छत्तीसगढ़ का बस्तर अंचल प्राकृतिक सौंदर्य व आदिम संस्कृति और सभ्यता के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है.कई ऐतिहासिक-पुरातात्विक स्थलों जैसे मामा भांजा मंदिर,बत्तीसा मंदिर,दंतेश्वरी मंदिर,विष्णु मंदिर,गणेश मंदिर,कोटमसर गुफा आदि यहां अवस्थित हैं| यहां हम बस्तर के नृत्यकला के बारे में जानेंगे,
नृत्यकला बस्तर के जनजातियों द्वारा विभिन्न अवसरों पर कई प्रकार के नृत्य किए जाते हैं जिनमें प्रमुख निम्नानुसार हैं-
1.हुलकी नृत्य:- हुलकी पाटा घोटुल का सामूहिक मनोरंजक गीत हैं.इसमें हुलकी मंदरी का प्योग होता है..इसे अन्य सभी अवसरों पर भी किया जाता है इसके गीत नृत्य के मुख्य आकर्षण होते हैं हुलकी पाटा में लड़कियों और लड़के दोनों भाग लेते हैं.
2.मांदरी नृत्य:- मांदरी नृत्य में मांदर की करताल पर केवल नृत्य किया जाता है.पुरुष नर्तक इसमें हिस्सा लेते हैं उनके गले में मांदरी वाद्य यंत्र होता है.मांदरी नृत्य में युवती भी 'चिटकोली' के साथ हिस्सा लेती हैं.बीच में एक युवक "ढुडरा" बजाता है.यह घोटुल का नियमित नृत्य होता है.
3.करसाड़-यह अबूझमाड़ियों का एक विशेष पर्व है जिसमें गोत्र देव की पूजा की जाती है.इस अवसर पर यह नृत्य बड़े उत्साह से किया जाता है.इस नृत्य के दौरान एक प्रकार की तुरही बजती रहती है जिसे 'अक्कुम' कहते हैं.इस नृत्य को जात्रा नृत्य भी कहते हैं.
4.भतरा नाट:-यह नृत्यप्रधान लोकनाट्य है. इसके नाटक मंडली में 20 से 40 कलाकारों का समूह होता है. ऐसे कलाकारों को 'नाट कुरया' कहा जाता है.वास्तव में भतरा नाट ओड़िया नाट से मिलती-जुलती है.बस्तर संभाग में भतरा नाट का आयोजन प्रमुख रुप से किया जाता है.विस्तृत मैदान में खुले मंच पर ग्रीष्म ऋतु में आयोजित होने वाले भतरा नाट के कथानक प्रमुख रूप से पौराणिक होते हैं,जिसमें मेघनाथ शक्ति,रुक्मणी हरण,लंका दहन, जरासंध वध,कीचक वध,रावण वध,अभिमन्यु वध आदि प्रमुख हैं.इसकी की मुख्य भाषा भतरी होती है.
5.गेड़ी नृत्य:-बस्तर में निवास करने वाली जनजाति में 'घोटुल' की प्रथा है.घोटुल आदिवासियों के सामाजिक संगठन का नाम है.मुरिया युवक लकड़ी की गेंड़ी पर एक अत्यंत तीव्र गति का नृत्य करते हैं जिसे 'डिटोंग ' कहा जाता है.इस नृत्य में स्त्रियां भाग नहीं लेती,केवल पुरुष सदस्य शामिल होते हैं. 6.गौर नृत्य:-बस्तर में माड़िया जनजाति जात्रा नाम से वार्षिक पर्व मनाती है.जात्रा के दौरान गांव के युवक युवतियां रात भर नृत्य करते हैं.इस नृत्य के समय माड़िया युवक गौर नामक जंगली पशु का सींग कौड़ियों से सजाकर अपने शीश पर धारण करते हैं. इसी कारण गौर नृत्य कहा जाता है.वस्तुतः नृत्य वर्षाकाल की अच्छी फसल,सुख और संपन्नता को केंद्र में रखकर किया जाता है.
