' का नया विमर्श गढ़ा जा रहा है। अमित शाह ने शिलान्यास समारोह में कहा था कि राम बिना सीता अधूरी हैं और भारत बिना बिहार अधूरा। अयोध्या और सीतामढ़ी, दोनों मिलकर इस राष्ट्र की आत्मा हैं। राजनीतिक विश्लेषक इसे ‘राम से सीता तक हिंदुत्व की विस्तार रेखा’ मान रहे हैं। भाजपा और उसके सहयोगी दल इसे नारी सम्मान, धर्म और राष्ट्रभक्ति के संगम के रूप में पेश कर रहे हैं।

नीतीश कुमार की 'सीता नीति', संतुलन साधने की कोशिश

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मंच पर भले अमित शाह के साथ थे,लेकिन उनका संदेश कुछ अलग था। उन्होंने कहा कि माता सीता की भूमि का विकास ही सच्ची श्रद्धा है। यह मंदिर सिर्फ धर्म का नहीं, विकास का प्रतीक बनेगा। नीतीश कुमार के इस बयान को कई जानकार 'राजनीतिक संतुलन' के रूप में देख रहे हैं। वह हिंदुत्व की लहर में बहने से बचते हुए, उसे 'संविधान और समरसता' से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि भाजपा इसे अपनी विचारधारा के विस्तार के रूप में भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही।

तेजस्वी का वार, आस्था पर सियासत की धार

सीता मंदिर के मुद्दे ने जहां एनडीए को नैरेटिव का नया आधार दिया है, वहीं विपक्ष इसे 'चुनावी हथकंडा' बता रहा है। राजद के तेजस्वी यादव ने कहा कि जब बेरोजगारी, महंगाई और पलायन पर जवाब नहीं होता, तब मंदिर याद आता है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बिहार की जनता राम और सीता दोनों को लेकर गहरी भावनात्मक जुड़ाव रखती है। सीतामढ़ी से लेकर अयोध्या तक हर वर्ष लगने वाली परिक्रमा यात्रा में लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं। राजनीतिज्ञ मानते हैं कि यह भावनात्मक रिश्ता चुनावी हवा का रुख मोड़ सकता है।

अयोध्या-सीतामढ़ी आस्था यात्रा को राष्ट्र एकता से जोड़ने की योजना

भाजपा के प्रचार तंत्र में अब 'रामराज्य' और 'जननी जन्मभूमि' की बातें प्रमुखता से शामिल हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री अश्विनी चौबे का कहना है कि अयोध्या में मंदिर बन चुका है, अब बिहार में सीता का मंदिर बनेगा। यही राष्ट्र की पूर्णता है। एनडीए की अयोध्या से सीतामढ़ी तक की आस्था यात्रा को राष्ट्र एकता से जोड़ने की योजना है।

'राम-सीता' भावनाओं की लहर तोड़ेगी परंपरागत गणित

इस बार का चुनाव सिर्फ जातीय समीकरणों का नहीं, बल्कि आस्था और राष्ट्रीय गौरव के टकराव का प्रतीक बनता जा रहा है। पिछले तीन दशकों से बिहार की राजनीति जाति के घेरे में रही है। यादव, कुर्मी, पासवान, ब्राह्मण, भूमिहार की गणित ही सत्ता का समीकरण तय करती रही। लेकिन- राम और सीता के नाम पर उठी भावनाओं की लहर उस परंपरागत गणित को तोड़ सकती है। राजनीतिक विश्लेषक बब्बन मिश्र कहते हैं कि राम मंदिर ने उत्तर प्रदेश में जाति की दीवारें तोड़ीं, अब सीता मंदिर बिहार में वही काम कर सकता है।

बिहार में बदल रहा चुनावी समीकरण

अयोध्या और सीतामढ़ी दोनों जगह एक ही भाव है-आस्था, पहचान और एकता की पुकार। भाजपा इसे राष्ट्रभक्ति से जोड़ रही है तो नीतीश इसे विकास और संस्कृति से। लेकिन जो भी हो, 2025 का बिहार चुनाव अब सिर्फ सत्ता का नहीं, संस्कृति बनाम समीकरण का चुनाव बन गया है। राम से सीता तक का यह सफर शायद तय करेगा कि क्या बिहार भी अयोध्या की राह चलेगा?

 
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