6.दोरला नृत्य:- यह बस्तर की दोरला जनजाति का प्रमुख नृत्य है.इस नृत्य में स्त्री पुरुष दोनों सहभागी होते हैं.मुख्य रूप से यह एक पारंपरिक नृत्य है जिसमें पुरुष पंचे,कुसमा,रूमाल एवं स्त्रियाँ रहके और बट्टा पहनती हैं.दोरला नृत्या का प्रमुख वाद्य यंत्र विशेष प्रकार का ढोल होता है.
7.मावोपाटा:-यह मुरिया जनजाति का एक अद्भुत शिकार नृत्य है.इस में नवयुवकों द्वारा जंगली भैंसे या सांभर का शिकार किया जाता है.शिकार के किसी अज्ञात स्थान पर छुप जाने के बाद युवक उसे तलाशते हैं और युवतियों से उसका पता पूछते हैं.'युवतियाँ नहीं मालूम है' का जवाब देकर लोक गीत गाती रहती हैं.प्रयास के बाद शिकार मिल जाता है,फिर शिकार का भोजन बनाया जाता है.इस के दौरान लोक वाद्य 'टिमकी' और 'कोटोडका' बजाया जाता है.यह नृत्य कम से कम 1 घंटे तक चलता है.शिकार कथा पर आधारित यह नृत्य बड़ा ही रोमांचक होता है.बस्तर के आदमी जीवन में मुरिया जनजाति का यह लोकनाट्य अपनी संपूर्ण पारंपरिकता के साथ मंच पर प्रस्तुत होता है.यह शिकार कथा बस्तर बस्तर की वास्तविक जीवन का स्वाभाविक स्पंदन है.
8.डंडारी नृत्य:-दक्षिण बस्तर में विलुप्त हो रही डंडारी नाचा की परंपरा को चिकपाल-मारजूम के धुरवा जनजाति के लोग कई पीढिय़ों से सहेजे हुए हैं। राजस्थान की डांडिया शैली से मेल खाती डंडारी नाचा की अपनी खासियत व मिठास है। खास किस्म की बांसुरी 'तिरली' की धुन पर नर्तक लयबद्ध तरीके से थिरकते हैं, तो लोग मंत्रमुग्ध होकर देखते रह जाते हैं। देवी दंतेश्वरी की सेवा का भाव लिए कलाकार हर साल फागुन मंंडई में बिना नागा पहुंचते हैं। खपच्चियों का इस्तेमाल : डांडिया में साबुत डंडियों का इस्तेमाल होता है, जबकि डंडारी नाचा के लिए खास किस्म के पतले बांस की खपच्चियां काम आती है। बांस की डंडियां को बाहर की तरफ चीरे लगाए जाते हैं, जिनके टकराने से बांसुरी व ढोल के साथ नई जुगलबंदी तैयार होती है। बांस की खपच्चियों को नर्तक स्थानीय धुरवा बोली में तिमि वेदरी, बांसुरी को तिरली के नाम से जानते हैं। तिरली को साध पाना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। यही वजह है कि दल में ढोल वादक कलाकारों की तादाद ज्यादा है, जबकि इक्के-दुक्के ही तिरली की स्वर लहरियां सुना पाते हैं। सीटी से बदलता स्टेप-नृत्य के दौरान ही मुंह में सीटी दबाए नर्तक का संकेत पाकर दल फुर्ती से स्टेप बदल लेता है। कलाकारों की मानें तो छोलिया डंडारा, मकोड़ झूलनी, कुकुर मूतनी, सात पड़ेर, छ: पड़ेर मिलाकर कुल 5 धुन बजाई जाती है। सभी के अलग-अलग स्टेप तय हैं। डंडारी नाचा में महिलाएँ भी शामिल होती हैं.
संस्कृति:- बस्तर की जनजातियों में ऐसी कई मान्यताएँ,रीति-रिवाज व परम्पराएँ हैं जो उन्हें एक अलग पहचान दिलाती हैं.उनका रहन-सहन उनकी पुरातन संस्कृति सचमुच अद्वितीय है.